सोमवार, 28 जून 2010

समुद्र और स्त्री -- भाग 2

निर्मम समाज में 
 अहंकार की बलबेदी पर 
कुरीतियों के कुठार से 
 रोज - रोज काटे  जाते हैं कंठ 
 और   चाढाई जाती है बलि 
असहाय स्त्री की 
 स्त्री और  नदी 
 समाज और समुद्र 
 में भेद नहीं है कुछ 
विचारों  ज़रा  
 अगर समुद्र से न मिलने जाये नदी
 और समाज में ममता हीन हो जाये स्त्री
 रक्षित  न रह सकेगा समुद्र
और हरीतिमा रहित
 कंकाल वट वर्क्ष सा
हो जाएगा  संसार
[ राकेश  शर्मा ]
                                       

रविवार, 27 जून 2010

समुद्र और स्त्री

[अभी गोवा  से लौटा हूँ ,आप जानते  हैं  की गोवा सुंदर जगह है वहां एक समुद्र है जिसके तट गोवा को छूते हैं ,एक और समुद्र है मदिरा ,का जिसमें गोवा डूबा  रहता है. खैर , आप को जब समय मिले वहां घूमने जरूर जाएँ . गोवा के सुन्दर बाघा बीच पर समुद्र को देख कर  कविता के  जो विचार आये उन्हें यहाँ दे रहा हूँ ]
                                                                
                     हे समुद्र
                   तुम्हें इस तरह इठलाता देख
                   सोचता हूँ
                    हर शोषक इठलाता है तुम्हारी  तरह .
                    नदी के अस्तित्व का शोषण कर 
                    तुम करते हो गर्जना 
                      तुमसे मिलने वाली हर नदी 
                   स्त्रीयत्व की विकलता से प्रेरित हो 
                   आती है तुम्हारे  आगोश में   
                   अपना सर्वश्व अर्पित कर तुम्हें 
                  फिर नहीं लौटी है दुबारा 
                   जैसे पुरुष के भुजपाश में आबद्ध स्त्री 
                  नहीं लौट पाती दुवारा नदी की भांति 
                  निर्भ्रान्त और कल -कल   करते हुए 
                  शायद इसीलिए तुम कहलाते हो नदीपति 
                  और पुरुष , पति परमेश्वर 
                 माना तुम्हीं देते हो नदी को जल कण
                उसकी सुंदर देह और मोहक रूप को 
                न जाने कहाँ छिपा लेते  हो तुम 
               तुम्हारी ये उल्ल्हाश तरंगें 
              आगोश में समाई नदियों की 
            असफल और अनवरत छ्टपटाहटें  हैं 
               तुम्हारी भीषण गर्जना के पीछे छिपा है 
                 नदी का आर्तनाद  और चीत्कार 
              ठीक उसी तरह जैसे 
              सती होने के लिए  मजबूर की गयी 
             स्त्री की दाहक पीड़ा को छिपाने के लिए 
            किया जाता था  भीषण शंखनाद और 
             घंटा -घड़ियालों का शोर 
              मत भूलो तुम्हारे अस्तित्व की रक्षा करती  है नदी  
              और पुरुष का जीवन श्रोत  होती है स्त्री   
                                          --------- राकेश  शर्मा

शुक्रवार, 25 जून 2010

एक लघु कथा

गाय अपने बछड़े को दूध पिलाने का प्रयास कर रही थी . ममता से भरी वह बछड़े को चाटती .      बछडा दूध पीने की कोशिश भी करता . मालिक ने बछड़े के मुहं पर मुसक बाँध दिया था इस कारण वह दूध पीने में असमर्थ  था .लेकिन  माँ की जिद थी की वह दूध पिए और बच्चे  की कोशिश थी वह कामयाब हो . परन्तु मानवक्रत व्यवधानों के कारण वे सफल न हो पा रहे थे . ममता से भरी वह माँ ना तो  हट रही थी और ना ही  वात्सल्यता से निहाल वह बछडा ही हार मान   रहा था . मैं उन दोनों के इस रूप को देखता रहा और सोचता रहा  की  आज संभ्रांत कहलानी वाली नारी अपने शिशुओं को स्तन पान कराएं ,इसके लिए विज्ञापन छपवाए जा रहे हैं  ,विश्व स्तर पर स्तन पान दिवस मनाया जा रहा है . इसके वाबजूद नारियां अपने सौन्दर्य बनाए रखने के चक्कर  में नव जात शिशुओं को स्तन पान नहीं   कराती . आप विचार करें की सभ्य कौन है ? वह पशु कहलाने वाली गाय या संभ्रांत कहलाने वाली वह नारी जो अपने बच्चों को उसके प्राक्रतिक अधिकार से वंचित रखती हैं . . 

मंगलवार, 15 जून 2010

ममता का कोई विकल्प नहीं है

संभ्रांत उन्हें कहते हैं जिनके वारे में भ्रान्ति हमेशा बनी रहे . संभ्रांत अक्सर ऐसे आवरण ओढ़ते हैं जिनके पीछे छिपा उनका असली रूप ज़माने के सामने नहीं आ पाता. सभ्रान्तों की बस्ती में सबसे अधिक सुखी होते हैं कुत्ते और दुखी भी होते हैं कुत्ते . अगर पाले गये तो सुखी वरना दुखी ही दुखी . ऐसी ही संभ्रांतों   की एक बस्ती में कुत्तिया ने जन्म दिया पांच पिल्लों को . कुछ दिन उन्हें  पाला पोसा  और फिर एक दिन किसी संभ्रांत की कार से कुचल दी गयी . अक्सर कुत्ते कुचल कर ही मरते हैं शहर  में,  गावों में ये संभावनाएं नही मिलती क्योंकि शायद वहां सम्भ्रान्त लोग कम होते होंगे . बरहाल कुत्तिया के मरने के बाद अनाथ हुए पिल्लों की देख =रेख कौन करता? संभ्रांतों की उस वस्ती में . सो मर गये वेचारे  जन्म लेते ही . जो काम अकेले एक कुत्तिया करती थी उसे पूरी संभ्रांत बस्ती  मिलकर भी न कर सकी . ममता का विकल्प कहां है ? [एक  लघु  कथा ]  ---  राकेश  शर्मा  

सोमवार, 14 जून 2010

आस्था का दीपक

इधर सूरज डूबने को होता उधर बूढी माँ अपने अँधेरे में डूबे कमरे में उजाला भरने की कोशिश  में लग जाती . दीप ढूढती ,तेल का प्रवंध करती और अपने कांपते हाथो से उसे वालती . दीपक कमरे के एक कोने में रखती और फिर थोड़ी देर आँखें बंद कर अपने अंदर ही कुछ ढूढती . आस्था का यह दीप किस अँधेरे का हरन करता . उस अंधरे का जो कमरे में  फैला  हुआ है या फिर उसका जो जीवन में व्याप्त है . सूरज के प्रखर प्रकाश में भी केवल आस्था का दीप ही है जो अंदर के अँधेरे   से लड़ता है .२१वी सदी का आदमी जो जीता है विजली की चाकाचौंध में परआस्था हजारों बल्वों के जलने से पूरी नहीं होती जो एक मिट्टी का दिया करता है . आज के आदमी की भी यह बेवशी है की उसके जीवन में बाहर खूब उजाला है अंदर घनी अंधरी अमावस रात . यह अंधेरी अमावास कैसे पूनम  में तब्दील हो यही विचारणीय है . काश कोई बूढी माँ हमारे मनो  में बैठे अँधेरे को दूर करने के लिए अपने कांपते हांथो से आस्था का एक  दीप जला कर रख दे . [ यह एक लघु कहानी है ]  राकेश शर्मा

गुरुवार, 3 जून 2010

चितवन फूल पलाश

श्री क्षेत्रपाल शर्मा , भारत सरकार ,श्रम मंत्रालय के अधीन संचालित  एसिक में वरिष्ठ अधिकारी हैं . वे एक अच्छे कवी और लेखक हैं . जैसा की हमारे यहाँ होता है की जिस आदमी को जहां होना चाहिए वह वहां नहीं होता .हिन्दी के अनेक समवेदन शील रचनाकार आजीवका की जुगाड़ में  ही अपनी सारी ऊर्जा खो देते हैं . इससे हिन्दी साहित्य को बहुत हानि हुई है . श्री शर्मा के साथ भी शायद भी ऐसा ही कुछ हुआ प्रतीत होता है ' उनकी कविताओं को देख कर यह साफ़ कहा जा सकता है की उनके पास एक  कवी मन है जो विषम  परिस्थितिओं में भी गुनगुनाता है ,  कविता की बाहं पकड जीवन की डगर चलना चाहता है . इस भीषण आर्थिक समय में आएये , मन की इस सम्वेदना  को बचाए रखने का प्रयत्न करते चलें शायद इसी के सहारे आदमी को मशीन बनने से बचाने में थोड़ी मदद मिल सके .  आज का समाज कविता से भले ही दूर भाग रहा हो परन्तु उसे अंत में शान्ति कविता की गोद में ही मिलेगी  . यह निश्चित है . यहाँ  श्री क्षेत्रपाल शर्मा का गीत दे रहा हूँ  . इसका आस्वाद लें . ----
  हॅंसी तुम्‍हारी चंदा जैसी,                  
चितवन फूल पलाश 1
बातें झरना यथा ओसकण
तारों भरा उजास 11
गुन-गुन भौंरों जैसे गाना,
और शरारत से मुस्‍काना 1
हौले-से, ही हमें चिढ़ाना
वादा कर फिर हाथ न आना 11
चमकाती लेकिन फिर भी हो
एक किरन की आस 11
जो भी दिन है साथ बिताए,
जस फूलों की घाटी में घर
नोंक-झोंक विस्‍मृत-स्‍मृति में,
एक क्षीरमय सुन्‍दर सर
मिलना तुम से तीरथ जैसा,
भूला - बिसरा रास 11


क्षेत्रपाल  शर्मा
-मो . 09711477046

बुधवार, 2 जून 2010

कला के लिए द्रष्टि जरूरी है , साधन नहीं

यदि कलाकार के पास द्रष्टि और साहित्यकार के पास कौशल हो तो साधन हीनता भी मार्ग की बाधा नहीं बनती . अभियास से दक्षता आती है . कल्पना के साथ कार्यान्वयन का समन्वय हो तो सर्जन में जान आ जाती है . शुभाष बोंडे की कलात्मक सोच का परिणाम आप देख रहे हैं . ऊपर दर्शाई गयी आक्रतियाँ  श्री बोंडे ने झाड़ू के कूदा  -करकट से बनायी  हैं . इस कला को श्री शुभाष ने ब्रूम आर्ट  नाम दिया है . आचार्य हजारी प्रसाद दूवेदी कहते थे की में रेट [बालू ] से भी तेल निकाल सकता हूँ बशर्ते बालू मेरे हाँथ लग जाए . साहित्य की
दुनिया में अनेक ऐसे लेखक हैं जिन्होंने शब्दों का घातातोप रचे  बिना , सरल और सहज शब्दों में काल जई रचनाएं की हैं . महाकवि तुलसीदास इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं .   सच्चे कलाकार की यही पहचान होती है . इन कला क्रतियों को आप भी देखें और इनका आनन्द लें  त्तथा कलाकार की भावनाओं को समझने का प्रयास हो तो बहतर होगा , प्रस्तुती .---राकेश शर्मा