जबलपुर में दिनांक २६व २७ दिसंबर १३ को पत्रकारिता पर केंद्रित एक राष्ट्रीय संगोष्टी थी। इस संगोष्टी का केन्द्रीय विषय ;स्वातंत्रोत्तर जबलपुर के पत्रकारों का साहित्य और समाज में योग दान ; था। वक्ताओं कि चिताएं समाचार पत्रों में हिंदी शब्दों की जगह अंगरेजी शब्दों के बढ़ते प्रयोग , समाचार पत्रों में साहित्य के पन्नो का गायब होना और भाषा के घटते मानक प्रयोग को लेकर थीं। मैं भी दो दिन इस में शामिल था। मुझे लगता है कि हमारे साहित्य्कार बंधु स्वतंत्रता संग्राम के साहित्य्कारों की भाति सब चाहते हैं। उस समय के रचनाकारों जैसी प्रतिबधिताएँ आज नही ही हैं। उस समय के लेखक आंदोलन के हिस्से होते थे साथ ही पत्रकार और रचनाकार भी थे। इसलिए उनकी समाज में उपस्थिती कई रूपों में आदरणीय थी , युग की जरूरतें भी कुछ और थीं राष्ट्रीय स्व्प्न अलग था। आज रिक्तता है ,समाज अपने युग के अनकूल मानक तय करता है। एक पुजारी यदि यह चाहे के वह एक ऋषी को भाँती समादृत हो तो यह बात विचार करने जैसी है। समाचारपत्रों में साहित्य के पन्ने होने चाहिए यह बिलकुल उचित बात है। अर्ध नग्न चित्रों के बजाय संस्कार संपन्न और विचार संपन्न सामग्री तो पत्रों में होनी ही चाहिए। आज भी जनसत्ता समाचारपत्र में साहित्य और भाषा के लिए भरपूर जगह है। हिन्दी का हर लेखक वहाँ छप रहा है
जब तक लेखक , पत्रकार और नेता एक ही व्य्क्ति होता था तब तक इन में संतुलन बना रहा जैसे जैसे नेता नाम की संस्था बलवती होती गई उसके और लिखक के बीच की खाई बढ़ती गई है। मंच के विदूषक कवियों ने नेताओं के साथ मजाकिया रुख अपनाया। वे यह भूल गए की प्रजातंत्र में नेता शक्तिशाली संस्था है। जब तक नेता ,साहित्य्कार और पत्रकार तीनों मिल कर एक दिशा में साहित्य और भाषा के बारे में योजनापूर्वक विचार नहीं करेंगे तब तक संतुलन पैदा होगा इस पर मुझे संदेह है। आज नेता और पत्रकार के बीच कुछ समन्वय है भी परन्तु साहित्य्कार और नेता के बीच के रिस्ते मधुर नही हैं . आजदी के बाद इंद्रा गांधी तक साहित्य्कार से संवाद था। पर आज यह संवाद बंद है परिणाम सवरूप भाषागत चिंताओं पर भाषण तो हैं पर समाधान नहीं हैं। जानकीरमण महा विद्यालय के प्रधानाचार और मेरे मित्र भाई अभिजात कृशन त्रिपाठी इस हेतु बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने इस विषय पर चिंतन का अवसर उपलब्ध करवाया
जब तक लेखक , पत्रकार और नेता एक ही व्य्क्ति होता था तब तक इन में संतुलन बना रहा जैसे जैसे नेता नाम की संस्था बलवती होती गई उसके और लिखक के बीच की खाई बढ़ती गई है। मंच के विदूषक कवियों ने नेताओं के साथ मजाकिया रुख अपनाया। वे यह भूल गए की प्रजातंत्र में नेता शक्तिशाली संस्था है। जब तक नेता ,साहित्य्कार और पत्रकार तीनों मिल कर एक दिशा में साहित्य और भाषा के बारे में योजनापूर्वक विचार नहीं करेंगे तब तक संतुलन पैदा होगा इस पर मुझे संदेह है। आज नेता और पत्रकार के बीच कुछ समन्वय है भी परन्तु साहित्य्कार और नेता के बीच के रिस्ते मधुर नही हैं . आजदी के बाद इंद्रा गांधी तक साहित्य्कार से संवाद था। पर आज यह संवाद बंद है परिणाम सवरूप भाषागत चिंताओं पर भाषण तो हैं पर समाधान नहीं हैं। जानकीरमण महा विद्यालय के प्रधानाचार और मेरे मित्र भाई अभिजात कृशन त्रिपाठी इस हेतु बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने इस विषय पर चिंतन का अवसर उपलब्ध करवाया