सोमवार, 25 अप्रैल 2011

विमर्श के नये क्षितिज तलाशती पुस्तक '' नागार्जुन संवाद ''

नागार्जुन के जन्म  सती वर्ष के उपलक्ष्य में पूरे देश में अनेक आयोजन हुए . श्री मध्य भारत हिन्दी साहित्य समिति , इन्दौरे  ने डॉ विजय बहादुर सिंह को व्याख्यान के लिए आमंत्रित किया . डॉ विजय बहादुर सिंह सुविख्यात आलोचक और लेखक और कवि हैं . हमारे समय के सवालों से सबसे सबसे अधिक व्यापकता के साथ उठाने वाले वे अकेले आलोचक दोखाई पड़ते हैं ..  नागार्जुन संवाद उनकी एक बहुत महत्वपूर्ण  पुस्तक है . कवि नागार्जुन को समझने और साहित्य अनेक पक्षों पर चिंतन करने के लिए इस पुस्तक में प्रचुर सामग्री है . संवाद शैली में लिखी गयी यह पुस्तक , शोधार्थियों , लेखकों को जरूर पढनी चाहिए . लेखक की प्रतिब्ध्ता के वारे में नागार्जुन यह कथन  देखिये   '' कैसा भी विश्लेष्ण हो , कवि को सीमित कर देता है और काल क्रम में विशेषण झरते चलते हैं . '' [ प्रष्ठ 18 ]
                 आलोचक विजय बहादुर सिंह अनेक सवाल नागार्जुन से करते हैं जिनके बहुत महत्वपूर्ण
 उत्तर  इस पुस्तक में उपलब्ध हैं ,
 पुस्तक ----- नागार्जुन संवाद
  संपादक ----- डॉ विजय बहादुर सिंह
   मूल्य ------- रु -- 150
    प्रकाशक ---- बाक्स korogetrs एंड प्रिंटर्स
                          गोविन्द  पुरा भोपाल , [ मध्य - प्रदेश ]

सोमवार, 18 अप्रैल 2011

नई उदभावनाओं का बे जोड़ कवि , श्री गिरेन्द्र सिंह भदौरिया

कविता का उद्देश्य न तो केवल मनोरंजन करना है और न केवल विचार या विचार धारा  का प्रचार करना भर  है .जब -जब कविता से यह गुलामी करवाने का निंदनीय प्रयास किया गया है , तब - तब वह समाज की मुख्य धारा      से कट गयी है . इसका एक  बड़ा उदाहरण मुक्ति बोध और अज्ञेय जैसे कवियों से लिया जासकता है . ये  बड़े कवि हैं परन्तु अकेडमिक रूप से मूल्यांकित हैं , जनता में उस तरह से स्वीकृत और मूल्यांकित नहीं है जैसे  तुलसीदास   ,   निराला ,  कबीरदास  हैं . गिरेन्द्र सिंह  की कविता पर  बात  करते  हुए मेरा कोई  उद्देश्य इनकी तुलना उक्त कवियों से करने की नहीं है . आज की कविता विचारों से लदी     फंदी  और ऊबड़ खाबड़ है की मानो पाठक और श्रोता को कोई रस ही नहीं  दे पाती ,ऐसे समय में कविता के सरस रूप की जरूरत है , एक तो आज का आदमी अपने जीवन के बोझ से दबा हुआ है ऊपर से असंस्कारित कविताई उसे और नीरसता में डुबोती है इस कारण साहित्य से  उसकी दूरियां  और बढती  जारही हैं .
       गिरेन्द्र सिंह  भदौरिया की कविता में इन बातों के विपरीत प्रक्रति का सानिध्य है , कल्पना की सुकोमलता है और जीवन के साथ इनका तादात्म . कविता जब तक पाठक का मन रंजित करते हुए उसे जीवन के धरा तल से ऊपर ना  उठए तब तक वह किसी काम की नहीं होती . गिरेन्द्र  सिंह की कविताओं में यह ताकत है देखें -----'' पंथी का गंतव्य , गत्य  तक नहीं / गत्य से आगे भी है . ...... जीवन का उद्देश्य , म्रत्यु तक नहीं , म्रत्यु से आगे भी है ' कोई कठिनाई पैदा किये बिना कवि अपनी बात पाठाक तक भेज देता है .  समाज की जिम्मेदारी जिन पर थी वे सब अपना उत्तर दायित्व भूलकर अपने पेट की आग बुझाने में लगे हुए हैं कवि ने लिखा '' खेतों को बागड निगलती जा रही है ''   सब तरफ भ्रष्टाचार फैला है और सब परेशान लेकिन मौन हैं ,ऐसे समय में कवि लिखता है --- '' धारा मुख्य बना सन्नाटा , मौन प्रमुख प्रहरी हैं''' और भी --''अब तो बलिदानी भावों को , पागल पन कहते हैं .'' एक कवि ही तो है जो हर युग में स्वम तो जागता  ही है समाज को भी जगाता रहता है ----'' अनाचार की जिस आंधी में / दानवता मुहं खोल  रही है ..... सुधी जानो के मध्य रक्त से सनी लेखनी बोल रही है ''
         गिरेन्द्र सिंह की कविता में प्रयुक्त कुछ उपमाएं  देखें , यह उपमा चांदनी के लिए की गई है '' धूप हिम से निकल जर्द पीतल हुई , अग्नि गर्भा सुता सर्द शीतल हुई .''  ऐसी उपमा अन्यत्र न मिलेगी जहां चांदनी को धूप से निकला हुआ कहा गया हो . एक उपमा और देखिये ---''या के केशर मिलाया हुआ दूधिया / दिव्य आलोक  इस लोक ने पी लिया .'' अब आप कल्पना कीजिए और तुलना भी करें की चांदनी का रंग और केशर मिले दूध में कैसी बेजोड़ समानता है .इसी क्रम में एक और उपमा देखिये ---'' मानो उबटन लगाए हुए बिजलियाँ / बिछ  गईभूमि पर छोड़ कर बदलियाँ .'' बिजली जब  बादलों में कौन्धिती तब वह सफेद होती है परन्तु चांदनी पीला पन लिए होती है .इसी लिए कवि ने बिजली को उबटन लगा कर पीला किया है और उसे चांदनी के रूप में प्रतुत किया है . यथार्थवादी इसे नही मानेगे परन्तु इस सबसे कविता का मूल्य कम नहीं हो जाता .  ''बादल को धन्य बाद '' कविता में ऐसी ही अनेक उपमाएं पाठाक का मन मोहती हैं .
               केवल आलोचक की प्रशंसा पा कर कोई बड़ा कवि नहीं बन सकता , जब तक की कवि को जनता का , पाठाक का पूरा आशीर्वाद न मिले . हमारे समय के कवि श्री गिरेन्द्र सिंह  भदौरिया के पास श्रोता भी हैं और पाठक भी . उम्मीद है क़ि उनसे भविष्य में बहुत मर्म स्पर्शी कविताएँ हिन्दी के पाठकों को मिलेंगी .....

शनिवार, 16 अप्रैल 2011

गोआ में तुम

सुप्रसिद्ध कहानीकार श्री बलराम का कहानी संग्रह ' गोआ में तुम ' अभी हाल में ही प्रकाशित हुआ है . इस संग्रह में 15 कहानियां हैं . हमारे समय की विसंगतियों पर लिखी गई इन कहानियों में पाठक अनेक तरह के प्रश्नों से रूबरू होता है .  लेखन  कर्म की यह सबसे बड़ी चुनौती होती है की वह अपने पाठक के सामने प्रश्न खड़े करे . समाधान खोजना रचना का काम नहीं होता है . और न ही अपने पाठकों को उपदेश देना लेखक का काम है.नारी की स्वतंत्रता पर बड़ी चर्चा की जा रही है और झांसे में फंसी  वह भी अपने को आजाद मानने लगी है पर हालात कुछ और ही हैं लेखक ने इसे लिखा है '' बचपन  से ही सुनती आई हूँ की जीवित बचे रहने के लिए लडकी को कदम - कदम पर
समझौते करने पड़ते हैं . '' [ प्रष्ठ  15 ] लेखक के पास बड़ी पैनी निगाह है  जो पूरे पाखंड को समझ कर बात को पूरी साफ़ गोई के साथ सामने रखता है . ये  कहानियाँ मानवीय सरोकारों , और बदलते मनोविज्ञान पर अलग तरह से प्रकाश डालती हैं . दार्शिनिक भाव पर कई कहानियां है . बहुत महीन ताने बाने की बुनावट वाली इन काहानिओं में एक रवानगी है जो पाठक को गहरे  तक बांधती है . यह लेखकीय कौशल बड़े अनुभव और धीरज से ही पैदा होता है जो लेखक की अपनी कमाई होती है . इन कहानिओं को पढ़ते  हुए लिखक श्री बलराम के एक कहानीकार का सबल और सफल रूप सामने आता है .
 पुस्तक --- गोआ में तुम
 लिखक --- श्री बलराम
 प्रकाशक       भावना प्रकाशन , 109 ,
                      पटपड गंज , दिल्ली  91
   मूल्य --- र - 150
             

मंगलवार, 12 अप्रैल 2011

आगामी दस वर्ष


भविष्य का आकलन करना निःसंदेह सबसे कठिन कार्य है। लेकिन आज के विश्व  को देखते हुए आगामी दस वर्षों के स्वरूप के बारे में अनुमान लगाया जा सकता है।  दस वर्ष बाद समूचे विश्व   का परिदृष्य बहुत बदल चुका होगा। जैसा कि पिछले 10 वर्षों में बदला है। आज से 10 वर्ष पहले मानवीय सम्बन्धों जो गरमाहट, समर्पण और अहलाद का भाव होता था, वैसा 10 वर्ष बाद दिखाई नहीं पड़ेगा। इसके लिए जहां समय अवधि जिम्मेदार होगी वहीं हमारी शिक्षा तथा मौजूदा नेताओं का चरित्र जिम्मेदार होगा। जिन राष्ट्रीय मूल्यों और उद्देष्यों को लेकर स्वतंत्रता आंदोलन लड़े गये , वे मूल्य धारासा यी होते हुए दिखाई पड़ेंगे। इसके लिए एक उदाहरण भाषाओं के संबंध में लेना पर्याप्त होगा। गांधीजी स्वराज्य में  अपनी भाषओं को बढ़ता हुआ देखना चाहते थे, क्योंकि उनके लिए आजादी और भाषाई स्वतंत्रता दोनों का एक ही मायने था। इसलिए वे कहते थे -’’ मेरा नम्र लेकिन दृढ़ अभिप्राय है कि जब तक हम भाषा को राष्ट्रीय और अपनी प्रांतीय भाषओं में उनका योग्य स्थान नहीं देंगे, तब तक स्वराज्य की सब बातें निरर्थक है।’’ (सन् 1918 में इन्दौर में दिए गए भाषण से)। गांधीजी की दृष्टि में प्रांतीय और राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी को उचित स्थान न देने का मतलब गुलाम बने रहना जैसा ही था। आजादी के इन 60 वर्षों में भारत की अशक्षित जनता को न्याय अभी भी उनकी भाषओं में नहीं मिल रहा हैं। आगामी 10 वर्षों में संसार का भाषाई परिदृष्य कैसा होगा, इस पर यूनेस्को ने एक विस्तृत अध्ययन करवाया है इस अध्ययन में विश्व  की सभी भाषाओं के बारे में है ,भविष्य का आकलन किया गया है। भारत की भाषाओं के लिए खतरे की घण्टी बजते हुए सुनाई पड़ रही है। इस रिपोर्ट  में यह खुलासा किया गया है कि आगामी दशकों  में भारत के प्रांतों की भाषाएं समाप्त हो जायेगी। और वे सिमटकर स्थानीय बोलियों के रूप में बचेगी। ऐसा होना निःसंदेह दुःखद होगा, लेकिन ऐसा होना इसलिए तय है क्योंकि आजादी के बाद भारतीय भाषाओं के संरक्षण के उपाय नहीं किये गये। उन्हें रोजगारोन्मुखी नहीं बनाया गया। केवल ऊपरी तौर पर प्रदर्शन कर भाषाओं के संरक्षण का ढोल पीटा गया है। विश्व भाषा  के रूप में हिन्दी आगामी १० वर्षों  में स्थापित होते हुए दिखाई पड़ने लगेगी। अंग्रेजी भाषा का साम्राज्य कम होगा।  इस सम्बन्ध में डॉ रामविलास शर्मा की मान्यता भी विल्कुल ऐसी  ही है . वर्तमान में बाजार की भाषा के रूप में हिन्दी निरंतर ब़ढ़ रही है। भाषा का विकास व्यापार भी तय करता है। केवल साहित्य के सहारे भाषा का विकास नहीं होता। आज बाजारू हिन्दी को देखकर जो जन सोचते हैं कि भाषा के स्वरूप को बिगाड़ा जा रहा है ,वे देखेंगे कि आगामी 10 वर्षों में हिन्दी को विश्व भाषा के रूप में स्थापित करने में वे ही बाजार और बाजारू हिन्दी सहायक बनेगी। हिन्दी मीडिया, अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग में और आगे बढ़ेगी। और अंग्रेजी के शब्द हिन्दी व्याकरण के साथ आकर उसी तरह हिन्दी भाषा का हिस्सा बन जायेंगे, जैसे अरबी, फारसी, पश्तो, फ्रेंच, इटेली और अंग्रेजी के शब्द पहले से घुले-मिले हैं .  
भारतीय समाज में तेजी से परिवर्तन आयेगा। सदियों से व्याप्त जातीय भेद-भाव और कुरीतियों से समाज मुक्त होगा। समाज में वैज्ञानिक सोच विस्तार पायेगा , महिलाओं की स्थिति पहले से बदलेगी। महिला सशक्तिकरण का कार्य सकारात्मक परिणाम दिखाएगा। शिक्षा का प्रचार-प्रसार बढ़ेगा, लेकिन समाज के सभी वर्गों तक    शिक्षा  नहीं पहुँच पायेगी, जिसके कारण एक बहुत बड़ा वर्ग अविकसित अवस्था में जिएगा। यह अशिक्षित  वर्ग और दयनीय स्थिति में जाएगा। आर्थिक विकास की यह अंधी दौड़ मनुष्य को स्वार्थी बनाएगी। वह अपने तईं और अपने परिवार तक सीमित बनेगा। सामाजिक चिंताओं और वैश्विक  सरोकारों से दूर अधिकांश जनसंख्या केवल अपने लिए जिएगी। शिक्षा  का उददेष्य मनुष्य को मनुष्यता सिखाने की बजाय केवल नोट कमाने का साधन बनाना भर बचेगा। एक ओर जातीय व्यवस्था कमजोर होगी तो दूसरी ओर धन के आधार पर वर्ग भेद पनपेगा, जो समाज में नये जातीय समीकरणों को पैदा करेगा।
आगामी 10 वर्षों में एक वैश्विक संस्कृति आकार लेने लगेगी। ग्लोबल बिलिज में अपनी-अपनी पहचान बनाए रखने के लिए भाषाएं और संस्कृतियां संघर्ष करते हुए दिखेगी। ऐसे समय में भारतीय संस्कृति अपने वैज्ञानिक तथ्यों पर खरी उतरकर नये स्वरूप में ढलकर विश्व संस्कृति का रूप ग्रहण करने लगेगी। ऐसा इस आधार पर कहा जा सकता है कि विश्व  की जो अति-प्राचीन संस्कृतियां हैं, उनमें केवल भारतीय संस्कृति अपने मूल के साथ अनेक आक्रमणों को झेलकर जीवित बची है। इसी आधार पर गांधीजी ने हिन्द स्वराज्य में लिखा था-’’मेरी मान्यता है कि भारत नें जो सभ्यता विकसित की है, वहां दुनिया में कोई नहीं पहुंच सकता, जो बीज हमारे पुरखों ने बोए है, उनकी बराबरी कर सकने योग्य कहीं कुछ देखने में नहीं आया। रोम मिट्टी में मिल गया, ग्रीस का नाम भर बचा, मिस्त्र का साम्राज्य चला गया, जापान पश्चिम  के षिकंजे में आ गया और चीन का कुछ कहा नहीं जा सकता। किन्तु इन भग्वावस्था में भी भारत की बुनियाद अभी शेष है।"" यही शेष बुनियाद विश्व  संस्कृति का आधार बनेगी। भारत की योग और आत्याध्मिक खोजें आगामी 10 वर्षों में विश्व मानव के लिए सहारा बनने लगेगी। भारतीय समाज पंडो, पुरोहितों, मौलवियों जैसे पाखंडियो  से मुक्ति पाते हुए प्रतीत होगा, जो सामाजिक समरसता और सामाजिक क्रांति के लिए एक महान कार्य होगा। आज की तुलना में मानव जीवन की गरिमा अधिक सुरक्षित होगी। भारत की वर्तमान पीढ़ी तथा आगामी 10 वर्षों में आने वाली पीढ़ी तकनीकी और प्रबंधन के क्षेत्रों में अपनी दक्षता का लोहा विश्व  में मनवाएगी। विश्व के लगभग सभी देशों  में दक्ष भारतीयों की उपस्थिति  भारतीय संस्कृति को स्थापित करने में मदद करेंगी। भारत के नये और पुराने ज्ञान-विज्ञान  मिलकर एक नये संसार  के निर्माण में सहायक होंगे। वर्तमान परिदृष्य से जिन्हें यह भय है कि कहीं भारत अपनी मूल पहचान न खो दे, वे 10 वर्ष बाद देखेंगे कि भारत अपनी अस्मिता के साथ समझौता किये बिना विश्व  को डिक्टेट करेगा, वह दिन हमारे उस ऋषि की परिकल्पना को पूरा करेगा, जिसमें उसने वसुधैव कुटुम्बकम् का स्वप्न देखा था।









शनिवार, 9 अप्रैल 2011

गांधी को खारिज करने वाले लोगों के लिए

अन्ना हजारे के आन्दोलन में शरीक हुए अभिनेता


अन्ना और अग्निवेश
 
कई वर्षों से यह मुहीम चलाई जा रही थी की गांधी जी इस २१वी  शदी  में प्रासंगिक नहीं बचे . लेकिन  भ्रष्टाचार के विरुद्ध  अन्ना हजारे के आन्दोलन ने यह  प्रमाडित कर दिया की २१वी सदी में अगर किसी कोई विचार सबसे अधिक प्रासंगीक है तो वे गांधी जी के विचार हैं . अन्ना हजारे का पूरा आन्दोलन शान्ति पूर्वक सम्पन्न हुआ . अपने उद्देश्य में सफल रहा . इस आन्दोलन ने कई सबालों के जबाब दिए और कई नये सबाल हमारे सामने खड़े भी किये.राष्ट्र की  चिंता में नई पीढी सामने आई .जिसके बारे में यह मान लिया गया है की इस पीढी के सरोकार राष्ट्र और समाज से कट गए हैं . इस बात में संदेह नहीं है की यह पीढी सब तरह से अलग है पर ऊपर से बहुत अलग थलग दीखते हुए भी इसकी अपनी समझ है ,अपनी प्रतिभा है . जहां -  जहां  पथ भ्रष्ट है वहां -वहां  इसका नहीं ,हमारा दोष है , शिक्षा का दोष है , केवल नई पीढी को दोषी नही ठहराया  जा सकता . अन्ना के आन्दोलन में नव युवक ,नव  युवतियां जुडीं . इस बात को स्वम अन्ना ने भी स्वीकार किया . सबाल ये है की ये लोग अन्ना  हजारे को नया गाधी कह  रहे थे . इस पीढी ने गांघी को नहीं देखा फिर भी इसके मन में कहीं न कहीं गांधी की एक  ऐसी छवि है जो भरोसा  दिलाती है की बिना रक्तपात किये हुए भी परिवर्तन  सम्भव है . और रक्तपात करके भी क्रान्ति सम्भव नहीं हो पाती . दोनॉ ही बातें हमारे सामने हैं .नक्सली आन्दोलन के चलते कितना खून  बह  चुका है  पर नातो सरकार झुकी और न ही  आन्दोलन आपनी किसी शक्ल में बदलता दिखाई     पड  रहा  है . परिस्थितियाँ अलग हो सकती है. पर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता की जो अहिंसक मार्ग  गांधी ने हमें दिखाया है , सब तरह से वही ठीक है . जितनी विसंगतियां हमारे सामने हैं .उन्हें मिटाने के लिए अगर गोली का सहारा लिया जाए तो ,यह तो नहीं कहा जा सकता कि वे  विसंगति समाप्त होगी पर इतना तो कहा जा सकता है की अनेक विसंगतियाँ और जन्म ले लेंगी . असल में गांघी का रास्ता आदमी का आतंरिक परिवर्तन कर बदलाव पैदा करता है . क्रान्ति  का जो रास्ता मार्क्स ने हमें दिखाया वह समय के प्रवाह में पूरी तरह अनउपयुक्त सिद्ध हो चुका  है . किसी प्रजातांत्रिक व्यावस्था में खून खराबे की लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए . जहां -जहां सत्ता हिंसा के रास्ते से प्राप्त हुई  है वहाँ -वहां उसे बनाए रखने  के लिए और अधिक खून बहाने जरूरत हुई है . हिंसा की अंतिम  तस्वीर केवल हिंसा में ही बदली है . आज समय की जरूरत है की छोटे -छोटे जन आंदोलनों से हम अपने समय की समस्याओं को हल कर सकते हैं . यह अवश्य  ध्यान रखना होगा की कोई गांधी आकर हमारे समय को संबोधित करेगा , यह होने वाला नहीं है . अना हजारे का यह आन्दोलन अनेक तरह की आशाओं को जन्म दे गया , सूनी आँखों में सपने दिखने का अवसर  दिए  , अँधेरे समय को प्रकाश की एक किरण , और पूरे समाज को एक आलम्बन . भ्रंश से ही उम्मीद के अवसर पैदा होते हैं . यह पुस्तकों में  तो था इसे 9 अप्रैल 2011 को जंतर -मंतर नई दिल्ली में सामने  घटते हुए भी देखा है .


लोग जो परिवर्तन के पक्ष में हें
 

बुधवार, 6 अप्रैल 2011

खुले तीसरी आँख

श्री चन्द्रसेन 'विराट ' हिंदी के स्थापित कवि हैं . अब तक उनकी 50 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं . खुले तीसरी आँख अभी हाल ही में प्रकाशित गजल संग्रह है . इस संग्रह में 79 गजलें संग्रहीत हैं , जैसा की इस पुस्तक के शीर्षक से ही अर्थ निकलता है कि कवि 'विराट' का मन आज की परिस्थतियों प्रसन्न नहीं है . वह इसमें व्याप्त स्थितियों से सामना करना चाहता है . पौराणिक संदर्भों के अनुसार तीसरा नेत्र भगवान शंकर के पास है .प्रलय और क्रोध के छनो में वे तीसरा नेत्र खोलते हैं .ऐसा ही  तीसरा नेत्र कवि के पास होता है , इसी के सहारे वह संसार के पूरे सच को देखता आया है . और इसी के सहारे वह अशुभ को जलाता है और पूरे मानवीय समाज के लिए मंगल कामनाएं करता है . कवि विराट चाहते है कि आज के समाज में जो विसंगतियाँ हैं उनके प्रति आक्रोश नहीं रहा , लोग फील गुड में डूबे हुए हैं उनका तीसरा नेत्र खुल  ही नहीं रहा है ,. कवि का मानस लिखता है   विवशता न्याय की देखो कई अपराध करके भी / दिया अपराधियों को यूं /  अभय देखा नही जाता ,' किसी पुस्तक की कसोटी यह भी होती है की रचना कार अपने समय के साथ कैसे जूझता है . कवि विराट के यह पुस्तक हमारे समय के  सबालों से रूबरू होती है . पाठाक के मन में बेचैनी पैदा कर उसे चिंतन के लिए मजबूर करती है =बहुत दुर्दांत निष्ठुर है समय देखा नहीं जाता / न देखा जा सके इतना , एनी देखा नहीं जाता .''
 इस समय में परिवर्तन होना चाहिए यह उदेदश्य है कवि  विराट का . वे मानते हैं कि असम्भव कुछ भी नहीं किवल इच्छा शक्ति चाहिए . यह पुस्तक पाठक  को विचार यात्रा पर ले जाने में पूरी तरह शक्षम है .

पुस्तक --- खुले तीसरी आँख
 कवि ------ चन्द्रसेन विराट
मूल्य -----रु 250
 प्रकाशन -- समान्तर पुब्लिकेशन
 तराना , उज्जैन , मध्य प्रदेश

मंगलवार, 5 अप्रैल 2011

समय से सम्वाद करती कविताएँ

तुम कितनी अच्छी हो
गोष्टी का चित्र
नारायण डॉ रवीन्द्रण पहलवान का नया कविता संग्रह 'तुम कितनी अच्छी हो ' अभी हाल ही में प्रकाशित हुआ है . इस संग्रह पर चर्चा   गोष्टी आयोजित हुई . चर्चाकार थे श्री हरे राम वाजपेई, श्री राजेन्द्र वामन काटदरे और राकेश शर्मा . डॉ पहलवान की कविताएँ आकार में  बहुत्त छोटी  हैं , किन्तु उनका अर्थ गम्भीर है . ये कविताएँ हमारे समय के साथ सम्वाद करती है . किसी रचना के मूल्याकन के समय यह तथ्य भी महत्व पूर्ण होता की उस रचनाकार ने अपने समय के साथ न्याय  किया या नहीं .डॉ पहलवान की यह कविता पढ़ें ----चिड़िया /तुम कभी मंदिर /पर बैठती हो/कभी मस्जिद  पर /  कभी गरजे पर / तुमने किसी / आराधना स्थल में / भेद नहीं किया / हमें अभी भी / ठीक से बैठना / सीखना बाकी है ,'' सामाजिक विसंगतियों पर अनेक कविताएँ इस संग्रह में हैं ,हिन्दी के सुधी पाठकों को यह पुस्तक पढ़नी चाहिए .    पुस्तक -- तुम कितनी अच्छी हो , कवि डॉ रवीन्द्र नारायण पहलवान ,   मूल्य --रु 145 ,  प्रकाशक ---- रोटरी क्लब अपटाउन , इंदौर .
डॉ पहलवान व अन्य