बुधवार, 11 मार्च 2009

हिन्दी भाषा का इतिहास

भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में मानी जाती है। इसकी प्राचीनता का एक प्रमाण यहाँ की भाषाएँ भी है। भाषाओँ की द्रष्टि से काल खंड का विभाजन निम्नानुसार किया जाता है :
वैदिक संस्कृत
लौकिक संस्कृत
पाली
प्राकृत
अपभ्रंश तथा अव्ह्त्त
हिंदी का आदिकाल
हिंदी का मध्यकाल
हिंदी का आधुनिक काल

हिंदी शब्द की उत्पति "सिन्धु" से जुडी है। "सिन्धु" "सिंध" नदी को कहते है। सिन्धु नदी के आस-पास का क्षेत्र सिन्धु प्रदेश कहलाता है। संस्कृत शब्द "सिन्धु" ईरानियों के सम्पर्क में आकर हिन्दू या हिंद हो गया। ईरानियों द्वारा उच्चारित किया गए इस हिंद शब्द में ईरानी भाषा का "एक" प्रत्यय लगने से "हिन्दीक शब्द बना है जिसका अर्थ है "हिंद का"। यूनानी शब्द "इंडिका" या अंग्रेजी शब्द "इण्डिया" इसी "हिन्दीक " के ही विकसित रूप है।
हिंदी की साहित्य1000 ईसवी से प्राप्त होता है। इससे पूर्व प्राप्त साहित्य अपभ्रंश में है इसे हिंदी की पूर्व पीठिका माना जा सकता है। आधुनिक भाषाओँ का जन्म अपभ्रंश के विभिन्न रूपों से इस प्रकार हुआ है :

अपभ्रंश - आधुनिक भाषाएँ
शोर्सेनी - पश्चिमी हिंदी, राजस्थानी, पहाड़ी , गुजराती
पैशाची - लहंदा, पंजाबी
ब्राच्द - सिंधी
महाराष्ट्री मराठी
मगदी - बिहारी, बंगला, उदिया, असमिया

1पश्चिमी हिंदी - खडी बोली या कौरवी २। ब्रिज ३। हरयाणवी ४। बुन्देल ५।कन्नौजी
२। पूर्वी हिंदी - १। अवधी २। बघेली ३। छत्तीसगढ़ी
३। राजस्थानी - १। पश्चिमी राजस्थानी (मारवारी ) पूर्वी राजस्थानी
४। पहाड़ी - १। पश्चिमी पहाड़ी २। मध्यवर्ती पहाड़ी (कुमौनी - गड्वाली )
५। बिहारी - १। भोजपुरी २। मागधी ३। मैथिलि

आदिकाल - (1000---1500)
अपने प्रारंभिक दौर में हिंदी सभी बातों में अपभ्रंश के बहुत निकट थी इसी अपभ्रंश से हिंदी का जन्म हुआ है। आदि अपभ्रंश में अ, आ, ई, उ, उ ऊ, ऐ, औ केवल यही आठ स्वर थे। t ई, औ, स्वर इसी अवधि में हिंदी में जुड़े । प्रारंभिक , 1000 से 1100 ईसवी के आस-पास तक हिंदी अपभ्रंश के समीप ही थी । इसका व्याकरण भी अपभ्रंश के सामान काम कर रहा था। धीरे -धीरे परिवर्तन होते हुए और 1500 इ- आते-आते हिंदी स्वतंत्र रूप से खडी हुई। 1460 के आस-पास देश भाषा में साहित्य सर्जन प्रारंभ होचुकाहो चुका था। इस अवधि में दोहा, चौपाई ,छप्पय दोहा , गाथा आदि छंदों में रचनाएं हुई है। इस समय के प्रमुख रचनाकार गोरखनाथ, विद्यापति, नरपति नालह, चंदवरदाई, कबीर आदि है।

मध्यकाल 1500-----1800 तक
इस अवधि में हिंदी में बहुत परिवर्तन हुए। देश पर मुगलों का शासन होने के कारन उनकी भाषा का प्रभाव हिंदी पर पड़ा। परिणाम यह हुआ की फारसी के लगभग 3500 शब्द, अरबी के 2500 शब्द, पश्तों से 50 शब्द, तुर्की के 125 शब्द हिंदी की शब्दावली में शामिल हो गए। यूरोप के साथ व्यापर आदि से सम्पर्क बढ़ रहा था। परिणाम स्वरुप पुर्तगाली, स्पेनी, फ्रांसीसी और अंग्रजी के शब्दों का समावेश हिंदी में हुआ। मुगलों के आधिपत्य का प्रभाव भाषा पर दिखाई पड़ने लगा था। मुग़ल दरबार में फारसी पड़े -लिखे विद्वानों को नौकरियां मिली थी परिणामस्वरूप पड़े-लिखे लोग हिंदी की वाक्य रचना फारसी की तरह करने लगे। इस अवधि तक आते-आते अपभ्रंश का पूरा प्रभाव हिंदी से समाप्त हो गया जो आंशिक रूप में जहा कही शेष था वह भी हिंदी की प्रकृति के अनुसार ढलकर हिंदी का हिस्सा बन रहा था। इस अवधि में हिंदी का स्वर्णिम साहित्य सरजा गया। भक्ति आन्दोलन ने देश की जनता की मनोभावना को प्रभअवित किया। भक्त कवियों में अनेक विदवान थे जो तत्सम मुक्त भाषा का प्रयोग कर रहे थे। राम और क्रष्ण जनम स्थान की ब्रिज भाषा में काव्य रचना की, जो इस काल के साहित्य की मुख्यधारा मानी जाती हैं। इसी अवधि में दखिनी हिंदी का रूप सामने आया। पिंगल, मैथली और खड़ी बोली में भी रचनाये लिखी जा रही थी। इस काल के मुख्य कवियों में महाकवि तुलसीदास, संत सूरदास, संत मीराबाई, मालिक मोहम्मद जायसी, केच्दास, बिहारी भूषण है। इसी कालखंड में रचा गया रामचरितमानस जैसा ग्रन्थ विश्व में विख्यात हुआ हिंदी में क, ख, ग, ज, फ, ये पाच नयी ध्वनियाँ, जिनके उच्चारण प्रायः फारसी पड़े-लिखे लोग ही karte थे। इस काल के भक्त निर्गुण और सगुन उपासक थे। कवियों का रामाश्रयी और कृष्णाश्रयी शाखाओं में बांटा गया। इसी अवधि में रीतिकालीन काव्य भी लिखा गया।
आधुनिक काल ( 1800 से अब तक )
हिंदी का आधुनिक काल देश में हुए अनेक परिवर्तनो का साक्षी है। परतंत्र में रहते हुए देशवासी इसके विरुद्ध खड़े होने का उपक्रम कर रहे थे। अंग्रेजी की का प्रभाव देश की भाषा और संस्कृति पर दिखाई पड़ने लगा। अंग्रेजी शब्दों का प्रचालन हिंदी के साथ बड़ा। मुगलकालीन व्यस्था समाप्त होने से अरबी, फारसी के शब्दों के प्रचालन में गिरावट आई फारसी से गृहीत क, ख, ग, ज, फ ध्वनियों का प्रचालन हिंदी में समाप्त हुआ। अपवाद स्वरुप कही कही ज और फ ध्वनि शेष बची। क, ख, ग ध्वनियाँ क, ख, ग में बदल गयी। इस पूरे कालखंड को 1800से 1850 तक और fir 1850 से1900 तक तथा 1900 का 1900 तक और 1950 se 2000 तक विभाजित किया जा सकता हैं।
संवत 1830 में जन्मे मुंशी सदासुख लाल नियाज ने हिंदी खड़ी बोली को प्रयोग में लिया । खड़ी बोली उस समय भी अस्तित्व में थी । खड़ी बोली या कौरवी का उद्भव शौरसेनी अपभ्रंश के उत्तरी रूप से हुआ है । इसका क्षेत्र देहरादून का मैदानी भाग , सहारनपुर , मुज्जफरनगर, मेरुत , दिल्ली बिजनौर ,रामपुर ,मुरादाबाद है । इस बोली में पर्याप्त लोक गीत और लोक कथाएं मौजूद हैं । खड़ी बोली पर ही उर्दू , हिन्दुस्तानी और दक्खनी हिंदी निर्भर करती है । मुंशी सदा सुखलाल नियाज के आलावा इंशा अल्लाह खान इसी अवधि के लेखक है । इनकी रानी केतकी की कहानी पुस्तक प्रसिद्ध है । लल्लूलाल , इस काल खंड के एक और प्रशिध लेखक है । इनका जनम संवत 1820 में हुआ था कोल्कता के फोर्त्विलियम कॉलेज के अध्यापक जॉन गिल्ल्क्रिस्ट के अनुरोध पर लल्लूलाल जी ने पुस्तक प्रेम सागर खड़ी बोली में लिखी थी । प्रेम सागर के आलावा सिंघासन , बत्तीसी , बेताल पचीसी , शकुंतला नाटक , मधोनल भी इनकी पुस्तकें हैं जो कड़ी बोली में , ब्रज और उर्दू के मिश्रित रूप में हैं । इसी कालखंड इक और लेखक सदल मिश्र हैं । इनकी नासिकेतोपाख्यान पुस्तक प्रशिध है । सदल मिश्र ने अरबी और फारसी के शब्दों का प्रयोग न के बराबर किया है । कड़ी बोली में लिखी गयी इस पुस्तक में संस्कृत के शब्द अधिक हैं । संबत 1860से 1914 के बीच के समय में कालजई कृतियाँ पराया नहीं नहीं मिलती । 1860  के आस -पास तक हिंदी गद्य प्रया अपना निश्चित स्वरुप ग्रहण करचुका था । इसका लाभ लेने के लिये अंग्रेजी पादरियों ने ईसायत के प्रचार - प्रसार के लिए इंजील और बाइबिल का अनुबाद खड़ी बोली में किया यद्यपि इनका लक्ष्य अपने धर्म का प्रचार - प्रसार करना था । तथापि इसका लाभ हिंदी को मिला देश की साधारण जनता अरबी - फारसी मिश्रित भाषा में अपने पौराणिक आख्यानों को कहती और सुनती थी । इन पादरियों ने भी भाषा के इसी मिश्रित रूप का प्रयोग किया । अबतक 1857 का पहला स्वतंत्रता युद्ध लड़ा चूका था अतः अंगरेजी शासकों की कूटनीति के सहारे हिंदी के माध्यम से बाइबिल के धर्म उपदेशों का प्राचर - प्रसार खूब हो रहा था . भारतेंदुबाबू हरेश्चंद्र ने हिंदी नव जागरण की नीव रखी । उन्होंने अपनें नाटकों , कविताओं , कहावतों और किस्सा गोई के माध्यम से हिंदी भाषा और जातीय के उठान के लिय खूब काम किया । कविवचनसुधा के माध्यम से हिंदी का प्रचार -प्रसार किया । गद्य में सदल मिश्र , सदासुखलाल ,लल्लू लाल आदि लेखकों ने हिंदी खड़ीबोली को स्थापित करने का काम किया । भारतेंदु बाबू हरेश्चंद्र ने कविता को ब्रज भाषा से मुक्त किया उसे जीवन के यथार्थ से जोड़ा । सन 1866 देश में बहुत बड़ा अकाल पड़ा । जनता मरती रही और प्रशासक रंगरेलियां करते रहे । देश में दस से बीस लाख लोग मौत के शिकार हुए । ऐसे समय में भार्तेंदुबबू हरेश्चन्द्र ने आवाज दी " निज भाषा उन्नत अहै सब उन्नत को मूल , बिनु निज भाषा ज्ञान के मिटे न हिय को शूल " अंग्रेजों के अत्याचारों और सब तरह के शोशानो से दुखी जनता अपने देश पाना की ओर झुकी । इसी अवधि के लेखकों में पंडित बदरी नारायण चौधरी , पंडित प्रताप नारायण मिश्र । बाबू तोता राम । ठाकुर जग मोहन सिंह । लाल श्री निवास्दास । पंडित बाल क्रष्ण भट्ट पंडित केशवदास भट्ट ,पंडित अम्बिकादुत्त व्यास । पंडित राधारमण गोस्वामी आदि हैं । हिंदी भाषा और साहित्य को परमार्जित करने के उद्देश्य से इस काल खंड में अनेक पात्र - पत्रिकाओं का प्रकाशन प्रारंभ हुआ .इनमें चन्द्रिका । नवोदिता हरिश्चंद्र , हिन्दी बंगभाषी , आर्य व्रत , उचितवक्ता भारत मित्र , सरस्वती ।, दिनकर प्रकाश आदि । 1900 वी सदी का प्रारम्भ  हिदी भाषा के विकास की द्रष्टि से बहुत महत्वपूरण है । इसी समय में देश में स्वतंत्रता आन्दोलन प्रारंभ हुआ था । राष्ट्र में कई तरह के आन्दोलन चल रहे थे । इनमे कुछ गुप्त और कुछ प्रकट थे पर इनका माध्यम हिंदी ही थी अब हिंदी केवल उत्तर भारत तक ही सीमित न रह गई थी । हिंदी अब  तक पूरे भारतीय आन्दोलन की भाषा बन चुकी थी । साहित्य की द्रष्टि से बंगला, मराठी हिंदी से आगे थीं परन्तु बोलने बालों की द्रष्टि से हिंदी सबसे आगे थी । इसी लिए हिंदी को राज भाषा बनाने की पहल गाँधी जी समेत देश के कई अन्य नेता भी कर रहे थे । सन 1918 में हिंदी साहित्य सम्मलेन की अध्यक्षता करते हुए गाँधी जी ने कहा था की हिंदी ही देश की राष्ट्र भाष होनी चाहिए । सन 1900से लेकर 1950 अक हिंदी के अनेक रचना करों ने इसके विकास में योग दान दिया इनमे मुंशी प्रेम चंद ,जय शंकर प्रसाद , दादा माखन लाल चतुर्वेदी , मैथिलीशरण गुप्त , सुभद्राकुमारी चौहान , आचार्य रामचंद्र शुक्ल , सूर्य कान्त त्रिपाटी निराला । सुमित्रा नंदन पन्त , महा देवी वर्मा आदि । मुग़ल सल्तनत और अंग्रेजों की गुलामी के समय में भारतीय भाषाएँ राज भाषाएँ न बन पाई थी । देश की आजादी के साथ ही हिंदी को राज भाषा का दर्जा मिला । संविधान के अनुच्ग्चेद 343 (१) में हिंदी को राजभाषा बनाने का विवरण दिया गया है --'सघ की राज भाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी । संघ के शासकीय प्रयोजनों के लिए भारतीय अंको का अंतरराष्ट्रीय रूप प्रयोग में आएगा । भारत सरकार ने समरूपता बनाये रखने की द्रष्टि से देव नगरी लिपि को इस रूप में माना है ------- अ , आ , इ , ई , उ , ऊ , ऋ , ए , ऐ , ओ , औ ,अं ,अ: क ख ग घ ङ च छ ज झ ञ ट ठ ड ढ ण ड़ ढ़ त थ द ध न प फ ब भ म य र ल व श ष स ह क्ष त्र ज्ञ श्र ।

  अंकों के वारे में भारतीय संविधान में बहुत साफ़ - साफ़ कहा गया है कि अन्तर्ररास्ट्रीय  मान्यता प्राप्त अंक भारत सरकार प्रयोजनों के लिए काम में लिए जायेंगे . इस  तरह यह स्पष्ट है कि जिन अंकों को हम अंगरेजी का अंक कहते हैं , वे अंग्रेजी  के अंक न हो कर हिदी के अंक हैं . 

सोमवार, 5 जनवरी 2009

भाषा पर चिंतन करने वाले नेता नहीं बचे

यद्यपि गाँधी जी न तो इतिहासकार थे और न ही साहित्यकार तथापि उनके लेखन को समझने वाला कोई भी व्यक्ति उनके इन दोनों रूपों को खारिज नहीं कर सकता । उनकी किसी भी पुस्तक का शीर्षक इतिहास और साहित्यक प्रष्टभूमि पर केन्द्रित नहीं है । लेकिन उनकी ऐसी कोई रचना नहीं जिसमें इतिहास और साहित्य के वारे में विचार न किया गया हो । भाषा के वारे में गाँधी जी की द्रष्टि बहुत व्यापक थी । वे जानते थे की मानव जीवन के सभी व्यव्हार भाषा से ही अनुस्यूत हैं । भाषा से परे कुछ भी नहीं । यही कारन है की स्वतंत्रता के केन्द्र में रहकर भी भारतीय भाषाओँ के विकास के लिए निरंतर चिंतन करते रहे उनके वारे में लोक चेतना पैदा करते रहे । इस हेतु उन्होंने जितना श्रम किया उतना श्रम अन्य कोई नेता नहीं कर पाया । हिन्दी साहित्य सम्मलेन की अध्यक्षता सम्हालते हुए वे हिन्दी के विकास के लिए हमेशा उपलव्ध रहे। तब ये सम्मलेन भारत में ही होते थे । आज विश्व हिन्दी सम्मेलनों को संबोधित करनें के लिए हमें हमेशा राष्ट्रीय स्तर के नेता की कभी न ख़त्म होने वाली तलाश रहती है । यही बात स्थानीय स्तर पर भी लागू होती है। भाषा और साहित्य को समर्पित किसी छोटे से आयोजन को संबोधित करने वाले नेता उपलव्ध नहीं होते या फ़िर वे इस लायक ही नहीं पाए जाते की उन्हें इन विषयों पर सुना जा सके . अक्सर आज का नेता भाषा और साहित्य पर चिंतन नहीं करता जिसका दुखद परनाम यह हुआ की आज हमारी भाषाओँ के सामनें जो संकट है उससे आम आदमी अन्विग्य है। आज का सच यह है की देश का आम आदमी या तो नेताओं की आवाज सुनता है याफिर अभिनेताओं की । ऐसे कटिन समय में राज नेताओं की यह जिम्मेंदारी बनती है की वे समय की मांग को समझें और देश की जनता को अपनी भाषाओँ के प्रति अनुराग से भरें । यह kam अविलम्ब होना चाहिए ।
गाँधी जी हिन्दी को राष्ट्रीय भाष बनाना चाहते थे । यह बात और है की बाद में वे हिन्दुस्तानी के पक्ष में बात करने लगे थे । हिन्दुस्तानी का पक्ष उन्होंने इस लए लिया था कियोंकि वे नहीं चाहते थे की भाषा के कारन हिंदू और मुसलमानों के बीच झगडा न हो । सन १९१८ में साहित्य सम्मेलन प्रयाग के८वेन अधिवेशन को संवोधित करते हुए उन्होंने इंदौर में कहा था '' आज हिन्दी से स्पर्धा करने वाली कोई भाषा नहीं है । हिन्दी -उर्दू का झगडा छोड़ने से रास्ट्रीय भाषा का सबाल सरल हो जाता है । हिन्दुओं को फारसी शब्द थोड़ा बहुत जानना पड़ेगा इस्लामी भाइयों को संस्कृत शब्द का ज्ञान संपादन करना पड़ेगा । इसे लें देन से हिन्दी भाषा का बल बडेगा और हिंदू मुसलमानों में इकता का इक बड़ा साधन हमारे हाथों में आ जाएगा । अंग्रेजी भाषा का मोह दूर करने के लिए इतना अधिक श्रम करना पड़ेगा की हमें लाजिम है की हम हिन्दी -उर्दू का झगडा न उठाएं । लिपि की तकरार भी हमें न उतानी चाहिए । '' ( अनुभूति के स्वर प्रष्ट ८व ९ ) गाँधी जी हिन्दी के विकास के लिए उर्दू और हिन्दी की विभाजक रेखा मिटाना चाहते थे । उनकी यह व्हाहट कोरी कल्पना न थी बल्कि इसके बहुत मजबूत भाषाई आधार थे । हिन्दी के सुविख्यात आलोचक डा .रामविलास शर्मा ने इस विषय पर अपने चिंतन को इन शव्दों में लिखा है '' जब तक दो लिपियों का चलन रहता है,टीबी तक हिन्दी का बाजार विभाजित रहता है संयुक्त बाजार में हिन्दी और उर्दू के बिच होड़ हो , दोनों का साहित्य एक लिपि के मध्यम से आम पातकों तक पहुंचे , तो वे फ़ैसला क्र सकेंगे , कौन सी शैली उन्हें अधिक पसंद आयगी उसी का चलन होगा । पूरे भारत के मानचित्र को देखते हुए ऐसी सामान्य लिपि नागरी ही हो सकती है । फारसी और संस्कृत के शव्दों को तो एक भाषा में तो मिलाया जासकता है परन्तु फारसी और नागरी लिपि को मिलकर एक अजूबा लिपि नहीं बनाई जा सकती । इस लिए इन दो में एक को चुनना होगा ।अनपद किसानो और मजदूरों को शिक्षित करना हो तो उन पर दो लिपियाँ लड़ना उन पर भरी अत्याचार करना होगा । एक लिपि ही सीख लें तो बड़ी बात है । इसलिए जो लोग भी किसानों और मजदूरों के आन्दोलन से दिलचस्पी रखते हैं , उन्हें कम से कम हिन्दी प्रदेश में नागरी लिपि के व्यव्हार और प्रयोग पर जोर देना चाहिए ।'' (गाँधी , आम्बेडकर , लोहिया और भरतीय इतिहास की समस्यां -प्रष्ट ४१९ )

हिन्दी -उर्दू के बीच की बड़ाई गई है । इसा करने वालो न के निजी किंतु संकीर्ण स्वार्थ हैं विश्व में यही दो भाषायं है जिनके क्र्यापद सामान हैं केवल लिपि बदल देने से उसे एक अलग भाषा बनने की बात समझ में नहीं आती । अगर उर्दू को नागरी में लिखा गया होता तो इसके साहित्य के पातकों की संख्या आज भुत होती । गाँधी जी इसी लिए सामान लिपि की बात कर रहे थे । उनको इसी द्रष्टिकोण को श्री विनोवा भावे ने आगे बढाया था । इतना ही नहीं उन्होंने सभी भारतीय भाषाओँ के लिए सामान लिपि की वकालत की थी । ऐसा करने से भारतीय भाषाओँ के समक्ष आज मौजूद चुनौती का सामना सरलता सा किया जा सकता था । समांन लिपि होने से भाषाओ की पहचान को भी कोई खतरा नहीं होता । यौरोपे की सभी भाषाओँ की लिपि रोमन है फिर भी उनकी पहचान अलग अलग है इसी तरह भारत की भाषाओँ की लिपि देव नगरी हो सकती है । आज जब यह शोध सामने आगया है की सन २०४० तक हिन्दी के अलावा भारत की अन्य भाषाएँ समाप्त हो जाएँगी । ऐसे कठिन समय में भाषाओं को बचाने के लिए सामान लिपि वाला फार्मूला राम बाण है । गाँधी जी इतिहास के वारे में मौलिक दंग से सोचते थे । उनके लिए इतिहास उर्जा प्राप्त करने का साधन है । उन्होंने लिखा '' इतिहास देश पर गर्व करना सिखाने का साधन है । मुझे इतोहस सिखाने की उपने स्कूल की पद्धति में इस देश के बारे में गर्व अनुभव करने का कोई कारन नहीं मिला । इसके लिए मुझे दूसरी किताबें पदनी पड़ीं । '' (गाँधी वांग्मय १४/३२) यहाँ गांघी जी नें इतिहास के वारे में बहुत बुनयादी सवाल उठाए हैं । इन सवालों के जबाव पंडित सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला ने सुधा पत्रिका की संपादकी में लिखे हैं । निरंतर------