शनिवार, 29 मई 2010

राम विलास शर्मा पुन्य स्मरण

 .आज   २९ मई है , डॉ रामविलास शर्मा  का पुन्य स्मरण दिन है . डॉ शर्मा पर केन्द्रित एक आलेख '' आलोचक अड्डा . blogspot .कॉम'' . पर दिया है  इस पर जाने का पता  मेरे पसंदीदा ब्लॉग की सूची में दिया गया है .

सोमवार, 24 मई 2010

डॉ. रामविलास शर्मा हिंदी आलोचना के प्रकाश स्तम्भ

आचार्य राम चंद शुक्ल के बाद हिंदी आलोचना में डॉ रामविलास शर्मा का स्थान आता है ।उन्होंने भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश पुस्तक में अनेक विमर्शों को हमारे सामने रखा है इसी पुस्तक का एक प्रसंग मैं यहाँ दे रहा हूँ ---
’’उल्लेखनीय है कि हेगल भारतीय दर्शन से परिचित थे। भारतीय दर्शन का परिचय देने वाले विलियम जोन्स और कोलवक जैसे विद्वानों के लेख ब्रिटेन और जर्मनी में पढ़े जाते थे। दर्शन शास्त्र के इतिहास पर अपने व्याख्यानों में हेगल ने न्याय वैशेषिक आदि दार्षनिक धाराओं का उल्लेख किया है। मार्क्स और एंगेल्स ने हेगल पर जो कुछ लिखा है उसे देखने पर ऐसा लगता है, यूनानियों के बाद लगभग डेढ़ हजार साल तक यूरोप का तर्कषास्त्र सोता रहा। 18 वीं सदी के अन्तिम चरण में हेगल ने इस सोते हुए तर्कषास्त्र को मानो अचानक जगा दिया। संसार सत्य नहीं है, विचार ही सत्य है। द्वंद्वात्मक प्रगति विचार-जगत् में सम्पन्न होती है। परस्पर विरोधी विचारों का टकराव उनका सह अस्तित्व और सामंजस्य, एक स्तर से ऊपर उठकर दूसरे पर नया विकास -ये धारणाएं हेगल को कहां से प्राप्त हुई ? यदि वे यूनानी चिन्तन में विद्यमान होती तो हेगल के लिए कहा जाता, वह उनकी आवृत्ति कर रहे हैं। उन्हें मौलिक तर्कषास्त्री न माना जाता। पर उन्हें मौलिक तर्कषास्त्री माना गया है और उनकी तर्क-पध्दति गर्व के साथ माक्र्स और एंगेल्स ने स्वीकार किया है। हेगल की तर्क पध्दति के मूल तत्व विरोधी तत्वों का संघर्ष और सामंजस्य, एक तत्व का दूसरे तत्व मेें परिवर्तन, प्रकृति में निरंतर परिवर्तन और विकास, ये धारणाएं उपनिषदों में ही वहीं उनसे पहले ऋग्वेद में विद्यमान हैं। हेगल ने मानव चेतना को प्रकृति से अलग रखने का प्रयत्न बराबर किया है। प्रकृति दोषपूर्ण है, शुध्द चैतन्य, निर्दोष परम सत्य उससे भिन्न है। इस यथार्थ विरोधी चिन्तन के विपरीत भारत में प्रकृति को अनादि अनंत माना गया है। असत से सत का अव्यक्त प्रकृति से व्यक्त प्रकृति का विकास हुआ है, यह सांख्य की आधार भूत स्थापना है। मनुष्य की चेतना, उसका मन, उसकी बुध्दि, अहंकार आदि इसी विकास क्रम में उत्पन्न होते हैं। भारतीय दर्शन के इतिहास को जानने के लिए एक स्त्रोत ग्रंथ महाभारत है। प्रकृति के विकास में सांख्य ने 24 तत्व ही माने थे। 25 वें तत्व चेतन पुरूष को इनमें जोड़ा गया, यह महाभारत के विवरणों से स्पष्ट है। प्रकृति और मानव चेतना में जो अलगाव हेगल के चिंतन में दिखाई देता है- वह भारतीय दर्षन में नहीं है। साहित्य पर हेगल का प्रभाव नगण्य है। हेगल की तर्क पध्दति ने माक्र्स और एंगेल्स को चाहे प्रभावित किया हो, उनक सामाजिक विष्लेषण पर हेगल के विचारों का प्रभाव नहीं है। हेगल की भारत संबंधी धारणाएं उन्होनें अवष्य दोहराईं। आगे चलकर उन्होनें इन धारणाओं को उलट दिया। इसके सिवा हेगल की तर्क-पध्दति में कुछ यांत्रिक विषेषताएं थीं, उनसे भी उन्होंने पिंड छुड़ाया। पष्चिमी यूरोप और ब्रिटेन के साहित्य पर जितना प्रभाव प्लैटों का है, उसे देखते हुए इस साहित्य पर हेगल का प्रभाव नगण्य है। कारण उसका यथार्थवादी स्वरूप।’’ [

शनिवार, 22 मई 2010

एफ.एम. प्रसारण बनाम भूमण्डलीकरण का भक्तिगीत ------- प्रभु जोशी

यहाँ  श्री प्रभु जोशी का एक लेख दिया जा रहा है . श्री प्रभु जोशी हिन्दी भाषा कोलेकर निरंतर चिंतन करते  हैं . वे मात्र ऐसे लेखक हैजो समाचार हिन्दी  पत्रों के दुआरा हिन्दी के शव्दों की जगह बलात अंगरेजी के शव्दों के विरुद्ध लिखते रहे हैं बल्कि समाचार पत्रों के मालिकों से संवाद भी करते रहे हैं . इलेक्ट्रोनिक मीडिया में व्याप्त भाषाई अराजकता पर उनका चिंतन इस लेख में मौजूद है . इस विसंगती पर विचार करना और क्रियान्वित करना हम सब की जिम्मेदारी है .  
ये आठवें दशक के ‘पूर्वार्द्ध‘ के आरम्भिक वर्ष थे और श्रीमती इंदिरा गांधी गहरी ‘राजनीति-शिकस्त‘ के बाद अपनी ऐतिहासिक विजय की पताकाएँ फहराती हुईं, फिर से सत्ता men  लौटीं थीं। इस बार वे शहरी मध्यम-वर्ग के ‘धोखादेह‘ चरित्र को पहचान कर, ‘ग्रामीण-भारत’ की तरफ मुंह कर के, अपने ‘राजनीतिक-भविष्य‘ का नया ‘मानचित्र‘ गढ़ना चाह रहीं थीं। इसीलिए, वे बार-बार एक जुमला बोल रहीं थीं-‘टेक्नोलाॅजी इज़ टु बी ट्रांसफर्ड टू रूरल इण्डिया।’ कदाचित्, तब तकनोलाॅजी को गाँवों की तरफ पहुँचाने के मंसूबे के साथ ही साथ उन्होंने ‘डिस्ट्रिक्ट ब्राॅडकास्ट‘ की बात भी करना शुरू कर दी थी, जिसका अंतिम अभिप्राय यह था कि ‘ज़िला-प्रसारण‘ की शुरूआत से, ‘ग्रामीण भारत‘ को सूचना-सम्पन्न बनाने की सक्रिय तथा पर्याप्त पहल की जा सकेगी।
कहने की जरूरत नहीं कि तब ‘प्रसारण‘ से जुड़े लोग, इस बात को अच्छी तरह जानते थे कि उनके इस ‘कथन‘ के पीछे भारत में भी एफ.एम. रेडियो के शुरूआत करने की मंशा ही है। चूंकि, तब तक अफ्रीकी महाद्वीप के छोटे-छोटे देशों में, वे आ चुके थे। मुझे याद है, आकाशवाणी की कार्यशालाओं में ‘प्रशासनिक‘ क्षेत्र तथा ‘इंजीनियरिंग‘ के उच्चाधिकारी गाहे-ब-गाहे इस बात पर अफसोस प्रकट किया करते थे, कि ‘देखिए, भला अफ्रीका के नाइजीरिया जैसे तमाम अन्य पिछड़े हुए मुल्कों में एफ.एम. आ चुके हैं और एक हम हैं कि अभी भी उसी पुरानी और ‘लगभग चलन से बाहर हो चुकी‘ तकनोलाॅजी से काम चला रहे हैं।’दरअस्ल, अफ्रीकी महाद्वीप में ‘सूचना‘ और ‘संचार‘ के क्षेत्र में अपना वर्चस्व बनाने वाले, ‘सूचना-सम्राटों‘ के समक्ष, यह अत्यन्त स्पष्ट था कि वहाँ की भाषाएँ, इतनी विकसित नहीं है कि पहले वहाँ के प्रिण्ट-मीडिया में घुस कर, उन पर अपना आधिपत्य जमाने की कोशिश की जाये। वहाँ ‘प्रिमिटव-कल्चर‘ और ‘सोसायटी‘ के चलते ‘लिखे-छपे’ के बजाय ‘बोले जाने’ वाले माध्यमों के जरिए ही वांछित काम निपटाया जा सकता है, जो ‘नव-औपनिवेशिक‘ एजेण्डे के लिए बहुत जरूरी है। अलबत्ता, उनके लिए, अफ्रीकी महाद्वीप में स्थानीय भाषाओं का ‘कम विकसित‘ होना, सर्वाधिक सहूलियत की बात थी। चूँकि, वह (‘हाॅफ लिविंग एण्ड हाफ फाॅरगाॅटन’) अर्द्ध-जीवित और अर्द्ध-विस्मृत अवस्था में थी। नतीजतन, वे तो कहा ही करते थे, ‘दे आर बार्बेरिअन्स विथ डायलैक्ट, वी आर सिविलाइज्ड विथ लैंग्विज’। वे अपनी ‘भावी-रणनीति‘ के तहत अफ्रीकी जनता को सभ्य बनाने के लिए, उनकी भाषाओं का ‘रि-लिंग्विफिकेशन‘ पहले ही शुरू कर चुके थे। लेकिन, एफ.एम. के आगमन ने, उनके एजेण्डे को तेजी से पूरा करने में, उनके लिए एक अप्रत्याशित सफलता अर्जित कर दी। चूँकि एफ.एम. रेडियो के आते ही उन्होंने फ्रेंच द्वारा अपने प्रचार-प्रसार के लिए अपनाई गई रणनीति के तर्ज पर अघोषित रूप से लगभग ‘लैंग्विज-विलेज‘ अर्थात् ‘भाषा-ग्रामों‘ के निर्माण जैसा काम करना शुरू कर दिया।
इसके अन्तर्गत उन्होंने किया यह कि ‘प्रसारण क्षेत्र‘ में आने वाली आबादी को, ‘स्थानीय भाषा में अंग्रेजी की शब्दावली के मिश्रण से तैयार एक ऐसे भाषा रूप का दीवाना बनाना‘ कि वह ‘पूरा प्रसारण‘, उस आबादी के लिए एक ‘मेनीपुलेटेड-प्लेजर’ (छलयोजित आनंद) का पर्याय बन जाये। इसके साथ ही उसके अनवरत उपयोग से उस ’भाषा रूप’ को ’यूथ-कल्चर’ का शक्तिशाली प्रतीक बना दिया जाये। इसे ‘आनन्द के द्वारा दमन‘ की सैद्धान्तिकी कहा जाता है। वस्तुतः, इसमें लोग, अपने ’समय और समाज’ के अन्तर्विरोधों को ठीक से पहचान पाने की शक्ति ही खो देते हैं और तमाम सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक ‘घटनाओं-परिघटनाओं‘ में आनंद की खोज ही उनका अंतिम अभीष्ट बन जाता है। ‘यूथ-कल्चर‘ से नाथ देने के कारण यह ‘अविवेकवाद‘ समाज के भीतर, निर्विघ्न रूप से काम करने लगता है। बौद्धिक रूप से विपन्न बना दिये जाने की यह अचूक युक्ति मानी जाती है।
बहरहाल, तब वहाँ बार-बार यह कहा जाने लगा कि सम्पूर्ण अफ्रीकी समाज में अपने ’प्रिमिटव कल्चर’ और उसके ’पिछड़ेपन’ से बाहर आने की एक ’नई-इच्छाशक्ति’ पैदा हो रही है और अपने समाज के विकास के लिए, ’दे आर वाॅलेन्टॅरिली गिविंग अप देअर मदरटंग्स’ उनके भीतर लैंग्विज-शिफ्ट की स्वेच्छया ‘सामाजिक-आकुलता‘ उठ चुकी है।
बहुत साफ था कि ये औपनिवेशक ताकतों की तमाम ‘धूर्त-व्याख्याएँ‘ थीं, जो उनके भाषागत षड्यंत्र को बहुत कौशल के साथ छुपा ले जाती थीं। इन एफ.एम. के कार्यक्रम संचालकों को कहा जाता था कि इसे भूल जाइये कि ‘जनता माध्यम के साथ‘ क्या करती है’, बस यह याद रखिए कि ‘माध्यम के जरिये आप जनता के साथ’ क्या कर सकते हैं।‘ नतीजतन, उन्होंने रेडियो के प्रसारण के जरिए, ‘अर्थवान-प्रसारण’ देने के बजाय ‘अर्थहीन-प्रसन्नता‘ बाँटने का अंधाधुंध काम, बड़े पैमाने पर किया और यह सब उसी समाज के ‘टोटम्स’ का इस्तेमाल करते हुए कुछ ऐसी चतुराई के साथ किया कि एक बार तो उन्हें लगा, उनकी संस्कृति और भाषाओं के आगे अंग्रेज और अंग्रेजी झुक गयी है। उसे उन्होंने अपनी विजय माना।
निश्चय ही इसका अभिप्राय ये कि वे एक विराट ‘भ्रम‘ तैयार करने में सफल हो रहे थे। बाद में प्रसारण से वह ‘भाषा रूप’ जिसे लिंग्विस्टिक-सिन्थेसिस’ के जरिए तैयार किया गया था और उसे ’बोलचाल का नैसर्गिक रूप’ कहा गया था, धीरे-धीरे अंग्रेजी के द्वारा विस्थापित कर दिया गया। इसे बाद में स्वाहिली और जूलू के लेखकों ने ‘माॅस-डिसेप्शन’ कहा। क्योंकि, अब अफ्रीकी महाद्वीप के देशों में, समाज की ‘प्रथम भाषा’ अंग्रेजी ही बना दी गयी। उन्होंने कहा कि ‘अश्वेतों ने भाषा नहीं, अपना भाग्यलेख बदल लिया है।’
भूमण्डलीकरण के पदार्पण के साथ बर्कली विश्वविद्यालय की प्रोफेसर गेल ओमवेत जो भारत आती-जाती रहती हैं, और गुरूचरणदास जैसे लोग, यहाँ भारत के लोगों को इसी तरह अपना ‘भाग्य-लेख‘ बदलने के लिए, भारतीय भाषाएँ छोड़ कर अंग्रेजी को अपनाने की राय बड़े जोर-शोर से दिये चले आ रहे हैं।
बहरहाल, अब अफ्रीका में अफ्रीकी भाषाएँ रोज़मर्रा का पारस्परिक कामकाज निबटाने की ऐसी भाषाएँ भर रह गयी हैं, जिनका काम चिंतन के क्षेत्र से हट कर, केवल ‘मनोरंजन‘ और ‘कामकाजी-सम्पर्क‘ भर का है। कहने की जरूरत नहीं कि हमारे यहाँ भी कुकुरमुत्तों की तरह दिन-ब-दिन हर छोटे-बड़े महानगर मंे, आवारा-पूंजी के सहारे खुलते जा रहे, इन एफ.एम. से एक ऐसी ‘प्रसारण-संस्कृति’ को जन्म दिया जा रहा है, जो ‘यूरो-अमेरिकी एजेण्डों‘ को उसकी पूर्णता तक पहुंचाने के काम को निबटाने में लगी हुई है। इसी के चलते देश का सबसे पहला निजी एफ.एम. प्रसारण मुम्बई में ‘हिग्लिश‘ में शुरू होता है और बाद में जितने भी एफ.एम. आये हैं - यही उनकी भाषा नीति हो गई। वहाँ अच्छी हिन्दी बोलना अयोग्यता की निशानी है।
 यह सिर्फ ‘महानगरीय सांस्कृतिक अभिजन‘ की ‘जीवन शैली‘, ‘रहन-सहन‘, ‘बोलचाल‘ को ‘समग्र’ समाज के लिए ‘मानकीकरण’ करने का काम कर रहे हैं, जिसने यह स्वीकार लिया है कि जल्दी से जल्दी, बस एक ही पीढ़ी के ‘कालखण्ड‘ में, इस देश से तमाम स्थानीय भाषाओं की विदाई हो। यही वजह है कि ‘अंग्रेजी लाओ देश बचाओ’ का ‘हल्लाबोल‘ इस  मीडिया ने शुरू कर दिया है।
आप हम साफ-साफ देख सुन रहे हैं कि जिस तेजी से ‘आर्थिक‘ क्षेत्र में भूमण्डलीकरण की शुरूआत की गयी, ठीक उसी और उतनी ही तेजी से, ‘सामाजिक क्षेत्रों‘ में, ‘स्थानीयता’ और ‘क्षेत्रीयताओं के प्रश्न, ‘अस्मिता की रक्षा के प्रश्न‘ बना दिये गये। वे परस्पर नये वैमनस्य में जुत चुकी है। हिन्दी को एक ‘साम्प्रदायिक‘ भाषा करार दिया जा रहा है। अलबत्ता, उसे नये ढंग से ‘विखण्डित‘ किया जा रहा है। बोलियों को हिन्दी से ‘स्वायत्त‘ करने का अभियान आरंभ है, जिसमें बहुत संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थ छुपे हैं। जल्द ही आठ हिन्दीभाषी प्रान्तों में जन्मे लोगों से कहा जायेगा कि वे अपनी ‘मातृभाषा‘, ‘मालवी‘, ‘निमाड़ी‘, ‘छत्तीसगढ़ी‘, ‘हरियाणवी‘, ‘भोजपुरी’ आदि-आदि लिखवायें। संख्या के आधार पर डराने वाले आंकड़ों वाली हिन्दी, किसी की भी मातृभाषा नहीं रह जायेगी। यह नया और निस्संदेह एक अन्तर्घाती ‘देसीवाद’ है, जो अंदरूनी स्तर पर अंग्रेजी के लिए एक नितान्त निरापद राजमार्ग बनाने का काम करने वाला है।
इस सारे तह-ओ-बाल के बीच, अंत में देश के महानगरों में ‘उधार की चंचला लक्ष्मी‘ से खुल रहे, इन तमाम निजी एफ.एमों की ‘प्रसारण-सामग्री‘ का आकलन किया जाये तो पायेंगे कि ये केवल मनोरंजन के आधार को मजबूत करती हुई, ‘मसखरी के कारोबार‘ में जुटी टुकड़ियां हैं, जिनका मकसद उस ‘पापुलर-कल्चर‘ के लिए जगह बनाना है, जो पश्चिम के सांस्कृतिक-उद्योग के फूहड़ अनुकरण से हमारे यहाँ जन्म ले रहा है। इनका ‘विचार‘ नहीं, ‘वाचालता’ आधार है। उन्हें ‘बोलना‘ और ‘बिना रूके बोलते रहना‘, बनाम बक-बक चाहिए। इनके लिए ‘विचार‘ एक गरिष्ठ और अपाच्य शब्द है। वहाँ वे ‘फण्डे‘ चाहते हैं। रोट्टी कमाने के। पोट्टी पटाने के। यानी डेटिंग के। बाॅस को खुश रखने के। सक्सेस के। जी हाँ, ‘सफलता‘, ‘समाज‘ या ‘समूह‘ की नहीं, केवल ‘व्यक्तिगत-सफलता‘ को हासिल करने के लिए मेन्युप्लेशन सीखिये। इनके लिए स्थानीय संस्कृति और संस्कार से दूरी पैदा करना इनका नया ‘मूल्य’। इनका वर्गीय समझ क्या है ? इन्हें कैसी और कौनसी पीढ़ी गढ़ना है? इनकी ‘प्रसारण-संस्कृति‘ क्या है ? इनकी ‘वैचारिकी‘ क्या है ? ये किसके प्रति ‘जवाबदेह‘ हैं ? इन सारे प्रश्नों के उत्तर खोजे जायें तो, ‘ये उसी खतरनाक ‘रेडियो कल्चर’ के भारतीय उदाहरण है‘, जिन्होंने अफ्रीकी महाद्वीप को सामाजिक-सांस्कृतिक रूप से विपन्न बनाने में बहुत कारगर भूमिका निभाई थी। इनकी कारगुजारियों का बहुत वस्तुगत विवेचन ई-काट्ज तथा जी-बेबेल की पुस्तक ‘ब्राॅडकास्टिंग इन थर्डवल्र्ड में बहुत सूक्ष्मता के साथ मिलता है कि किस तरह से जन-संचार में ‘सूचना-साम्राज्यवादियों‘ ने घुस कर उनकी धूर्त सांस्कृतिक राजनीति की कुटिलता से कैसे तीसरी दुनिया के गरीब मुल्कों की ‘भाषा‘ और ‘संस्कृति‘ को तहस-नहस किया।
इनकी बदअखलाक वर्ग-दृष्टि और भाषाई चतुराई का देश के सामने एक शर्मनाक उदाहरण तब सामने आया, जब एक एफ.एम. रेडियो के प्रतिभाशाली आर.जे. ने ‘इण्डियन आइडियल‘ बने, प्रशान्त तमांग के बारे में टिप्पणी की थी, जिसका कुलजमा अर्थ यह था कि ‘चैकीदारी से गायकी तक गया, गोरखा। यह पूरे गोरखा समाज पर अभद्र टिप्पणी थी। यानी गोरखा जन्म से चैकीदार ‘होने‘ और ‘बने रहने‘ के लिए होते हैं, लेकिन प्रशान्त तमांग संयोग से ऐसा ‘बिन्दास बंदा’ निकला, जिसने ‘गायकी‘ में गुल खिला दिये। यह भाषा की वही भत्र्सना योग्य ‘वर्गीय-दृष्टि‘ है, जो बताती है कि ‘रामू गरीब लेकिन ईमानदार लड़का था।‘ अर्थात्, गरीब मूलतः बेईमान होते हैं, यह रामू संयोग से एक ऐसा निकला जो बावजूद गरीब होने के ‘ईमानदार‘ बन गया। वास्तव में इन्हें कार्यक्रम प्रस्तुतकर्ता नहीं, बस ‘वाचाल कारिन्दे‘ चाहिए, जो हर चीज को ‘मस्ती‘, ‘मजा‘, या ‘फन‘ बना दे या फिर उसे कामुकता से जोड़ दे। एक कमजोर बौद्धिक आधार के बावले समाज का, ‘आनन्दवादी हथियारांे द्वारा सफल दमन‘ कार्यक्रम चल रहा है। फासीवादी दौर में जर्मन समाज के पतन की पृष्ठभूमि में, तब रेडियो ने यही किया था। जो आज ये कर रहे हैं। अपने प्रसारण से ये एक ऐसा ‘सांस्कृतिक-उत्पाद‘ बनाते हैं, जो देशकाल से परे रहता हुआ, केवल ‘उपभोगोन्मुख‘ हो और उसका कोई अन्य ‘मूल्य‘ न हो। ये ‘मुक्त भारत‘ के नये शिल्पियों की दिमागी उपज है। वे ‘भारत की मुक्ति‘ के शिल्पी नहीं। क्योंकि वे तो कब्रों में दफ्न हैं और आकाशवाणियाँ, तीस जनवरी को रूंधे हुए गले से रामधुन गाते हुए, उनकी ‘खामखाह‘ याद दिलाती रहती है। ठीक उस वक्त भी इनके यहाँ कोई धमाकेदार या ‘फोन इन’ प्रोग्राम चलता रहता है। समाज को सूचना-सम्पन्न बनाते हुए, किसी एफ.एम. का रेडियो जाॅकी अपने किसी एक कालर (!) से पूछ रहा होता है: ‘तो बताइये, आप अपने लिए गाॅरमेण्ट्स का कौन-सा ब्राॅण्ड चुनती हैं ? (उधर से किसी ब्राॅण्ड का नाम) और हाँ, तो आप अपने अण्डर गाॅरमेण्ट्स के लिए कौन-सा ब्राॅण्ड चुनती हैं ? (उधर से संकोच और शर्म को व्यक्त करते कुछ अस्पष्ट शब्द) अरेऽ रेऽऽ रेऽऽ आप तो शर्मा गयीं.... आपका नाम नेहा नहीं, लगता है ‘शर्मिला‘ है। ओह! यू आर सो शाॅय ? आई थिंक यू आर अ विक्टिम आॅफ एन ओल्ड कल्चरल फोबिया !..... वेल लेट इट बी सो..... कोई बात नहीं... कोई बात नहीं, वह आपका सीक्रेट है, वह शायद आपके फे्रण्ड को पता होगा.... शाॅपिंग उन्हीं के साथ करती हैं- कौन से माॅल में ?‘
प्रसंग दूसरा....... हाय, हैलो.... आपकी आवाज से लग रहा है, यू आर बोल्ड एण्ड ब्यूटीफुल टू.... तो बताइये, आप लड़कों से डरती हैं या सवालों से....? दोनों से नहीं डरती.......? वेरी गुड.... यू आर ब्यूटिफुल एण्ड नाॅट कावर्ड...... नाम बताइये आपके कोई खास क्लासमेट्स का....? ओ.के...... ऐनी सेक्समेट.... नाॅट यट.... (उधर से फोन कट) प्रतिभाशाली आर.जे. की बकबक जारी....... चलिए आपने लाईन काट दी..... लेकिन, हम आपको, लाइन मारने वालों की तरफ से एक खास गीत पेश कर रहे हैं...... गीत शुरू.... (नहीं नहीं अभी नहीं, थोड़़ा करो इंतजार.............। )
जी हाँ, ये है इनका ‘पीपुल्स-पार्टिसिपेशन’ (!) है। ये है इनकी ‘सूचना-सम्पन्नता‘ है। रेडियो जाॅकी की सबसे बड़ी योग्यता है कि वह हर बात को कितनी लम्पटई के साथ ‘कामुकता‘ (सैक्चुअल्टी) से जोड़ सकने में पारंगत है ? ये नया ‘यूथ-कल्चर‘ गढ़ा जा रहा है ? जिसमें लम्पटई को ‘ग्लैमराइज’ (!) किया जाता है। बाहर की लम्पटई, एफ.एम. प्रसारण में ‘बिन्दास है‘, ‘बैलौंस है’ और ‘बोल्ड है।‘
दरअस्ल, देखा जाये तो उसका सब कुछ ‘बोल्ड‘ नहीं, ‘सोल्ड‘ है। उसकी ‘जबान‘, उसकी ‘भाषा‘, उसका ‘समय‘, उसकी ‘वफादारी‘, यहाँ तक कि उसकी ‘आत्मा‘ भी। वह सामाजिक-सांस्कृतिक ध्वंस लिये ‘वेतन‘ नहीं ‘सुपारी‘ लिए हुए है। वह पैकेज पर है।
अंत में कहना यही है कि, जिस तरह ‘उदारवाद’ की अगुवाई के लिए ‘आनन-फानन’ में बगैर कोई आचार-संहिता के निर्धारण किये, निजी एफ.एम. के लिए, जो प्रसारण क्षेत्र में जगह बनाई गई, वह सत्ता की ‘नियमहीनता‘ का लाभ लेकर, एक किस्म की सांस्कृतिक अराजकता के खतरनाक खेल में बदल गयी है-‘क्योंकि, उसके सामने ‘प्रतिबद्धता’ या ‘जवाबदेही’ का कोई प्रश्न ही नहीं है। ये कोई लोक-प्रसारण नहीं है। ना उसे ‘लोक‘ की चिंता है, ना ‘शास्त्र‘ की। ‘लोक-नियंत्रण‘ के अभाव में, वे उदग्र और उद्दण्ड हो गये हैं। एक निजी मनमानापन ही प्रसारण का विषयवस्तु है। और अब दुर्भाग्यवश इन्हीं का विकृत अनुकरण करने में आकाशवाणी को भी ‘दरिद्र समझ‘ के नौकरशाहों द्वारा, जोत दिया गया है। सारी आचार-संहिता को ताक में रखते हुए, रेवन्यू जेनरेट करने के लिए, वे कुछ भी करने को तैयार है। वहाँ भी तमाम कार्यक्रमों के नाम जो हिन्दी में थे, हटाकर अंग्रेजी के कर दिये गये हैं‘ - वे अब एफ.एम. की होड़ में हैं। ‘बाजार-निर्मित’ फण्डों के घोड़ों पर सवार होकर वे ‘पापुलर कल्चर’ के पीछे बगटुक भाग रहे हैं। जनतांत्रिक राजनीति के कोड़े से पिटा हुआ ‘प्रसारण-बिल‘, वापस किसी ऐसे बिल में घुस गया है, जहाँ, से उसका बाहर निकलना मुमकिन नहीं रह गया है। वक्त के चूहे उसे कुतर-कुतर कर खत्म कर देंगे। क्योंकि, अब प्रसार-माध्यमों को कोई ‘निषेध‘ पसंद नहीं। अब इन्हें हर ‘निषेध‘, ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दमन‘ लगता है। ‘उदारवाद‘ के (जन)तांत्रिकों ने उनके कानों में यह मंत्र फूँक दिया है-कि ‘राष्ट्र‘, कुछ नहीं सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक ‘स्थानीयता‘ की ‘वर्चस्ववादी‘ एवम् ‘दमनकारी‘ व्यवस्था है- नेशन इज एन इमेजिण्ड कम्युनिटी। भारत एक राष्ट्र नहीं, बल्कि सैकड़ों राष्ट्रीयता का समुच्चय है, इसलिए, भारत की नक्शे में फैली भिन्न-भिन्न ‘राष्ट्रीयताएँ‘ जितनी जल्दी मुक्त हों, उतना ही श्रेयस्कर है। राष्ट्र-राष्ट्रं सिर्फ बौड़मों की चीख है। उसकी अनसुनी अनिवार्य है। ये उसके विखण्डन के हवन में अपनी तरफ से आहुति दे रहे हैं। इस हवन में अंतिम पूर्णाहुति के लिए उन्हें सिर्फ अब एफ.एम. को केवल ‘समाचार-प्रसारण’ की अनुमति की जरूरत भर है। फिर देखिए, सैकण्ड-दर-सैकेण्ड कैसे पैसा बरसता है। उनका पल-पल होगा पैसे के पास। नोम चोमस्की ने तो ठीक ही कहा है कि ‘डेमोक्रेसी हेज गान टू द हाईएस्ट बिडर।‘ जो जितनी ऊँची बोली लगायेगा, राजनीतिक सत्ता उसकी ही जेब में होगी।निश्चय ही बहुराष्ट्रीय निगमों की एक लम्बी कतार भारत में खड़ी हो गयी है और उनकी जेबें लम्बी हैं। उनमें सारे मीडिया की कटी हुई जबानें भरी पड़ी हैं। इसलिए, वे बोल नहीं रहे हैं, बस लगातार गुनगुना रहे हैं- ‘भूमण्डलीकरण भक्तिगीत‘।
-प्रभु जोशी
4, सम्वाद नगर,
नवलखा, इन्दौर
आवास: 0731-2400429
मोबाइल: 94253-46356

शुक्रवार, 14 मई 2010

क्यों कविता से दूर भाग रहा है समाज ?

जब से कविता प्रोफेसरीय और आलोचकीय आतंक से त्रस्त हुई है । तब से उसमें बौद्धिकता आयी है और उसकी सहजता , सम्प्रेश्नीयता बाधित हुई है । आप संत कवियों देखें आज भी उनकी कवितायें याद रहती हैं । छायावादी कवियों को देखें , निराला , महादेवी वर्मा , जयशंकर प्रसाद और सुमित्रानंदन पन्त इन सब की कविताएँ जीवन के उतार चढ़ावों में याद आती हैं । ये सब जीवन के कवि हैं । आप सहमत हों या न हों जब से कविता बौद्धिकता और विचार के बोझ से लादी गयी , वह आम आदमी के काम की नहीं बची । यही कारण है की कविता में ही अपने सभी संस्कारों के साथ जीने मरने वाला समाज ,आज कविता और कवि से बच कर निकलना चाहता है । चर्चा में अक्सर यह सुनाने को मिलेगा की फलाना कवि जमीन से जुडाहै पर सही बात यह है की जमीन की गंध से अब अक्सर हिन्दी कविओं का वास्ता नहीं रहा । जमीन से जुड़े कवि के पास एक अलग किस्म की द्रष्टि चाहिए ।
कवि शिशिर उपाध्याय का एक गीत देखें । इस गीत में सहजता भी है और आप को बचपन में वापस ले जाने की क्षमता भी । पाठक के मन में यदि कुछ वेचैनी पैदा न कर सके , कुछ हल चल न मचा सके ऐसी रचाना समय और कागज़ की बरबादी के अलावा और कुछ नहीं । श्री उपाध्याय के इस गीत का आस्वाद लीजिये ----
''माँकी याद''

बचपन के बीते लम्हों का कतरा -कतरा याद आता है

जब भी अच्छा काम करूं मैं माँका चहरा याद आता है

छुटपन में बहना संग खेला

जुटता है यादों का मेला

सावन में हाथों में बंधता सूत सुनहरा याद आत्ता है

जिसने हर पल मुझे सम्भाला

सीधासादा भोला भाला

फटी कमीज के घाव छुपाता भाई मेरा याद आता है

ज्वर में जब-जब हम तपते थे

रात -रात भर वो जागते थे
खटिया पर बैठ बाबुल संग हुआ सवेरा याद आता है

काँधे चढ़ कर रोज सवारी

करता था शिशिर वनवारी

थक कर चूर हुए दादा का , श्वास वो गहरा याद आता है

अनुशासन में जिसके घर था

नियम कायदा उसका स्वर था

हुंकारे देता दादी का हर दम पहरा याद आता है

बाल सखा संग एक ही धंधा

कंचे , भौरी , गुल्ली डंडा

कटी पतंग के लिए दौड़ता गोगी -शेरा याद आता है

माँ का आंचल मेरा घर था

छुप कर उसमें किसका था

सौ -सौ बार बलैयां लेतामुझे दसहरा याद आता है

जब भी अच्छा काम करूं मैं - माँ का चेहरा याद आता है ।

[ कविता संग्रह - ''वो घर नहीं रहा '' से साभार ]

गुरुवार, 13 मई 2010

बाल कविताओं का ऐतिहासिक संग्रह

आज हिन्दी में लगभग सभी बड़े कवी बाल कवितायेँ नहीं लिख रहे हैं । असल में बाल कविता लिखना सरल काम नहीं है । जब तक मन बच्चों की तरह पवित्र न होगा तब तक बाल कविता नहीं लिखी जा सकती है । एक समय था जब हिन्दी के सभी बड़े कवि बच्चों के लए कविता लिखते थे । आज के एस कठिन समय में सबसे अधिक नुक्सान बच्चों का ही हो रहा है । उनसे बचपन के कोमल स्पंदन छीन लिए गए हैं और उन्हें बलात युवक होने के लिए मजबूर किया जा रहा है । कारण अनेक हैं उन पर चर्चा बाद में होगी । इस वक्त तो कवि श्री ''कृष्ण शलभ '' दुआरा संपादित पुस्तक '' बचपन एक समंदर '' की बात हो रही है । इस संग्रह में हिन्दी के 666kaviyon की कवियों को रखा गया है । हिन्दी में बाल कविताओं का उद्भव कब हुआ इस पर एक टिप्पड़ी देखिये --''कौन है हिन्दी बाल कविता का प्रथम स्रष्टा , यह विचार , चिंतन निरंतर होता रहा है । इसके सहारे कुछ जगनिक [११००---१२००]के आल्ह खंड से , कुछ अमीर खुसरो [१२८३--१३२८] और कुछ महाकवि सूरदास [१४७८--१५८३] के क्रष्ण लीला पदों व तुलसीदास कृत काव्य [१५३२--१६२३]से भी इसके प्रादुर्भाव के सूत्र जोड़ते हैं '' । बहरहाल पुस्तक को देखकर आश्चर्य होता है की कैसे एक मुस्किल काम को पूरा किया गया । पुराने से लेकर नये सभी कवि अपनी बाल कवितों के साथ यहाँ उपस्थित हैं । हिन्दी में यह पहला बाल संग्रह है जो हमारे सामने पूरी तस्वीर उपस्थित करता है । इतना ही नहीं सभी कवियों के आवासीय पते भी उपलब्ध कराये गए हैं । ७३० प्रष्टों के इस संग्रह के कवर पर पर श्री प्रकाश मनु की टिप्पड़ी देखें ''ये ऐसी बाल कविताएँ हैं , जिन्हें विश्व की किसी भी अच्छी से अच्छी बाल कविता के सामने रखा जा सकता है । '' यह पुस्तक हिन्दी साहित्य की बहुमूल्य धरोहर है । पुस्तक '' बचपन एक समंदर '' सम्पादक '' श्री क्रष्ण शलभ '', मूल्य रु ७५० , प्रकाशक --''नीरजा स्मरति बाल साहित्य न्यास , २४५ , नया आवास विकास , सहारनपुर ,[उ प ]-२४७००१ -- प्रस्तुती राकेश शर्मा ।

मंगलवार, 11 मई 2010

हजार वर्ष की हिन्दी कविता


हिन्दी कविता के उद्भव और विकास पर कुमुदनी खेतान की पुस्तक '' स्वान्ता सुखाय ''एक महत्वपूर्ण रचना है । साहित्य के क्रमिक विकास समझने में पुस्तक बहुत मददगार है । हजार वर्ष की हिन्दी कविता यात्रा को सुरुचि पूर्ण ढंग से रखा गया है । यह पुस्तक हिन्दी कविता की ''गोल्डन ट्रेजरी'' होने का सही अधिकार रखती है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिंदी कविता को उसकी प्रव्रत्तियों के अनुसार काल खण्डों में विभाजित किया है उसी मानक पर इस पुस्तक की संपादिका ने कवियों और उनकी रचनाओं को हमारे सामने रखा है । हिन्दी साहित्य और हिन्दी भाषा का इतिहास जानने के लिए यह एक आधारभूत ग्रन्थ जैसी है । संपादिका ने हिदी के पहले कवि स्वयंभू , पुष्पदन्त ,कदहापा ,सरहपा से लेकर अभी तक के एक सौ कवियों को पुस्तक में स्थान दिया है । कविताओं के साथ -साथ कवियों का संक्षिप्त परिचय देकर तथ्यों को संग्रहनीय बनाया गया है .इतने तथ्यों को संग्रहीत करना ,उन्हें क्रम से रखना बहुत कौशल की मांग करता है । ऐतिहासिक महात्व की इस पुस्तक का अध्ययन हिन्दी साहित्य को समझने की इक्क्षा रखने वाले , शोधार्थी और जिग्याशों को अवश्य करना चाहिए । ---पुस्तक ''स्वान्ता सुखाय '', संपादिका -कुमुदनी खेतान , मूल्य रु -तीन सौ , प्रकाशक , नेशनल पब्लिशिंग , हॉउस तेईस , दरियागंज , नई दिल्ली । प्रस्तुती -- राकेश शर्मा

गुरुवार, 6 मई 2010

समय के रहस्यों से रू -ब रू कराती पुस्तक


लेखकों , चिंतकों ,युगप्रवर्तकों ,सामाजिक कार्यकर्ताओं और राजनेताओं के वारे में अनेक तरह यह किस्से एवं गलत फहमियां प्रसारित की जातीहैं । इसके अनेक कारण हैं । अक्सर लोग इन्हें ही सुनते सुनाते रहते हैं ।, मसलन भारत विभाजन के लिए गाँधी को जिम्मेदार तहराया गया । परन्तु डॉ राम मनोहर लोहिया की पुस्तक '' भारत विभाजन के गुनहगार '' को पढ़ कर बात दूसरी और इशारा करती है । इतिहास मैं मंडल कमीशन के विषय और ऐसे ही अनेक मुद्दों पर पूर्व प्रधानमंत्री विश्वानाथ प्रताप सिंह की अनेक छवियाँ बानाई गईं हैं । इन छवियों के उस पार के सच को लेखक श्री अशोक कुमार सिन्हा ने अपनी पुस्तक '' वी पी सिंह सफ़र और संघर्ष '' में उजागर किया है । बहुत श्रम और श्रधा से लिखी गयी इस पुस्तक में उस समय के अनेक अनछुए ,अप्राचारित प्रसंग पढ़ कर प्राप्त किये जा सकते हैं । उस काल खंड की नब्ज जानने के लिए यह पुस्तक हमारी मद्दद करती है । पुस्तक की भूमिका में ही लेखक नें लिखा है ---''किसी व्यक्ति की पहचान के लिए जरूरी है की उसके जीवन व्रत की पहले यात्रा की जाये । फिर भी इससे व्यक्ति का सही परिचय नहीं किया जा सकता । उसका सही परिचय होता है समय की शिला पर उसके दुआरा रचा गया वह चित्र उकेरा जायेआगत पीदियाँ स्त्रष्ण , ग्रहणीय नजरों से आदर पूर्वक ग्रहण कर सकें । पुस्तक में अनेक ऐसे स्थल हैं जहां पहुच कर सूचनाओं का भंडार मिलता है । लेखक ने इन तथ्यों को प्रस्तुत करने मेंबहुत श्रम किया है । इतिहास की द्रष्टि से पुस्तक मूल्यवान है। वी पी सिंह के कवी मन , चित्रकार , राजनेता और एक संवेदन शील मनुष्या की अनेक छवियाँ इसमें दर्ज हैं । पुस्तक -- '' वी पी सिंह सफ़र और संघर्ष '' लेखक -- ''अशोक कुमार , मूल्य रु ५५० प्रकाशक विशाल पुब्लीकेशन , कैलाश मार्केट , दरियापुर , पटना - ८००००४। प्रस्तुती --- राकेश शर्मा ।

मंगलवार, 4 मई 2010

जवाहर चौधरी और उनकी व्यंग्य यात्रा




जवाहर चौधरी का नाम हिन्दी व्यंग्य के महात्वपूर्ण लेखकों में आता है । श्री चौधरी समाज में व्याप्त कुरूपताओं पर तीखा व्यंग्य करते हैं । उनके व्यंग्यों की भाषा सहज और प्रभाव गहरा होता है । मुहावरों के प्रयोग से उनके व्यंग्य अन्य व्यंगकारों से अलग पहचान बनाते हैं । सामयिक विडम्बनाओं पर उनका व्यंगात्मक चिंतन बहुत प्रभावशाली होता है । किसी निर्धारित विचार धारा और पूर्वाग्रह से दूर श्री चौधरी अपने मन की बात निडर होकर लिखते हैं । यह उनके लेखन की सबसे बड़ी ताकत है । अब तक उनके ६ व्यंग्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं । उनकी व्यंग्य यात्रा बहुत लम्बी है । उन्हे अब तक मध्य प्रदेश साहित्य परिषद का ''शरद जोशी सम्मान '' , कादम्बनी पत्रिका का अखिल भारतीय पुरुस्कार प्राप्त हुआ है । अभी हाल ही में उनका नया व्यंग्य संग्रह 'श्रेष्ट व्यंग्य रचनाएं प्रकाशित हुआ है । इस संग्रह से एक व्यंग्य आप के लिए यहाँ दिया जा रहा है ।



सारी भगत






सुपर बाजार में बार बार मुझे भगवान याद आने लगे तो मैंने एक तरफ खड़े हो कर प्रर्थाना की - ‘‘ हे भगवान !! उफ ये बाजार ! रक्षा कर प्रभु । ’’


अचानक आवाज आई - क्या बात है भगत ? मुझ लाचार को क्यों याद कर रहे हो ? ’


भगवान पास ही शोकेस में सजे पड़े थे , गले में प्राइज-टेक भी लटक रहा था । उनके सामने एक कार्ड लगा था जिसके अनुसार वे किसी खास कंपनी का प्राडक्ट बताए जा रहे थे । उन्हें शो-पीस और गिफ्ट आर्टिकलकी केटेगिरी में डिस्प्ले किया गया है । एक लम्बा सा बूढ़ा आदमी जिसने वैसी दाढ़ी रखी हुई थी जैसी कि देश भर के लाखों लोग इन दिनों रखते हैं , मार्केकेटिंग करते हुए बता रहा था कि कैसे भगवान के कारण उसे सफलता , शांति और रेखा मिली ।


बाजार में, यानी सुपर बाजार में जगह जगह खुफिया कैमरे लगे होते हैं और यदि कोई भगवान को याद करने लग जाए तो उसे भी देखा और रोका जाता होगा । भरे बाजार में ग्राहक अदि भगवान को याद करने लगे तो गलत संदेश जाता है । वैसे मुझे केवल इतना सुनाई दिया था कि .‘‘...... क्यों याद कर रहे हो ? ’’ मैं डर गया । आसपास कोई था नहीं । अपने आप से सवाल किया कि ये कौन बोला !


‘‘ मैं बोला भगत , अभी तुमने प्रर्थना की थी ना ? बोलो क्या कष्ट है ? ’’ भगवन अपनी आदत के अनुसार बोले ।


‘‘ कष्ट-वष्ट क्या भगवान , मंहगाई से आदमी परेशान है ......।’’


‘‘ आदमी कौन ? ’’


‘‘ आदमी ! .....कोई भी.... हर कोई ...., मैं .... मैं आदमी ...’’


‘‘ तुम आदमी नहीं यहां ग्राहक हो .... एक कंज्यूमर .....। ’’


‘‘ एक ही बात है , ग्राहक भी तो आदमी होता है । ’’
‘‘ बाजार में कोई आदमी नहीं होता वत्स । ..... मेरी हालत देखो ....... लोग ऐसे देखते हैं जैसे हाट में घोड़े या बैलों को देखते हैं ! ... राजनीति ने मुझे मुद्दा बनाया था अब बाजार ने मुझे आयटम बना दिया ! ’’
‘‘ लेकिन काउंटर पर तो आपकी पूजा होती है .....बाकायदा हार-अगरबत्ती सब होता है । ’’
‘‘ मेरी नहीं ..... बाजार में सिर्फ पैसे की पूजा होती है । फायदा हो तो लोग नीबू-मिर्ची को भी पूजने लगते हैं । ’’ दीनानाथ दीनहीन होने लगे ।
‘‘ आप ही सब करने कराने वाले हो । बाजार किसने बनाया ?..... अब बनाया है तो भुगतो । ’’ गलती चाहे भगवान करे , गुस्सा तो आता ही है ना , मुझे भी आया ।
‘‘ बाजार मैंने नहीं बनाया भगत , मैंने तो सृष्टि रची थी । लेकिन देखो मेरी सृष्टि बाजार में आ गई है । हवा , पानी , धरती आकाष , पेड़-पौधे , फल-फूल , मान-मर्यादा , शरीर और सारे अंग ! हर चीज बाजार में है , हर चीज का बाजार है ! ’’ दीनानाथ रूंआसे से हो गए


‘‘ आप तो सक्षम है , नेताओं से बात कीजिये ना । ’’


‘‘ नेता बात ही कहां करते हैं । कहते हैं चुप रहिये ......... पहले मंदिर बनाएंगे उसके बाद शान्ति से बैठ कर बातें करेंगे । ’’


‘‘ छोड़िये उन्हें , ........ कांग्रेसियों से बात कीजिये । ’’


‘‘ उन्हें परिवार पूजन से फुर्सत हो तब ना । ’’


‘‘ कम्यूनिस्टों से कहिये ..... वे तो बाजार संस्कृति के खिलाफ है । ’’ हमने गर्व से कहा ।


‘‘ वे तो मेरे ही खिलाफ हैं ........... और इस बाजार ने क्या उन्हें भी गुलाबी नहीं बना दिया है ? ........ समाजवादी अब सेठ हो गए है ......। ’’ भगवान अनमने से हो गए ।


‘‘ छोड़िये सबको ...... मेनका गांधी से बात कीजिये ....... वो सबकी सहायता करने पर हमेशा उतारू रहतीं हैं । आप गजानन हो..... आपको अनसुना नहीं कर सकेंगी । ’’


हमें भगवान के पास ज्यादा देर रूका देख सेल्समेन सहायता के लिये पास आया । भगवान सहम कर चुप हो गए । उसने आते ही बताया कि ये बहुत अच्छा पीस है । उनके शोरूम पर हर माल देखभाल कर , संतुष्ट होने के बाद ही रखा जाता है । कीमत थोड़ी ज्यादा है लेकिन गैरंटी देंगे । दो साल में अगर पीस का रंग उड़ जाए या फीका पड़ जाए तो बदल कर देंगे । साथ में एक स्क्रेच कार्ड भी है । स्क्रेच करेंगे तो गिफ्ट मिलेगा । दो माह बाद शोरूम का अपना बंपर ड्रा होने जा रहा है उसमें आपको मौका मिलेगा । पहला इनाम मारूति कार है । उसने खासतौर पर बताया कि पिछली बार इनाम एक मिडिल क्लास को ही खुला था । अलावा इसके उनका शोरूम दो पास देगा जिससे अगले तीस दिनों तक बाजार से खरीदी पर कुछ डिस्काउंट मिलेगा । इतना व्याख्यान देने के बाद वह मुस्कराते हुए बोला - पैक करवा दूं सर ?


मेरी इच्छा थी कि कह दूं यहां सब मंहगा है , गैरजरूरी चीजों को खरीदवा देने के लिये दबाव बनाया जाता है । मोलभाव करने वाले को दूध में नजर आ गई मक्खी समझा जाता है । या असल बात यह कि मेरे पास पैसे नहीं हैं । लेकिन मैं चाह कर भी कह नहीं पाता ।


‘‘ पैक करवा दूं सर ? ’’ इस बार कहते हुए उसने भगवान को शोकेस से बाहर खेंचा ।


‘‘ रूकिये , अभी नहीं , मैं फिर कभी ले जाउंगा । ’’ मैंने कहा । उसकी आंखें चमकीं , जैसे कुछ ताड़ लिया हो ।


‘‘ फिर कभी क्यों सर ? ..... क्या कैश खत्म हो गया है ? ’’


‘‘ हां ‘‘


‘‘ क्रेडिट कार्ड नहीं है ? ’’ इस बार उसने आपऔर सरका इस्तेमाल नहीं किया ।


‘‘ तो फिर यहां क्या कर रहे हो ? ’’


‘‘ क्यों भई ! बाजार है ...... कोई भी आ सकता है .....’’


‘‘ बिना पैसे के बाजार में आना क्राइम है ..... समझे ...। ..... गार्ड ..... गार्ड ..... इधर आना ....’’


मैं कुछ कहूं इसके पहले गार्ड आ जाता है । ‘‘ इनको गेट दिखाओ । ’’ कह कर वह चला जाता है । मैं लौटता हूं । पीछे से आवाज सुनाई देती है सारी भगत



जवाहर चौधरी ,16 कौशल्यापुरी

चितावद रोड़

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