शनिवार, 22 अप्रैल 2023

जीवन यात्रा के सहयात्री



आदमी, जब आदिम अवस्था में था। तब इतनी हत्याएं और आत्म लेकिन इक्कीसवीं सदी के इस कथाकथित सभ्य समाज में हत्याओं और आत्महत्याओं के बढ़ते ग्राफ पर लिखते हुए बहुत पीड़ा होती है। साहित्यकारों का जीवन अभिशप्त होता है जो वह पर पीड़ाओं के साथ गुजरता है। महर्षि वाल्मीकि से लेकर आज तक सृजन कर्म में लगे लोग हत्याओं का विरोध ही करते आ रहे है और भविष्य में भी करेंगे। क्रौंच पक्षी के वध पर पहली कविता जन्मी थी। इस तरह अभी हाल ही में एक गर्भवती हथिनी के मुंह में बारुद डालकर मार डाला गया। इस घटना पर वाल्मीकि के वंशजों को रोना आया ही होगा। करुणापूरित मन भला क्यों दयाद्रवित न  हुआ/होगा। अगर ऐसा न हुआ हो तो अपने अंतस में झांकें कि क्या हम वास्तव में संवेदनशील मनुष्य है ? 
साहित्य जन्मा ही है हिंसा के विरोध में अतः उसके डीएनए में करुणा है। वह हिंसा, आतंक और रक्त क्रान्ति का पक्षधर नहीं है। हाँ, वह क्रान्ति करता है। इधर तथाकथित साहित्यकार उसके स्वभाव के विपरीत रक्त क्रान्ति का काम उससे लेना चाहते है। जो उसने न तो कभी किया है और न कभी करेगा। रचनाकर्म और करुणा की सात्विकता पर कवि नागार्जुन ने कहा- ‘‘कालिदास सच सच बतलाना इंदुमति के अज विलाप में अज रोए या तुम रोए थे।’’ सच यही है कि कारुणिक घटना घटे कही भी रोता केवल सर्जक का मन है। 
पशु, पक्षियों, वृ़़क्षों और प्रकृति के अन्य उपादानों के बिना मानव सभ्यता का इतिहास अधूरा है। यह केवल भारत के संदर्भ में नहीं बल्कि लगभग सभी संस्कृतियों मंे, प्रकृति के साथ आत्मीय संबंध दर्शाये गये है। भारत जैसे कृषि आधारित समाज में पशुओं के साथ हथिनी के साथ की गयी हिंसा समझ से परे है। 
यहाँ पशुओं को देवता के साथ पूजा जाता है। हाथी तो श्रीगणेश जी का स्वरूप ही माना गया। इनका एक अर्थ यह भी है कि जीवन की यात्रा अकेले की नहीं बल्कि सामूहिक है। 
पशु, पक्षियों के प्रति मनुष्य की क्रूरता की चिंता अपनी जगह है। यहाँ तो अब आदमी आत्महत्याओं पर उतरा है। आत्महत्याओं का आंकड़ा दिन-प्रतिदिन बढ़ रहा है। ऐसे में हमें यह सोचना चाहिए कि आखिर, हम किस तरह के मानवीय समाज की रचना कर रहे है ? हमने क्लर्क, अफसर, वैज्ञानिक, डाॅक्टर, अध्यापक, प्रोफेसर, नेता और तरह-तरह की अनेक श्रेणियाँ तो तैयार कर ली, मगर एक संवेदनशील मनुष्य बनाने में चूक गये। असल में इस दुनिया को करुणापूरित मन वाले कुछ मनुष्यांे की जरुरत है, जिनके सानिध्य में मानवीय समाज करुणा का भाव जगा सके। वैसे तो हर कालखंड में महापुरूष अवतरित होते रहते है जिन्होंने मनुष्य के अभ्यंतर को बदलकर उसे बेहतर से और बेहतर मनुष्य बनाने की कोशिश की है और रचनाकारों ने इन महापुरूषों के चरित्र को अनेक कोणों से गाया है, ताकि आने वाली पीढ़ियाँ इनसे प्रेरणा लेती रहे। 
कहने के लिए हमारी शिक्षा प्रणाली आधुनिक आवश्यकताओं के अनुसार ढाल दी गई है। हम यह भूल गये है कि इस शिक्षा व्यवस्था में आदमी को संवेदनशील आदमी बनाने के टूल्स नहीं हैं। आखिर शिक्षा के साहित्य की जगह इतनी कम क्यों है ? नैतिक शिक्षा पाठ्यक्रम से बाहर क्यों की गयी ? केवल रोटी की जुगाड़ करने वाली शिक्षा मनुष्य का निर्माण नहीं करती। रोटी खाने की तहजीब भी तो सिखायी जानी चाहिए। स्वयं के अतिरिक्त कायनात के प्रति चिंतन का भाव जगाने वाली शिक्षा चाहिये। रोटी का प्रबंधन जरुरी है, मगर अनियंत्रित भूख पैदा न हो, ऐसा भी कुछ प्रबंध हो। अतृप्त, वासना न तो स्वयं का कल्याण करती है और न ही समष्टिका। इधर कुछ अप्रत्याशित खबरें है कि ऐसे लोग जिनके पास रोटियाँ है, सुखद निवास है, सामाजिक प्रतिष्ठा है, यश है, इन सबके होने के बाद भी वे अंदर से खाली हैं और इतने खाली है कि आत्महत्या जैसा जघन्य कृत्य कर रहे हैं। अब नीति निर्धारकों को कौन समझाये कि मानव जीवन में आने वाले उतार-चढ़ावों को सहन करने की शक्ति देने वाली शिक्षा क्यों नहीं दी गई ? आंकड़े बताते है कि अधिकांश आत्महत्याएँ निजी कारणों से की गई है। कृषकों की आत्महत्याओं के लिए वे दोषी नहीं है व्यवस्थाएँ दोषी हैं। असल में ऊपर-ऊपर से चमकदार दिखने वाले ये छलिया, अभिनेता टाइप के लोग हमारी नई पीढ़ी के प्रेरणास्रोत है। ये भीतर से बहुत बैचेन और बेचारे निकाले।
साहित्य आदमी को भीतर से मजबूत बनाता है बाहरी दुनिया को बदलने में साहित्य की कोई रूचि नहीं। गुरु की महिमा के संदर्भ में कबीर ने कहा था - ‘‘अंतर हाथ सहाय दे/बाहर बाहे चोट’’ जीवन में साहित्य की भी यही भूमिका है। देर जरुर हुई है मगर बहुत देर नहीं। अभी भी समय है कि हम अपनी पीढ़ियों की ऐसे परवरिश करें कि वे केल साक्षर ही न बने बल्कि शिक्षित भी होें।

कोरोना समय और समस्याएँ

 कोरोना समय और समस्याएँ

कोरोना ने गाँव की याद दिला दी। हर एक को हरि नाम की तरह। गाँव की याद ही नहीं दिलाई बल्कि गाँव वापसी भी करवाई। केवल दूर ही वापस गये वापस वे भी जाना चाहते थे जो समर्थ है, धनवान है और जो दशकों पहले गाँव से बिछड़ गये थे। ऐसा नहीं है कि गाँव सभी समस्याओं का हल है। अगर ऐसा ही होता तो लोग अपने पुरखों का गाँव छोड़कर शहर आते ही क्यों ? आजादी के बाद हमारी सत्ताओं ने गांधी के ‘ग्राम स्वराज’ की अनदेखी की है। इसी पाप का यह भयानक परिणाम है कि अधिकांश जन ना तो गाँव के रहे, ना शहर के हो पाये। शहर में रहते हुए भी इनकी रगो में गाँव, रक्त बनकर दौड़ता रहा। गाँव और शहर के बीच का द्वन्द्व ने गाँव उजाड़ दिये और शहर कुरुप और बोझिल बनते गये। शायद कोरोना महामारी से शिक्षा लेकर अब हमारी सत्ताएँ ग्राम स्वराज की अवधारणा पर ध्यान देगी। यह उम्मीद की जा सकती है। गाँव की आत्मनिर्भरता से ही राष्ट्र की वास्तविक और टिकाऊ उन्नति का मार्ग प्रशस्त होगा। केवल स्मार्टसिटी बनाने की रटन्त छोड़िए, स्मार्टगाँव का मंच भी जपिए। इसी से बेरोजगारी मिटेगी और पलायन रुकेगा। कुटीर उद्योगों से गाँव का स्वरुप निखरेगा और प्रगति की नई इबारत लिखी जा सकेगी और इसे आप भारतीय संस्कृति कहते है उसकी आत्मा का क्षरण भी रोका जा सकेगा। ग्रामीण से नागरिक बनने का रास्ता सरल भले ही मालूम पड़े मगर इसका भविष्य वर्तमान में बहुत धंुधला और कुरुप है। इसकी बहुत बड़ी कीमत हमारा राष्ट्र चुका रहा है। आज आवश्यकता है कि तत्काल प्रभाव से ऐसे प्रबंध किये जाये कि यह संघर्ष हमेशा के लिए बदल जाये। 
कोरोना ने विज्ञान के अहंकार को भी चुनौती दी है। जो देश यह कल्पना कर रहे थे कि वे विज्ञान के सहारे आदमी को अजर-अमर बना देंगे। वास्तविकता यह है कि वे अदृश्य विषाणु (वायरस) से हार गये। जीवन सुरक्षा के लिए उठी उनकी चित्कार पूरा विश्व सुन रहा है। लगता है कि विज्ञान को अभी प्रकृति के तमाम रहस्य समझने में बहुत समय लगेगा और यदि अंततः वह ना समझ पाये तो आश्चर्य नहीं होगा। आचार्य रजनीश से किसी ने पूछा था- ‘‘क्या विज्ञान आध्यात्म को समझ सकता है’’ ? उनका उत्तर था-‘‘कभी नहीं, जहाँ विज्ञान की सीमा समाप्त होती है वहाँ से आध्यात्म की सीमा शुरु होती है।’’ यह सच है कि विज्ञान ने मनुष्य के जीवन को सरल, सुगम बनाया है और वह अनंतकाल तक अपने कार्य में यूँ ही लगा रहेगा। सवाल यह है कि क्या सरलता, सुगमता जीवन का अंतिम उद्देश्य है ? 
कोरोना काल में अनेक चिकित्सक भी बेमौत मारे गये। ये लोग असाधारण लोग थे, जो बीमारी के संक्रमण की बारीकियों से परिचित थे। इन्हें एक अदद वैक्सीन की दरकार थी। आवश्यकता ही अब तक अनुसंधान करवाती आ रही है और भविष्य में भी करवाती रहेगी। मगर भविष्य में भी ये चुनौतियाँ कम नहीं होगी। विज्ञान और प्रकृति के संघर्ष की कथा अनंतकाल तक इसी तरह चलने वाली है। वैज्ञानिक युग के आदमी ने पहली बार मौत का तांडव देखा है। महामारियों का इतिहास बताता है कि किस तरह लोग महामारियों के शिकार होते रहे है, मगर तब तकनीक ने दुनिया को इतना छोटा नहीं बनाया था। आदमी प्रकृति की गोद में स्वाभाविक जीवन जी रहा था। सूचनाओं और दवाओं का तंत्र नहीं था। 
कोरोना ने कुछ अनसुलझे सवालों के जवाब भी हमें दिये है। कोरोना से पहले पर्यावरण संतुलन के लिए दुनिया चिंतित थी। इधर मृत्यु से भयभीत मनुष्य ने लाॅकडाउन किया। बदहवास दौड़ती जिंदगी अचानक थम गई या मौत के भय से सहम गई। जीवन का कोलाहल निस्तब्धता में बदल गया। अचानक मनुष्य को लगा कि वह कहाँ जा रहा था। उसने यह भी समझा कि जीवन के लिए बहुत अधिक वस्तुओं के संग्रहित की आवश्यकता नहीं है। आवश्यकताएँ कम की जाये और प्रकृति की शरण में जीवन जिया जाये। इधर प्रकृति भी अपने मौलिक कलेवर में चली गयी। परिणाम यह हुआ कि हमने आकाश की पहली नीलिमा के दर्शन किये। पहाड़ों की संुंदरता और नयनाभिराम हरियाली भी देखी, पक्षियांें का कलरव शहर में भी सुनाई दिया, नदियाँ निर्मल हुई। ये वे नदियाँ है जिन्हें निर्मल बनाने के लिए हमने तरह-तरह की कोशिशें भी की थी, मगर परिणाम शून्य ही रहा। कारण स्पष्ट है कि सबके मूल में हमारा दुराचरण ही था। आज शहरों में वायु सांस लेने योग्य हुई और ध्वनि प्रदूषण अपने न्यून स्थिति में आ गया। मगर ये सारी स्थितियाँ एक स्वप्न की तरह है, कुछ समय के लिए है। घरों में बंद जनसंख्या जैसे ही मुक्त होगी, ईंधन से चलने वाले यंत्र फिर आग उगलना शुरु करेंगे और फिर मनुष्य का उसी नरक में जीने को विवश होगी। इस कोरोना काल में हमसे कहा है कि अगर आप प्रकृति को विनाश से बताना चाहते हो तो बचा सकते हो। दुनिया के सभी देश हर वर्ष एक सुनिश्चित अवधि के लिए लाॅकडाउन में जाना तय करें, ताकि प्रकृति रुपी सुंदरी अपने सौंदर्य को अक्षुण्य बनाये रखने का प्रयत्न कर सके। 
लाॅकडाउन में संवाद की नई शैली भी विकसित की है। तकनीक ने हमारी कल्पना को नया आकाश दिया है। साहित्य जैसे मार्मिक विषय को सोशल मीडिया के माध्यम से लोगों तक पहुँचाया है। प्रकाशकों, संस्थाओं ने आॅनलाईन व्याख्यान प्रारंभ किये। ये संकेत हमें नये युग में जाने का विश्वास दिला रहे है। अब एक सवाल यह है कि क्या कोरोना के बाद हम लोग पुराने ढ़ंग का जीवन जी पायेंगें ? शायद नहीं। इस अवधि के अनुभवों, आदतों से उभर पाना शायद संभव न होगा, अब भविष्य तकनीक के सहारे तय होगा। 
जो लोग इस अवधि में दिवंगत हुए उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित करना हम सबका कर्तव्य है। विचारक कहते थे कि जीवन क्षणभंगुर है, मगर इस कटु सत्य को इस महामारी ने हमारे समक्ष रखा। मृत्यु को प्राप्त लोगों ने और ना ही शेष समाज ने यह कल्पना की थी कि अंतिम यात्रा पर निकले इन लोगों को रक्तसंबंधियों का कांधा भी नसीब नहीं होगा। कोरोना से मृत्यु को प्राप्त लोगों को श्रद्धासुमन भी अर्पित न हो सके। एक दृश्य यह भी सामने आया कि अनेक रक्तसंबंधियों ने मृत देह को लेने से ही मना कर दिया। जीवन के इस नितांत सत्य से कम से कम भारत का जनमानस पूर्व से ही परिचित था कि यह जीवन यात्रा अकेले ही आता है परन्तु हमारे मन से यह विचार, आकांक्षा बहती ही रही है कि उनकी मृत देह को उनका रक्तसंबंधी भी अग्नि स्नान करायेगा, मगर महामारी ने निश्चय ही एक अलग परिदृश्य रचा है। नियति के गर्भ में क्या छुपा है, हमारी आँखे और हमारा मन अभी तक नहीं जान सका है। हमारी जिजीविषा शक्ति ही जीवन की नग्नता, कुरुपता को ढंककर अग्रसर होने के लिए प्रेरित करती आ रही है। इसी के बल पर मनुष्यता ने अब तक की यात्रा की है और भविष्य में भी यह यात्रा जारी रहेगी। ऐसे ही महामारियों के दौर से गुजरते हुए पुरखों ने प्रार्थना की थी ‘‘सर्वे सन्तु निरामया’’ आइये इसी प्रार्थना को हम लोग भी दोहराते है। 

गुरुवार, 7 जनवरी 2021

विश्व ग्राम(Global, Village) में स्वदेश




विश्व ग्राम(Global, Village) में स्वदेश 



मंगलवार, 29 सितंबर 2020

इंडिया डेट इज भारत या भारत डेट इज इंडिया

 


देश के संविधान की उद्देशिका में लिखा गया। हम भारत के लोग भारत को (सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न समाजवादी, पंथ निरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य) बनाने के लिए तथा इसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक, न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा उन सब मैं व्यक्तित्व की गरिमा और 2 (राष्ट्र की एकता और अखंडता) सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान स्भा में आज तारीख 26 नवम्बर 1949 ई. (मिति, मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी संवत दो हजार छह विक्रमी) को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्म अर्पित करते हैं। 
प्राचीन और गौरवशाली राष्ट्र के लिए इससे बेहतर सपना भला और क्या हो सकता है। कुछ मदों पर हम साकार सपने को आगे के लिए बढ़े भी मगर कुछ मदों पर फिस्सडी सिद्ध हुए। जैसे ‘‘उन सब में अभिव्यक्ति की गरिमा’’ और ‘राष्ट्र की एकता और अखण्डता’ के सन्दर्भों में हिन्दी समेत भारतीय भाषाओं की भूमिका को रेखांकित नहीं किया गया। राष्ट्रीय  अखण्डता को अक्षुण्य बनाने में भाषा की सबसे बड़ी भूमिका है। स्वातंत्र संग्राम ने सिद्ध कर दिया था कि राष्ट्रीय अखण्डता के लिए हिन्दी आवश्यक होगी। इसी का परिणाम हुआ कि हिन्दी को राजभाषा बनाया गया मगर स्थिति ‘‘नौ दिन चले अढाई कोश’’ वाली ही सिद्ध हुई। न्याय आज भी, न्याय की याचना हमारों पुरखों ने अपने महान कार्यों को ध्यान में रखकर इसे भारत कहा था। मतलब भा (प्रकाश, ज्ञान) रत (लगा हुआ) अर्थात वह देश जो निरंतर ज्ञान की खोज में लगा हो, करने वाले नागरिक को आज भी उसकी भाषा में न्याय नहीं दिया जाता है। इस सन्दर्भ में हमें संविधान की इस पंक्ति को भी याद करना चाहिए - श्प्दकपं जींज पे ठींतजश् यह केवल एक वाक्यभर ही नहीं बल्कि हमारी असावधानी और पश्चिम परस्त सोच का भी प्रतीक है। इसे लिखा जाना चाहिए था - श्ठींतज जींज पे प्दकपंश् भारत पहले है। इसका प्दकपं  नाम बाद का है। भारत मतलब यहाँ के आमजन सहित को सब ध्वनित करने वाला देश।
बाद के चिन्तकों ने कहना शुरू किया भारत शब्द से भारतीय जनमानस का परिचय मिलता है जब कि इण्डिया से इलीठ कला स का बोध होता है। हालांकि यह विभाजन वैज्ञानिक नहीं है मगर अर्थ को विस्तार तो देता है। ‘हम भारत के लोग’ में सब आते हैं। मगर प्दकपं में बहुत हद तक अंग्रेजी समर्थक और अपने को अधिक साक्षर मानने वाले नगरीय सभ्यता से ओतप्रोत लोग। शेष जन भारत के निवासी मानें जाए जो मडगाँव, जंमतो और दूरस्थ स्थानों पर निवास करते है। वे अपनी सांस्कृतिक विरासत पर गौरव करते अपने पुरखों के पढाएं पाठ पर जीवन जीते हैं। 
‘इण्डिया दैड इज भारत’ में अंग्रेजी, अंग्रेज मानसिकता को प्राथमिकता दी जा रही है। और यह मात्र अब बहुत संघर्ष मय हो गयी है। अंग्रेजी और भारतीय भाषाओं की प्रतिबद्धता आजादी पूर्व उतनी घनी नहीं थी जितनी आज हो गयी है। सत्तर साल का समय बीत गया। हम अपने भारत के लोगों को ये न समझा सके और न ही नीतियाँ बना सके कि देश की एकता व अखण्डता के सन्दर्भों में हिन्दी की भूमिका क्या है और भारतीयता के संरक्षण में हमारी तमाम भारतीय भाषाओं को खोकर हम पुरखों के द्वारा अपनायी गयी वैज्ञानिक जीवन शैल्ी, औषधीय ज्ञज्ञन को सुरक्षित रख सकेंगे। अंग्रेज परस्त इतिहासकारों ने यह भ्रम फैलाया कि भाषा केवल सम्प्रेषण का माध्यम भर है। यह काम किसी भी भाषा से लिया जा सकता है मगर ऐसा है नहीं। तथ्य ये है कि भाषा को मारकर हम संस्कृति की रक्षा नहीं कर सकते। इसका एक संकेत संविधान के अनुच्छेद 343 में मिलता है। 

रविवार, 23 अगस्त 2020

‘चट्ठी, कबूतर, शोसल मीडिया और साहित्य

 

‘चट्ठी, कबूतर, शोसल मीडिया और साहित्य
हर युग में आदमी अपने भाव दूसरों तक पहुँचाने के लिए विकल रहा है। आदिम अवस्था में पत्थर पर चित्र और अमर बनाने का उपक्रम करता रहा है। संस्कृत के महाकवि धोई ‘पवन दूतिका’ में पवन के द्वारा अपने मनोभाव भेजते हैं तो कालिदास के डाकिया मेघ बनते है। सम्यता को अगले सोपान में आदमी को सन्देश वाहक, हरकारा डाकिया बनाया जाता है। बाद में कबूतर के गले में चिट्ठी बाँधकर उससे मनुहार की जाती है कि कबूतर जाजा....। यह दृश्य बतलाता है कि सम्प्रेषण की बेबसी और उत्कंठा हर युग में निरन्तर बनी रही है। और जब तक धरती पर हाड-मास का बना यह आदमी रहेगा और जब तक उसके सीने में दिल धड़केगा तब तक वह अपनी भावनाओं को दूसरों तक पहुँचाने की की बेचैनी से न बच सकेगा। गणनाओं में युग और कल्प बदले, किस्से कहानियों के स्वरूप बदले लेकिन आदमी का हृदय ज्योें का त्यों मनोभावों से भरा रहा। 
जब तक वैज्ञानिक उपकरण न थे तब तक प्रकृति के उपादानोें से काम चलाया कभी पवन, कभी चिड़िया कभी बादल संदेश वाहक रहे। कोई पवन, चिड़िया और बादल इनते समझदार कभी नहीं रहे कि वे आदमी की भाषा, भावों को यथावत प्रेषित कर सके। लेकिन विचार पहुँचाने के कोई और उपाय जब थे ही नहीं तो आखिर आदमी करता भी क्या ?
इधर जब से विज्ञान ने संवाद के लिए ऐसे उपकरण खोजे हैं जो प्रकृति की धड़कनों पर सवार होकर भाव और विचारों को सहजता से सम्प्रेषित करते हैं। तब से सम्प्रेषणीयता तो सहज हो गयी, मगर विचारों में परिपक्वता प्रायः समाप्त हो गयी। इसीलिए सुधी साहित्य मर्मज्ञ विज्ञान के अवतरण के पूर्व और बाद के साहित्य को बाँट कर देखते हैं। यह ठीक भी है। प्रकृति के परिवेश में रहने वाले रचनाकारों को सहज सरल उपमाएं प्रकृति के आँगन में मिल जाती थी। आज रचनाकार का सान्ध्यि लौह युग से है। अतः उसकी भाव भूमियों से अन्तर आ गया। 
अब एक और अन्तर भविष्य में आने की संभवता (आशंका लिखना चाहिए) है कि बँटवारे का आधार कोरोना भी बन जाए। ईसा के पूर्व और बाद की तर्ज की तरह। कोरोना के बाद का जीवन ठीक पूर्ववत रहेगा, ऐसी संभावनाएं कम है और जब जीवन क्रम बदलेगा तो साहित्य तो बदलेगा ही। 
पुरानी पीढ़ी के रचनाकार इन दिनों लगभग भौचक्के है कि साहित्य में अनायास ये क्या हुआ। पहले कहीं कोई सौभाग्यशाली व्यक्ति कृषि बनता था। आज कोई दुर्भाग्यशाली ही होगा जो कवि न हो। इसे कविता का दुर्भाग्य या कविनुमा उन्हें जिन बेचारों का यह तक पता नहीं कि आखिर कविता किस चिड़िया का नाम है। फेसबुक, थाट्स ऐप जैसे माध्यम कविताओं से भरे हैं। पहले कविता के गुण ग्राहक देखकर कविजन काव्य पाठ करते थे। अब जो मिले उससे ही निपट लो। यहाँ तक तो ठीक उन्हीं पंक्तियों को प्रकाशित करवाने के लिए पत्रिकाओं के सम्पादकों के सम्पादकों को भेजना भी शुरू कर दिया गया। अब सम्पादकों की चुनौती है यह कि उस गूडे से क्या चुने और क्या छोड़े। अधैर्य इतना है कि इधर रचना भेजी उधर फोन संपादक को खबर कर दी गयी कि बताएं किस अंक में छाप रहे हो। शायद ही किसी समय में कविता के नाम पर इतना दुराचरण देखा गया हो। इन माध्यमों/कुपठित और प्रायः अपठितों से कपटपूर्ण यश प्राप्त लोग इतने भ्रम में होते है कि वे अमरत्व प्राप्त कवि हैं। 
रचना के मूल्यांकन की पूर्व निर्धारित प्रक्रिया ही ठीक है। रचने के बाद सम्पादक, पाठक, श्रोता तय करते थे कि रचनाकार के पाँव कैसी जमीन पर टिके हैं। उसी दिशा और दशा कैसी है ? मगर इन माध्यमों ने पुराने तरीकों को ध्वस्त कर दिया। प्रकाशन की सुविधाएं सरल उन्हें से किताबों की संख्या भी कोरोना के संक्रमण की तरह से बढ़ी। इन इलेक्ट्रानिक माध्यमों ने पाठक तो समाप्त ही कर दिया। 
प्रतीक्षा व्याकुलता जरूर पैदा करती है मगर आदमी को भीतर से धीरज रखने का गुण भी पैदा करती थी। प्रतीक्षा से रचना, रचनाकार, पाठक सभी पकते थे, धैर्यशाली बनते थे। 
एक तर्क यह दिया जा सकता कि इन माध्यमों पर लिखे गए का ध्यान ही न दिया जाए। इसे अनदेखा करना बुद्धमानी नहीं कही जा सकती। इस समय का मूल्यांकन इन्हें छोड़कर नहीं किया जा सकता, क्यांेकि नई और पुरानी पीढ़ी की बड़ी संख्या इन माध्यमों पर उपस्थित है। यह बात अलग है कि इस घमासान में नीर-क्षीर विवेक संभव नहीं है।

रविवार, 8 जनवरी 2017


मित्रों ,यह वीणा का जनवरी २०१७ का अंक है। इसका कवर पृष्ट सुविख्यात चित्रकार और कहानीकार श्री प्रभु जोशी ने बनाया है। इसमें डॉ. कमल किशोर गोयनका, डॉ. विजय बहादुर सिंह, रमेश दवे, नर्मदा प्रसाद उपाध्याय, मनोज पांडेय, सूर्यकांत नगर, के आलेख तथा सूर्यवाला, मीनाक्षी स्वामी, प्रकाश कान्त की कहानियां तथा बुद्धिनाथ मिश्र के गीत सहित पठनीय सामग्री उपलब्ध है।
वीणा के आगामी अंको के लिए आप अपनी चयनित रचनाएँ भेजने का कष्ट करें।




मित्रो, यह "वीणा" पत्रिका का दिसम्बर 16 के अंक का कवर पेज है। "वीणा" के सम्पादन का भार आपके इस मित्र को सौंपा गया है। मेरे सम्पादन में यह पहला अंक है। आप सब को यह पता ही है कि "वीणा" हिंदी की अब तक प्रकाशित होने वाली सबसे पुरानी पत्रिका है। वीणा का प्रकाशन सन् 1927 से निरन्तर हो रहा है। आप के विचार और रचनाएँ सादर आमन्त्रित हैं।

बुधवार, 14 मई 2014


    'समय के हस्ताक्षर

पुस्तक समीक्षा  -ओम द्विवेदी

परंपरानुसार आलोचक किसी कवि या कहानीकार पर बोलता, लिखता और मत व्यक्त करता रहा है। अपनी कसौटी पर कसकर उसे पुरस्कृत या दंडित करता रहा है। आलोचना के कई घराने किसी भी रचना को स्वीकृत या अस्वीकृत करने के फतवे जारी करते रहे हैं। यह भ्रम भी रहा है कि आलोचना की कसौटी पर कसकर ही कोई रचना कुंदन बनती है और फिर पाठकों के गले का हार। साहित्यिक परंपरा आलोचक को बहुत श्रेष्ठ मानती है। वह ज्ञान का बड़ा ख़ज़ाना है। इतना बड़ा कि उसके सामने रचनाकार अपने को बौना मानता है। आलोचक स्वयं को ज्ञान की इतनी ऊंचाई पर रखता है कि रचनाकार को तुच्छ समझता है। रचनाओं की शल्यक्रिया से रचनाकार घबराता है। हालांकि इस प्रक्रिया से गुज़रकर कई बार श्रेष्ठ रचनाएं बनती हैं तो कई बार रचनाकार अवसाद में चला जाता है और लिखना ही बंद कर देता है। केवल कवि या लेखक नहीं, बल्कि खुद आलोचक भी इसका शिकार होता है। ज़्यादातर आलोचक अपने लेखन की प्रारंभिक अवस्था में या तो कवि थे या कहानीकार, जैसे-जैसे उनके भीतर आलोचक बड़ा होता गया, कविता और कहानी की अकालमौत होती गई।
राकेश शर्मा आलोचकों की उस खलनायक वाली छवि से बिलकुल अलग हैं। उनका ज्ञान किसी दंड की तरह नहीं है, वह घात लगाए नहीं बैठा रहता कि कोई मिले और दे मारें उसके सिर पर। उनका ज्ञान मित्र की तरह रचनाकारों की मदद करता है, कबीर के कुम्हार की तरह भीतर हाथ रखकर बाहर आहिस्ता-आहिस्ता चोट करता है। अपना समूचा ज्ञान, हुनर घड़ा बनाने में समर्पित करता है। वे दूसरे आलोचकों से इसलिए भी अलग हैं क्योंकि उन्होंने लेखन की शुरुआत कविता से की और आज तक उसे बनाए रखे हुए हैं। वे लेखन की तमाम विधाओं को एक साथ साधे रहते हैं। कविता लिखते हैं तो आलोचक दूर खड़ा चौकीदारी करता है और जब आलोचना में लीन होते हैं तो कविता दूर खड़ी मुस्कुराती है। तलवार की धार पर चलते ही नहीं हैं, बल्कि दौड़ते हैं। इसीलिए दो संग्रह कविताओं के आते हैं तो दो निबंधों और आलोचनाओं के।
उनसे होने वाली बातचीत और बहसों के कारण ही यह किताब 'समय के हस्ताक्षर' मुझे किसी भी समय नई नहीं लगती। जो विषय बातचीत करते समय उनकी चिंता में रहते हैं, खाना खाते समय, चाय पीते समय या सफ़र करते समय वे जिन विषयों को समझते और समझाते रहते हैं, उन्हीं विषयों को वे अपने लेखन में शामिल करते हैं। जिन परंपराओं और मूल्यों को मानने का आग्रह वे लोक से करते हैं, उन्हें ही मानने के लिए वे पत्नी, बेटे, बेटी और खुद से भी करते हैं। इस तरह उनके जीवन और लेखन में पारदर्शिता भी है और विश्वसनीयता भी। जैसा कि किताब खुद मुनादी करती है कि इसके आलेख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं, इसलिए भी पाठक जब अपनी स्मृतियों के दरवाज़े खटखटाएगा तो ये उसे पढ़े हुए और अपने से लगेंगे।
आलोचक की तरह नहीं, बल्कि एक पाठक की तरह पढ़ने पर यह किताब चार सर्गों में मेरे सामने खुलती है। ये चारों सर्ग, चारों अध्याय राकेश शर्मा की रुचियों के भी अध्याय हैं। 'समय के हस्ताक्षर' की सबसे बड़ी चिंता है भाषा, साहित्य और लिपि। किताब के 48 निबंधों में लगभग 14 निबंध इसी विषय के आसपास हैं। हमारे समय में साहित्य की स्थिति क्या है? साहित्य किस तरह समाज के हाशिए पर जा रहा है? देवनागरी लिपि पर किस तरह रोमन का तीखा आक्रमण हो रहा है? अंग्रेजी किस तरह हिन्दी पर हमले कर रही है? सत्ता किस तरह भाषा को आकार देती है? शिक्षा, साहित्य और पत्रकारिता का रिश्ता क्या है? लेखक, प्रकाशक और पाठक का क्या नाता है? इन तमाम विषयों पर बार-बार अलग-अलग सिरे को पकड़कर लिखते हैं और हमारी समझ साफ करते हैं -'आज का आदमी केवल साहित्य से ही नहीं कटा है, बल्कि समूचे संवेदना संसार से कट रहा है। वह अपनी निजी चिंताओं को लेकर अंतर्मुखी है। बहुजन हिताय की भावना संकुचित हुई है, जबकि साहित्य का केंद्र बिंदु ही बहुजन हिताय है। आज का मनुष्य संवेदना से इतना कट गया है कि कभी-कभी तो वह अपने आप से कटा हुआ दिशा भ्रमित है। यह परिवर्तन अनिवार्य रूप से ही है। यह धूल और धुंध भी छंटेगी और भौतिकता का भूत मनुष्य के सिर से उतरेगा। इस कठिन समय में साहित्कार को अपनी सच्ची साहित्यिक आस्था के साथ आशावान होकर डटे रहने की जरूरत है, लेकिन सच्चे साहित्यकार के पूरे संस्कार लेकर ही।' (साहित्य से दूर भागता समाज)

राकेश शर्मा नाम का लेखक कोई किताब लिखे और उसमे राम और रामविलास शर्मा न हों, ऐसा हो नहीं सकता। यहां भी दोनों अपनी गरिमा के साथ उपस्थित हैं। राम शर्माजी के आध्यात्मिक आराध्य हैं तो रामविलासजी साहित्यिक। आज भी हमारे उद्धारक हैं राम आलेख में वे कभी तो सीधे तौर राम को समाज का संकटमोचक मानते हैं तो कभी तुलसी, कबीर, गांधी और मैथिलीशरण गुप्त के माध्यम से वहां तक पहुंचते हैं। संग्रह के छह निबंध मेरे इस कथन की गवाही देंगे- 'आखिर राम की कथा में ऐसा क्या है जो इतने बड़े कालखंड को पार कर यह कथा आज भी हमारे जीवन को प्रेरणा देती है। राम की कथा में मानवीय जीवन के सभी पक्ष और एक आदर्श जीवन की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। एक शासक के रूप में राम को हमेशा कोड किया जाता है और आदर्श राज्य के रूप में रामराज्य की परिकल्पना की जाती है।' (राम ही हैं हमारे उद्धारक)  इसी तरह वे समय और समाज को रामविलासजी की दृष्टि से देखते हैं। उनकी नज़र से ऋग्वेद को देखते हैं, हिन्दी प्रदेश और आलोचना के सरोकारों को देखते हैं- 'डॉ. रामविलास शर्मा भारतीय समाज को एक समतामूलक समाज बनाने का सपना सहेजे थे। मार्क्सवाद की समतामूलक अवधारणाओं के सहारे वे इसे पूरा होते देख रहे थे और इसे पूरा करने के लिए वे जीवनभर जुटे रहे। अनेक स्थानों पर उन्होंने मार्क्स की स्थापनाओं से असहमतियां प्रकट कीं और यह स्थापना दी कि भारतीय संदर्भों में यह सब उचित मालूम नहीं पड़ता। उनके लिए मार्क्सवाद एक प्रकाश श्रोत की तरह था। हारिल की लकड़ी बनाकर उसे जकड़कर नहीं बैठे। (डॉ. रामविलास शर्मा के आलोचकीय सरोकार) ये उनकी किताब का दूसरा अध्याय है।
'समय के हस्ताक्षर' की तीसरी बड़ी चिंता है बाज़ार। बाज़ार का पैशाचिक स्वरूप जिस तरह से हमारी परंपराओं, संस्कृतियों और मूल्यों को निगल रहा है, उसे समझने में किताब मदद करती है। किताब का पहला ही निबंध है-स्त्री को बदलती चंचला पूंजी। पूंजीवाद ने स्त्री को किस तरह से स्त्री को उत्पाद में बदला है? वह परंपरागत शर्म और हया छोड़कर विज्ञापन की वस्तु बन गई है। तमाम स्त्रियों का आदर्श भी वह अपने इसी स्वरूप में बन रही है। मदर टेरेसा और लक्ष्मीबाई जैसे आदर्श पर्दे के पीछे जा रहे हैं, आलेख आत्मावलोकन के लिए बाध्य करता है। बाज़ार का यह आक्रमण केवल स्त्रियों पर नहीं है, बल्कि पुरुषों के उस सोच पर भी है जो केवल वहीं सोचना, देखना और पाना चाहता है। हमारी सनातन परंपराओं को बचाए रखने के लिए वे परंपराओं के वैज्ञानिक पक्ष और संस्कार की ज़रूरत आदि पर लिखते हैं- 'घूंघट, साड़ी, बुरका जैसे परंपरागत परिधानों को पूंजीवाद ने स्त्री की गुलामी का प्रतीक और उसकी प्रगतिशीलता का विरोधी बताकर उसके मन को इतना बदल दिया है कि वह इन्हें छोड़ने के लिए छटपटाने लगी है। यहां साड़ी, घूंघट और बुरका से आशय यह नहीं है कि स्त्री को वापस आदिम युग में भेजने की वकालत की जा रही है। कम से कम वस्त्र धारण कर वह स्वतंत्र और आधुनिक नारी में परिवर्तित होने के लिए उत्कंठित दिखाई दे रही है। महाभारत की कहानी में द्रोपदी का चीर दु:शासन खींचता है। दु:शासन सामंतवादी व्यवस्था का उदाहरण है। जहां स्त्री को नग्न देखने की लालसा में पुरुष छद्म कृत्यों और बाहुबल का प्रयोग करता है। पूंजीवाद में पुरुष की इस लालसा की पूर्ति पूंजी करने लगी है।' (स्त्री को बदलती चंचला पूंजी)

पुस्तक के चौथे सर्ग में राकेश शर्मा के वे तमाम सरोकार हैं, जो साहित्यकार और एक जागरूक नागरिक होने के नाते ज़रूरी हैं। साहित्यकार जब दो खेमों में बंटता है, तो वह दूसरे घाट पर बैठे साहित्यकार और पाठक की तरफ देखना भी नहीं चाहता। राकेशजी के यहां यह दुराग्रह नहीं है। वे अगर तुलसी, राम और रामविलास शर्मा पर झूमकर लिखते हैं तो मुक्तिबोध और शमशेर बहादुर सिंह पर भी उसी तन्मयता से लिखते और बोलते हैं। उनकी विचारधारा और उनके अवदान को सम्मान देते हुए ही वे उन्हें याद करते हैं। स्वदेशी, मार्क्सवाद, आंबेडकरवाद जैसी विचारधाराओं को भी वे समय की कसौटी पर कसते हैं। उनके लेखन में अगर भारत के अतीत की गौरवगाथा है तो वर्तमान में हवा और पानी में घुलते ज़हर की चिंता भी है।
कुल मिलाकर 'समय के हस्ताक्षर' समय पर हो रहे आक्रमण, भाषा और साहित्य, परंपराओं और मूल्यों को समझने में हमारी मदद करती है। हो सकता है यह कोई इंक़लाब न खड़ा करे, लेकिन इसे पढ़ते हुए पाठक के भीतर बदलाव की छटपटाहट ज़रूर महसूस होगी। यह कोई नया मार्ग भले न बनाए, नया पंथ न दे, लेकिन जब हम अपनी राह से भटकने लगेंगे तो हमे रोकेगी जरूर। कुपंथ पर जाने से बचाएगी। यह सयम की शल्यक्रिया है। समय का भाष्य है।

समय के हस्ताक्षर
लेखक-राकेश शर्मा
मूल्य-195 रुपए
प्रकाशक-रंग प्रकाशन, 33-बक्षी गली, राजबाड़ा इंदौर-452004


बुधवार, 30 अप्रैल 2014

वर्तमान और अतीत के बीच पुल बनाती कविताएँ
राकेश शर्मा

जब कविता शौकिया और कवि जैसा दिखने के लिए लिखी जाती है तब उसकी तहसीर निरर्थक और निरुद्देश्य होती है। जब कोई कविता कवि की बेबसी और बेचैनी के कारण सृजित होती है तब वह पाठक के मन और प्राणों को स्पन्दित करती है। ब्रजेश कानूनगो के लिए कविता लिखना इसी बेबसी और बेचैनी का परिणाम मालूम पडता है। उनके हाल ही में प्रकाशित कविता संग्रह ‘इस गणराज्य में’ की कविताओं को पढते हुए सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि कवि ने इन विचारों को यदि कागज पर न उतारा होता तो इनका बोझ कवि के मानस पर स्थायी रूप से प्रभाव जमा लेता। कवि ब्रजेश के लिए कविता जीवित बने रहने के लिए एक उपाय और जरूरी उपकरण की तरह प्रतीत होती है। कवि के अपने व्यक्तित्व की भरपूर परछाई इन कविताओं में नजर आती हैं। कोई भी रचना उसके रचनाकार के व्यक्तित्व का प्रतिबिम्ब होती है। कविताओं को पढते हुए यह स्पष्ट समझा जा सकता है कि कवि ब्रजेश इस संसार को कैसे देखते हैं और उसके मौजूदा परिवेश में क्या परिवर्तन चाहते हैं।
कवि के मानस में बचपन और गुजरे समय  की मधुर यादें बहुत मजबूती के साथ चस्पा हैं। अतीत के खंडहरों में बैठा उनका कवि मन वहाँ जमी धूल और धुन्ध के बीच बीते समय की तस्वीरें देखता रहता है। हर दिन कवि एक अच्छी सुबह की प्रतीक्षा करता दिखाई देता है। कविता का जन्म कवि के मन में किसी भूकम्पीय हलचल की तरह होता है---

भूकम्प के बाद एक और भूकम्प आता है हमारे अन्दर/विश्वास की चटटाने बदलती हैं अपना स्थान/ खिसकने लगतीं हैं विचारों की आंतरिक प्लेंटें/ मन के महासागर में उमडती हैं संवेदनाओं की सुनामीं लहरें/ तब होता है जन्म कविता का।   (भूकम्प के बाद)

इन कविताओं में मौजूद स्मृतियाँ और अतीत कवि के लिए एक धरोहर है। वह अपने इतिहास से वर्तमान को बाँधे रखना चाहता है। ये कविताएँ वर्तमान और अतीत के बीच एक खूबसूरत सेतु बनाती हैं,जिस से गुजर कर पाठक यह जानने समझने में समर्थ होते हैं कि जिस समाज और समय से वे आज रूबरू हो रहे हैं उसका पुराना चेहरा कैसा हुआ करता था,देखिए इन पंक्तियों में –

धराशायी मकान की भस्म पर खडी हो गई है ऊंची इमारत/जिसकी ओट में छुप गया है नीला कैनवास/पतंग के रंगों से बनते थे जहाँ /स्मृतियों के अल्हड चित्र/ वैसा ही हो गया है मेरा मुहल्ला/जैसे कोई कहे कितना अलग है तुम्हारा छोटा बेटा।  (मेरा मुहल्ला)

यह कविता हर पाठक के साथ खडी दिखाई देती है। हम सब का अतीत इस तस्वीर में कैद है। कोई विकासवादी और व्यावहारिक व्यक्ति यह प्रश्न उठा सकता है कि खंडहरों  के बहुमंजिला ईमारतों में बदल जना तो विकास का प्रतीक है, शुभ संकेत है। लेकिन यहाँ कवि की चिंता उस विकास पर है जिसने हमारे मूल्यों और सामाजिक चेतना की बलि लेते हुए प्रगति का शंखनाद किया है। इस दृश्य से पाठकों को रूबरू कराना कवि का अभीष्ठ भी है।

जड और चेतन , मनुष्य और जीव जंतु, सभी के सामंजस्य से यह दुनिया कायम है। कविता ही यह ठिकाना है जहाँ जड चेतन का भेद समाप्त हो जाता है। जहाँ भावनाओं का मानवी करण सम्भव है ,जड में जान फूंकी जा सकती है। ब्रजेश की कविताओं में यह साकार हुआ है।

कांपते हैं जब सूरज के हाथ-पाँव/ कुहरे को भेदता हुआ/ठंडी हवा के साथ आता है मजा।
उड जाता है न जाने कहाँ/गुलाबी अनंत में चिडियों के साथ/छुप जाता है किसी बछडे की तरह/ घर लौटते रेवड में/ उडती हुई धूल के बीच दिखाई देती है/ मजे की झलक। 
(मजे के साथ)

आज जब मानवीय सम्बन्ध भी टूटने की कगार पर हैं ऐसे में यह संकल्पना कि जीव-जंतु भी हमारी जीवन यात्रा के सहयात्री हैं,बहुत सार्थक सन्देश है। मनुष्य के होने और बने रहने में प्रकृति,पेड-पौधों की अपनी भूमिका है। ब्रजेश की कविता इस बात को समझती है और समरसता का भाव-बोध कराती है। देखें-

जिस घर में रहता हूम/कैसे कहूँ कि अपना है।
चीटियाँ,कीट-पतंगे और छिपकलियाँ भी रहती हैं यहाँ बडे मजों से/
उधर कुछ चूहों ने बनाया है अपना बसेरा/ट्यूब लाइट की ओट में पल रहा है चिडियों का परिवार।  (कैसे कहूँ कि घर अपना है)

ब्रजेश की कविताओं का दायरा घर-परिवार से लेकर वैश्विक चिंताओं तक विस्तृत है। किसान के जीवन में सोयाबीन की फसल की भूमिका, ‘क्विज’ जैसे कार्यक्रमों से करोडों के पुरस्कारों के मोह में जीवन की सच्चाइयों पर पर्दा पडना , बेजुबान जानवर पर कविता ‘जिप्सी’ ,व्रत करती स्त्री, राष्ट्रीय शोक की औपचारिकता, घर-ग्रहस्थी की चिंताओं के साथ स्त्री का बाहर निकलना आदि विषयों पर मर्मस्पर्शी कविताएँ इस संकलन में हमारा ध्यान आकर्षित करती हैं।
कवि के पास अपनी बात को पाठक तक पहुंचाने का कविता का एक सरल और सर्वग्राही मुहावरा है। भाषा बहुत सरल और सहज है। ये पंक्तियां देखिए-

मैं मिला नही तुमसे मदर टेरेसा/लेकिन जानता हूँ/ तुम्हारी साडी की किनारी में बहा करती थी/ मानवता की नदी।  (मदर टेरेसा)

यहाँ मदर टेरेसा की साडी की नीली किनारी को कवि ने नदी की बहती जलधारा में रूपायत किया है। मदर टेरेसा का जीवन ही नदी की तरह जीवन-धर्म पर बडा उपकार है। यह सन्देश कवि ने सहज ही पाठक तक पहुंचा दिया है।

कविता का काम महज नारेबाजी करना नही होता है। वह एक हथियार भी नही हो सकती,कविता एक सुई की तरह है जो फटे हुऎ हमारे स्मृति के केनवास को धीरे-धीरे सिलने का काम भी करती रहती है। जिससे बीत गया समय, धुन्धली हो चुकीं यादें फिर से साकार हो जाती हैं। कविताएँ इस सन्दर्भ में अपना यह कर्म करती दिखाई देती हैं। ‘रेडियो की स्मृति’, ‘सभागार’, जैसी कई कविताएँ अनायास हमारे अन्धेरे कोनों को प्रकाश से भर देतीं हैं। वहाँ के दृश्य पाठक के मन में बहुत मोहक रूप में उभरते हैं और असीम सुकून और आनन्द से भर देते हैं।

अनेक कविताएँ हमारे समय की विद्रूपताओं और दुखद सच्चाइयों पर व्यंग्य करती हैं। ‘इस गणराज्य में’,प्लास्टिक के पेड’, ‘ग्लोबल प्रोडक्ट’, ‘मनीप्लांट की छाया’, ‘लाल बारिश’ ‘रेल गाडी के वातानुकूलित डिब्बे में बैठे लोग’ आदि कविताएँ इसी श्रेणी में रखीं जा सकतीं हैं। कवि की विचारधारा से पाठक का आमना-सामना भी यहीं होता है। कविता का काम भी यही है कि वह पाठक के मानसरोवर की प्रशांत जल-राशि को धीरे से आन्दोलित कर दे जिससे ठहरे हुए जल में तरंगें पैदा हों और अपने समय को समझने के लिए कई चित्र उसमें बनें-बिगडें। ये कविताएँ हमारे विचारों को आन्दोलित करने का ये काम बखूबी करने का प्रयास करती हैं।  

पुस्तक-इस गणराज्य में।
मूल्य-रु.100/
कवि-ब्रजेश कानूनगो
प्रकाशक- दखल प्रकाशन
104,नवनीति सोसायटी
प्लॉट न.51,आई.पी.एक्सटेंशन
पटपडगंज
दिल्ली-110092

समीक्षक-
राकेश शर्मा
’मानस निलयम’
एम-2, वीणा नगर
इन्दौर-452011  

मंगलवार, 14 जनवरी 2014

आज कल भाषा , साहित्य और समाज पर चिंताएं की जारही हैं।  शनिवार को उज्जैन के माधव कालेज के हिंदी विभाग द्वारा इसी विषय पर सेमिनार था।  एक  वक्ता के रूप मेंमुझे भी विचार प्रकट करने का अवसर मिला। ख्यात आलोचक डॉ विजय बहादुर सिंह की अध्यक्षता  थी।
   जनसता के रविवार १२ जनवरी के  अंक में श्री  अशोक  बाजपेई के लेख 'स्वतत्रता , लोकतंत्र और बहुसमयता' में भी इसी तरह की चिंताएं प्रकट की गयी हैं।
     इंदौर के रंग  प्रकाशन और शासकीय अहिल्या पुस्तकालय दुआरा ''हमारा समय और साहित्य '' विषय  १७ जनवरी को शाम ६.३० बजे आयोजन रखा गया है।  वक्ता  आलोचक डॉ विजय बहादुर सिंह होंगे।  विषय पर मुझे भी विचार करने है। इस समय हमारे लेखक जीती चिंताएं प्रकट कर रहे हैं उतनी ही चिंताएं अगर देशकी  संसद और विधान सभाएं करनें लगें और साथ ही अभिनेताओं जिनका, अनुकरण नई पीढ़ीबहुत ज्यादा करती है ,का भी सेहयोग मिल जायें तो  रंगत बदलते देर न लगेगी , 

शनिवार, 28 दिसंबर 2013

जबलपुर  में दिनांक २६व २७ दिसंबर १३ को पत्रकारिता पर केंद्रित एक राष्ट्रीय संगोष्टी थी।  इस संगोष्टी का केन्द्रीय विषय ;स्वातंत्रोत्तर जबलपुर के पत्रकारों का साहित्य और समाज में योग दान ; था।  वक्ताओं कि  चिताएं समाचार पत्रों में हिंदी शब्दों की जगह अंगरेजी शब्दों के बढ़ते प्रयोग , समाचार पत्रों में साहित्य के पन्नो का गायब होना  और भाषा के घटते मानक प्रयोग को लेकर थीं। मैं भी दो दिन इस  में शामिल था।  मुझे लगता है कि हमारे साहित्य्कार बंधु स्वतंत्रता  संग्राम के साहित्य्कारों की भाति  सब चाहते हैं।  उस समय के रचनाकारों जैसी प्रतिबधिताएँ  आज नही ही हैं।  उस समय के लेखक  आंदोलन के हिस्से होते थे साथ ही पत्रकार और रचनाकार भी थे।  इसलिए उनकी समाज में उपस्थिती कई रूपों में आदरणीय थी , युग की जरूरतें भी कुछ और थीं राष्ट्रीय स्व्प्न अलग था। आज  रिक्तता  है ,समाज अपने युग के अनकूल मानक तय करता है।  एक पुजारी यदि  यह चाहे के वह एक ऋषी को भाँती समादृत हो तो यह बात विचार करने जैसी है।  समाचारपत्रों  में  साहित्य के पन्ने होने चाहिए यह बिलकुल उचित बात है।  अर्ध नग्न चित्रों के बजाय संस्कार संपन्न और विचार संपन्न सामग्री तो पत्रों में होनी ही चाहिए।  आज भी जनसत्ता समाचारपत्र  में साहित्य और भाषा के लिए भरपूर जगह है।  हिन्दी का हर लेखक वहाँ छप रहा है
         जब तक लेखक , पत्रकार और नेता एक ही व्य्क्ति होता था तब तक इन में संतुलन बना रहा जैसे  जैसे  नेता नाम की संस्था बलवती होती गई  उसके और लिखक के बीच की खाई बढ़ती गई है।  मंच के विदूषक कवियों ने नेताओं के साथ मजाकिया रुख  अपनाया।  वे यह भूल गए की प्रजातंत्र में नेता शक्तिशाली संस्था है।  जब तक  नेता ,साहित्य्कार और पत्रकार तीनों मिल कर एक दिशा में साहित्य और भाषा के बारे में योजनापूर्वक विचार नहीं करेंगे तब तक संतुलन पैदा होगा इस पर मुझे संदेह है।  आज नेता और पत्रकार के बीच कुछ समन्वय है भी परन्तु साहित्य्कार और नेता के बीच के रिस्ते मधुर नही हैं  . आजदी के  बाद इंद्रा गांधी तक  साहित्य्कार से संवाद था।  पर आज यह संवाद बंद  है परिणाम  सवरूप भाषागत चिंताओं पर भाषण तो हैं पर समाधान    नहीं   हैं।  जानकीरमण महा विद्यालय के प्रधानाचार और मेरे मित्र  भाई अभिजात कृशन त्रिपाठी इस हेतु बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने इस विषय पर चिंतन का अवसर उपलब्ध करवाया 

गुरुवार, 19 अप्रैल 2012

भागवत भूमि यात्रा पर विमर्श

पुस्तक चर्चा में भाग लेते लेखक 

पुस्तक चर्चा में भाग लेते लेखक 

पुस्तक चर्चा प्रसंग  

हिंदी के कालजयी रचनाकार सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायन अज्ञेय ने दो ऐतिहासिक यात्राएं संपन्न करवाई थीं. पहली यारा " जानकी" थी. दूसरी यात्रा "भागवत भूमि यात्रा" थी. अज्ञेय ने अकेले ही जिन  यात्राओं  को पूरा किया था उनके नाम हैं "अरे यायावर रहेगा याद" और "एक बूँद सहसा उछली". भागवत भूमि यात्रा में अज्ञेय के साथ हिंदी के ग्यारह बड़े रचनाकार सहयात्री थे - मानिकलाल चतुर्वेद, विद्यानिवास मिश्र, भगवतीशरण सिंह] मुकुंद लाठ, रमेश चन्द्र  शाह, इला डालमिया, विष्णु कान्त शास्त्री, नरेश मेहता,  रघुवीर चोधरी, जडावलाल मेहता. अभी हाल ही में इस यात्रा का विस्तृत विवरण ख्यात आलोचक डॉ. कृष्ण दत्त  पालीवाल ने "भागवत भूमि यात्रा" पुस्तक में संपादित किया है. इंदौर में इस पुस्तक पर चर्चा  आयोजित  हुई. इस पुस्तक चर्चा में शहर के अनेक रचनाकाओं  ने भाग लिया -  चैतन्य त्रिवेदी, डॉ. जवाहर चौधरी , चन्द्रभान भारद्वाज,विकास  दवे, हरेराम  वाजपयी, रामचंद्र सौचे, नंदकिशोर वर्वे, रामचंद्र अवस्थी, गिरेन्द्र  सिंह भदौरिया , अरविन्द  जावलेकर, सुधीन्द्र  कमलापुर, मोहन रावल, श्रीमती नियति सप्रे, सुख देव  सिंह  कश्यप, वसंत सिंह जोहरी, नारायण प्रसाद शुक्ला, इसहाक असर और  श्याम दांगी.रचनाकारों नें माना कि यात्राएं लेखन  कर्म को गहराई देती हैं .जन और जीवन की समझ यात्राओं सी पैदा होती है . भक्ति काल के सभी कवि निरंतर यात्रों पर रहते थे परिणाम स्वरुप  उनकी रचनाओं में मानव ही नहीं बल्कि पूरी कायनात का दुःख- सुख बोलता है .और इसी लिए आज भी वे सब पूरी तरह प्रासंगिक हैं . शायद अज्ञेय भी रहनाकारों को इसी उदेश्य से देश के विभिन्न प्रान्तों की यात्रा करवाना चाहते थे . पुस्तक चचा में भाग लेते हुए सभी ने माना के इस पुस्तक का सम्पादन कर डॉ क्रष्ण दत्त पालीवाल ने हिन्दी साहित्य को अमर क्रति दी है . वास्तव में अनेक सन्दर्भ इस पुस्तक में मौजूद हैं . युगों - युगों की गाथा समझनें के लिए यह पुस्तक हमारी बहुत मदद करती है .


मंगलवार, 17 जनवरी 2012

फिकरमंद पति

   श्री प्रमोद कुमार  श्रीवास्तव ,  अपर आयुक्त , कर्मचारी राज्य बीमा निगम कानपुर ,की  यह कहानी  दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में भी प्रकाशित हो चुकी है . लेखक  सामाजिक विसंगतियों पर कहानी लिखने  में सिद्ध  हस्त  है . उनकी  अब तक अनेक कहानियां देश की अनेक  पत्र - पत्रिकाओं  में प्रकाशित हो चुकी  हैं . अपने ब्लॉग पर इसे आभार सहित प्रकाशित कर रहे हैं .
                                        

बह की इंटरसिटी में मैं अपनी सीट पर बैठा ही था कि बगल की सीट पर एक पैंतीस वर्षीय नौजवान आ गया। स्मार्ट, करीब 6 फिट लम्बा। ट्रेन चली तो हम अपने-अपने अखबारों में डूब गए। सुबह जल्दी उठने के कारण नींद-सी महसूस होने पर मैं झपकी लेने लगा। कुछ देर बाद पड़ोसी युवक भी खर्राटे भरने लगा। सहसा उसके मोबाइल की घंटी से नींद खुल गयी। वह कह रहा था, क्यों तीन दिन बाद फोन करने का टाइम मिला। बन्द करो, मुझे तुमसे कोई बात नहीं करनी है। चन्द मिनटों के अन्तराल पर पुन: घंटी बज गयी। मोबाइल कान में लगाते हुए उसने कहा, मेरा मूड ठीक नहीं है, तुम मेरे से कोई बात मत करो। मेरा दिमाग पिताजी की बरसी में लगा है। वहां जाकर तुम लल्ली, मां-बाप में ऐसी मस्त हो गयीं कि तीन दिन बाद बात करने की फुरसत मिली है। उधर से महिला के कुछ कहने पर युवक ने कहा, ज्यादा बक-बक करोगी तो आकर ऊपर छत से फेंक दूंगा, मर जाओगी समझी! कहकर फोन काट दिया। मुझे लगा, महिला के तीन दिन तक फोन न करने से युवक आहत है। कुछ देर शान्ति रही, ट्रेन बस्ती स्टेशन पर रुकी। युवक ने किसी को फोन मिलाया, घर को साफ कराकर, छिड़काव करा देना। मैं घंटे-दो घंटे में पहुंच रहा हूं। मुझे लगा या तो कोई कान्ट्रेक्टर होगा या कोई जे.ई.। इसी बीच उसे लगा कि कोई मिसकाल हो गई क्योंकि उसने तुरन्त फोन लगाया, मैंने तुमसे कहा न, कोई बात नहीं करनी है। फिर कुछ देर युवक फोन सुनता रहा। उस महिला ने क्या कहा, युवक बिफर उठा, तुम्हारे में हिम्मत हो तो जहर खाकर मर जाओ। बच्चों को भी जहर खिला दो। मैं दूसरी शादी कर लूंगा। मुझे लगा नौजवान अपनी पत्नी से बात कर रहा है एवं उसे सुसाइड करने के लिए प्रोत्साहित कर रहा है। नासमझ! यदि वह सचमुच आत्महत्या करने से पूर्व कोई सुसाइड नोट लिख गयी तो दूसरी शादी के स्वप्न धूल में मिलने के साथ पूरी जवानी जेल में सड़ जाएगी। पत्नी के कुछ कहने पर युवक बोला, तुम झूठी, तुम्हारे मां-बाप झूे, तुम्हारा तो पूरा खानदान झूठा, पंडों के घर शादी किया हूं तो उसका फल भोगना पड़ेगा। सुन, तुमको वहीं सड़ना है। आठ-नौ महीने मैं तुमको लाने से रहा। रुद्रपुर गयी हो न! गर्मी में मर जाओगी। न इनवर्टर, न बिजली। कितनी बार समझाया, गर्मी में गोरखपुर रहो, जाड़े में सण्डीला। बात कुछ और साफ हो गयी। युवक का घर गोरखपुर, ससुराल रुद्रपुर एवं कार्यस्थल सण्डीला था। फोन पर बात बन्द हो गयी। थोड़ी देर बाद युवक उठा टायलेट चला गया और मैं पुन: सोने की कोशिश करने लगा। टायलेट से लौटकर वापस युवक अपनी सीट पर बैठ गया। मोबाइल का कार्ड कान में लगा गाना सुनने लगा। उसे कुछ ध्यान आया। किसी को फोन लगाया। निर्देश दिया, आज टेण्डर मिलने वाला है, सण्डीला चले जाओ। किसी का नाम लिया, उससे अपने मोबाइल पर बात करा देना। टेण्डर लेने से मना कर दूंगा। मुझे महसूस हुआ, टेण्डर मैनेज किया जा रहा है। युवक का मोबाइल फिर बजा। कुछ देर बात सुनता रहा। फिर उसने कहना शुरू किया- तुम्हारे बिना भी मेरे बच्चे पल जाएंगे। मेरे घर वाले बहुत अच्छे है। कल ही वर्मा जी कह रहे थे, तुम्हारा छोटा भाई बच्चों का बहुत ध्यान रखता है। तुमको क्या पता? दो दिन से स्कूल घूम-घूम करके पार्थ के एडमिशन कराने की बात कर रहा था। बड़ी मुश्किल से बच्चों को पाला जाता है। उधर से पत्नी ने फिर कुछ कहा। युवक बोला- तुम्हें मोबाइल एक-दो दिन में मिल जाएगा। फिर फोन काट दिया। तभी किसी दूसरे का फोन आ गया। युवक शुद्ध भोजपुरी में बात करने लगा, अपनी के गाड़ी देख लिहलीं। सुंदर लगती बा न। गाड़ी अपने चला के जइबैं। छोटू के चलावे के मत देवंै। अच्छा, सुनी रजिस्ट्रेशन में 5 अंक के जोड़ वाला नम्बर लेइब। जइसे 1823, कुल जोड़ के पांच। पांच हमार लकी नम्बर बा। फिर उसे कुछ याद आ गया। किसी को फोन लगाकर प्रणाम किया, रऊआ के धन्यबाद दिहल भूल गइल रहलीं। अरे, कामिनी कै मोबाइल न पहुंचवले खातिर धन्यबाद। लगा कुछ टांट मार रहा है। फिर हंसते हुए कहा, आज कल में कामिनी कै मोबइलवा भेजवा दिहल जाई। शायद उसकी पत्नी का नाम कामिनी था। गोंडा स्टेशन बीत चुका था। ट्रेन करीब आधे घंटे लेट हो चुकी थी। मैं युवक की बात सुनने में ऐसा तल्लीन था कि पेपर पढ़ना भूल गया। युवक के व्यक्तित्व का एक-एक पन्ना प्रत्यक्ष समाचार था। इसके सामने अखबारों में छपे समाचार फीके लग रहे थे। उसे मोड़कर अगली सीट के पाउच में रख दिया था। उसके मोबाइल की घंटी ने मेरा ध्यान पुन: उसकी ओर खींच लिया। कुछ देर तक फोन सुनने के बाद, वह कहने लगा, मेरे जैसा हसबैंड तुम सौ जन्म लोगी तब भी नहीं मिलेगा। मेरे जैसा केयरिंग पिता, बेटा, दामाद सौ जन्म में भी नहीं मिलेगा। कौन अभागा हसबैंड नहीं चाहेगा कि उसका परिवार उसके साथ रहे। यही सुनना चाहती हो न। मैंने तुमको इतना सुंदर हार खरीदकर दिया। तुमने एक बार भी थैंक्यू बोला? हरामखोर! अब उसको बक्से में रख देना। पहनना मत। कामिनी ने कुछ उत्तर दिया। शायद वह निरन्तर वार्तालाप जारी रखना चाहती थी। युवक खिसियाया जैसा लग रहा था, तुम्हारे घर वालों को दामाद की इज्जत करना भी मालूम है? मुझे पैसों का कोई लालच नहीं है, तुमको मालूम है। घर का दामाद हूं, फलदान चढ़वा रहे हैं, एक बार भी पूछा- कैसे क्या करना है? मेहमानों को खाना भी नहीं खिलाएंगे। छोड़ो तुम कुछ मत कहना। जैसा चाहें करें। मैं तो इनकी इज्जत बढ़ाना चाहता था। देखो तुम्हारे घर में केवल सन्नो ही सुलझी हुई है। उसी की मैं इज्जत करता हूं। फोन डिसकनेक्ट हो गया। सन्नो उसकी प्यारी साली है, यह भी मुझे ज्ञात हो गया। ट्रेन बाराबंकी पार हो चुकी थी। अभी लखनऊ पहुंचने में लगभग घंटे भर लगने की संभावना थी। इस बीच युवक की किसी दूसरे से मोबाइल बात शुरू हो गयी। युवक ने उसे दस-पन्द्रह मिनट में लखनऊ जंक्शन पर बुलाया। सुबह से कुछ नहीं खाने के कारण मुझे भूख लग गयी थी। ट्रेन के बादशाहनगर स्टेशन पर रुकते ही अधिकांश लोग उतर गये। मैं अपना ब्रीफकेस ऊपर से उतारकर दूसरी सीट पर बैठ बिस्कुट खाने लगा। मन उसी में उलझा था। उतरने से पूर्व मैं उस युवक के पास पुन: गया, माफ करना, किसी की बातों को सुनना या व्यक्तिगत जीवन में हस्तक्षेप करना अच्छी बात नहीं है। लेकिन, आप इतनी जोर-जोर से बातें करते रहे कि मैं सब कुछ सुनने के लिए मजबूर था। मेरी एक बात अगर बुरी न लगे तो कहूं? उसे ऐसी अपेक्षा नहीं थी। मैं दालभात में मूसलचंद था। उसके मौन को स्वीकृति समझते हुए मैंने कहा, तुम एक केयरिंग पिता, पति या पुत्र हो या नहीं, मुझे मालूम नहीं। कामिनी को तुम्हारे जैसा हसबैंड सौ जन्म में भी शायद न मिले, परन्तु तुम्हारी कामिनी सचमुच सहृदय, सहनशील एवं समझदार है, जो इतनी सारी लमतरानियों को निरन्तर सुनती रही और फोन करती रही। यदि वह आत्महत्या कर लेगी, ईश्वर न करे ऐसा हो तो तुम्हें इस कामिनी को पाने के लिए सौ जन्मों का इन्तजार करना पड़ेगा। ईश्वर तुम्हें सद्बुद्धि दे। मुझे लगा कि युवक को कुछ ग्लानि महसूस हुयी। उसने हथेलियों में अपना चेहरा छुपा लिया और सिसकियां भरने लगा। तब तक ट्रेन रुक चुकी थी। मैं स्टेशन पर उतर गया।
                      कर्मचारी राज्य बीमा निगम, पंचदीप भवन, सर्वोदय नगर कानपुर-208005

शनिवार, 13 अगस्त 2011

खामोशी में झरता है वियोग

  1. खामोशी  में   झरता है वियोग  ''    वरिष्ठ कवि क्रष्णकान्त  निलोसे  का अभी  हाल में प्रकाशित कविता संग्रह है    आज कल लिखी जारही कविताओं  में   बिलकुल भिन्न तरह की भाव भूमि पर रची गयी इन कविताओं में कवि ने  सात्विक प्रेम की भिन्न-- भिन्न द्रष्ट कोणो से व्याख्या की है . वियोग शब्द योग का विलोम है जिसका अर्थ है अलग - अलग . गणित शाश्त्र के नियम के  अनुसार दो सामान संख्याओं में योग होता है. असमान स्थितियों में योग नहीं होताहै. जीव और परमात्मा  में अंश औरअंशी का सम्बन्ध माना गया है. इस लिए इन के मिलन को योग औरविछोह को वियोग की संज्ञा दी गयी है. इसी आधार पर भारतीय मनीषा में अद्वत जैसा अनूठा शब्द जन्मा है इन कविताओंमें यही अद्वत  अनेक रूपों में पाठक के सामने आता है. प्रेम की सत्ता  को कवि निरंतर स्वीकारते रहे हैं . वही स्वीकारोक्ति इन कविताओं में भिन्न व्यंजनाओं में मिलती है कवि प्रेम को परिपक्व अवस्था का भाव मानता है जिसमे  मांसल हरियाली, इन्द्रीय सुख के लिए कोई जगह नहींहै. ऊपर से बहुत सहज  देखाई पड़ने वाले इस विषय पर कविता लिखना सरल काम नहीं .प्रेम किये बिना , प्रेम के सरोवर में उतरे बिना  इनका अर्थ नहीं समझा जा सकता . भक्ति को परिभाषित करते हुए महाकवि तुलसी नेलिखा था ' जिन यही वारी ना मानस धोये '' अर्थात जिन्होंने इससरोवर से दो अंजलि जल नहीं पिया वे खुछ न समझ पायेंगे , ठीक वैसी हीस्थिती  इन कविताओं कीहै. प्रेम की डगर पर चले तो बहुतेरे हैं पर इस डगर के अनुभव विरले ही करपाए हैं. इन कविताओं की भाव भूमि ऐसी मालूम  पड़ती है जैसे गम्भीर बारिश  के बाद झाड़ियों से टपकता पानी वातावरण की नीरवता को भंग करता हैऔर  भीगा हुआ वातावरण एक नई श्रष्टि का श्रजन करता है. ऐसी सर्जनात्मक  सम्भावनाओं से भरी पूरी हैं इस संकलन की कविताएँ  कवि लिखता है   '' प्रेम / गर होता/ समुद्र  सुखका/ तो लहरों की शिराओं  में/  समाया हुआ दुःख / क्यों पटकता रहता अपना सर/ बार - बार.'' एक उदाहरण और देखए ---- क्योंकि अपनी वाणी से परे / शब्दातीत / महसूस किया है उसे / प्रज्ञा में स्थित / भाव की गति शीलता  में/ '' कवि निलोसेअपने  आध्यात्मिक मिलन की ओर इशारा करते हुए लिखते हैं----' देह हो कर / हम तुम / मिले ही कब / औरकब देह हो हुए अलग.'' ये पंक्तियाँ ऋषि मार्कंडेय की याद दिलाती हैं दुर्गा सप्तसती में वेलिखते हैं कि हे आदि शक्ति माँ  तुम परमानंद विग्रह हो . अर्थातसंसार  रचने के लिए विधाता ने स्त्री और पुरुष  के रूप में अपना विभाजन किया . कवि निलोसे का प्रेम उसी शास्वत सत्य की ओर इशारा कटा है. गंभीर और चितन प्रवण इन कविताओं से गुजर कर पाठक अपने आप को एक अतीन्द्रीय लोक में पाता है. आज  जब कविता में कविता के शिवा सब कुछ लिखा जा रहा है ऐसे में कवि निलोसे की कविताएँ भरोशा दिलाती हैं कि संभावनाएं अभी शेष हैं . कवि क्रष्णकान्त निलोशे को इन सार्थक कविताओं के लिए बधाई .

रविवार, 7 अगस्त 2011

रचनाकर जो पाठक मंच इंदौर की गोष्ठियों में उपस्थित हुए


उपन्यास पर चर्चा आयोजित

पाठक मंच इंदौर ने लिखिका डॉ मीनाक्षी स्वामी की पुस्तक भूभल पर चर्चा आयोजित की . यह उपन्यास नारी की सामाजिक स्थिति पर केन्द्रित है लेखिका ने बड़े साहस के साथ इन विषयों को उठाया है . इस पुस्तक गोष्ठी में डॉ पुरुषोतम दुवे , डॉ जबाहर चौधरी , डॉ ॐ ठाकुर , डॉ कला जोशी, डॉ छाया गोयल डॉ हेमलता दिखित , श्री मोहन रावल , नियति सप्रे ,किसलय पंचोली   डॉ मीनाक्षी स्वामी    , ब्रजेश क़ानून गो , नन्द किशोर सोनी , चन्द्र भान भार्दुआज , गोपाल माहेश्वरी , प्रताप सिंह सोढी, देवेश त्यागी  श्याम यादव , बसंत जौहारी, कु. लवीना निनामा , रंजना फतेपुरकर , नंदनी जोशी और राकेश शर्मा ने भाग लिया . चर्चा का निष्कर्ष यह निकला  की क़ानून बना लेने , शिक्षा का  प्रचार कर लेने अथवा नारी के समर्थन में नारे लगा लेने से कोइ परिवर्तन होने वाला नहीं है . पूरा पुरुष समाज नारी के साथ अन्याई  नहीं है औरअत्याचारी  भी नहीं है . लेकिन नारी की देह और उसकी अस्मिता पर हो रहे निरंतर अन्यायों के विरुद्ध आवाज उठाने की जरूरत है . इसे जन जागरण के दुआरा ही दूर किया जा सकता है . उपन्यास अनेक विमर्शों को जन्म देता है . पठाक को सोचने के लिए मजबूर करता है .
चर्चा में भाग लेते लेखक


मंगलवार, 24 मई 2011

भारत भूषण के गीत



भारत  भूषण हिन्दी गीत के शीर्षस्थ कवि है. उन्होंने हिन्दी गीतमंच का लंबा और सार्थक  युग जिया है. भारत भूषण  से मैंने उनकी काव्य यात्रा के बारें में बात की. इस बातचीत के पहले भाग को आप यहाँ सुन सकते है.