रविवार, 23 अगस्त 2020

‘चट्ठी, कबूतर, शोसल मीडिया और साहित्य

 

‘चट्ठी, कबूतर, शोसल मीडिया और साहित्य
हर युग में आदमी अपने भाव दूसरों तक पहुँचाने के लिए विकल रहा है। आदिम अवस्था में पत्थर पर चित्र और अमर बनाने का उपक्रम करता रहा है। संस्कृत के महाकवि धोई ‘पवन दूतिका’ में पवन के द्वारा अपने मनोभाव भेजते हैं तो कालिदास के डाकिया मेघ बनते है। सम्यता को अगले सोपान में आदमी को सन्देश वाहक, हरकारा डाकिया बनाया जाता है। बाद में कबूतर के गले में चिट्ठी बाँधकर उससे मनुहार की जाती है कि कबूतर जाजा....। यह दृश्य बतलाता है कि सम्प्रेषण की बेबसी और उत्कंठा हर युग में निरन्तर बनी रही है। और जब तक धरती पर हाड-मास का बना यह आदमी रहेगा और जब तक उसके सीने में दिल धड़केगा तब तक वह अपनी भावनाओं को दूसरों तक पहुँचाने की की बेचैनी से न बच सकेगा। गणनाओं में युग और कल्प बदले, किस्से कहानियों के स्वरूप बदले लेकिन आदमी का हृदय ज्योें का त्यों मनोभावों से भरा रहा। 
जब तक वैज्ञानिक उपकरण न थे तब तक प्रकृति के उपादानोें से काम चलाया कभी पवन, कभी चिड़िया कभी बादल संदेश वाहक रहे। कोई पवन, चिड़िया और बादल इनते समझदार कभी नहीं रहे कि वे आदमी की भाषा, भावों को यथावत प्रेषित कर सके। लेकिन विचार पहुँचाने के कोई और उपाय जब थे ही नहीं तो आखिर आदमी करता भी क्या ?
इधर जब से विज्ञान ने संवाद के लिए ऐसे उपकरण खोजे हैं जो प्रकृति की धड़कनों पर सवार होकर भाव और विचारों को सहजता से सम्प्रेषित करते हैं। तब से सम्प्रेषणीयता तो सहज हो गयी, मगर विचारों में परिपक्वता प्रायः समाप्त हो गयी। इसीलिए सुधी साहित्य मर्मज्ञ विज्ञान के अवतरण के पूर्व और बाद के साहित्य को बाँट कर देखते हैं। यह ठीक भी है। प्रकृति के परिवेश में रहने वाले रचनाकारों को सहज सरल उपमाएं प्रकृति के आँगन में मिल जाती थी। आज रचनाकार का सान्ध्यि लौह युग से है। अतः उसकी भाव भूमियों से अन्तर आ गया। 
अब एक और अन्तर भविष्य में आने की संभवता (आशंका लिखना चाहिए) है कि बँटवारे का आधार कोरोना भी बन जाए। ईसा के पूर्व और बाद की तर्ज की तरह। कोरोना के बाद का जीवन ठीक पूर्ववत रहेगा, ऐसी संभावनाएं कम है और जब जीवन क्रम बदलेगा तो साहित्य तो बदलेगा ही। 
पुरानी पीढ़ी के रचनाकार इन दिनों लगभग भौचक्के है कि साहित्य में अनायास ये क्या हुआ। पहले कहीं कोई सौभाग्यशाली व्यक्ति कृषि बनता था। आज कोई दुर्भाग्यशाली ही होगा जो कवि न हो। इसे कविता का दुर्भाग्य या कविनुमा उन्हें जिन बेचारों का यह तक पता नहीं कि आखिर कविता किस चिड़िया का नाम है। फेसबुक, थाट्स ऐप जैसे माध्यम कविताओं से भरे हैं। पहले कविता के गुण ग्राहक देखकर कविजन काव्य पाठ करते थे। अब जो मिले उससे ही निपट लो। यहाँ तक तो ठीक उन्हीं पंक्तियों को प्रकाशित करवाने के लिए पत्रिकाओं के सम्पादकों के सम्पादकों को भेजना भी शुरू कर दिया गया। अब सम्पादकों की चुनौती है यह कि उस गूडे से क्या चुने और क्या छोड़े। अधैर्य इतना है कि इधर रचना भेजी उधर फोन संपादक को खबर कर दी गयी कि बताएं किस अंक में छाप रहे हो। शायद ही किसी समय में कविता के नाम पर इतना दुराचरण देखा गया हो। इन माध्यमों/कुपठित और प्रायः अपठितों से कपटपूर्ण यश प्राप्त लोग इतने भ्रम में होते है कि वे अमरत्व प्राप्त कवि हैं। 
रचना के मूल्यांकन की पूर्व निर्धारित प्रक्रिया ही ठीक है। रचने के बाद सम्पादक, पाठक, श्रोता तय करते थे कि रचनाकार के पाँव कैसी जमीन पर टिके हैं। उसी दिशा और दशा कैसी है ? मगर इन माध्यमों ने पुराने तरीकों को ध्वस्त कर दिया। प्रकाशन की सुविधाएं सरल उन्हें से किताबों की संख्या भी कोरोना के संक्रमण की तरह से बढ़ी। इन इलेक्ट्रानिक माध्यमों ने पाठक तो समाप्त ही कर दिया। 
प्रतीक्षा व्याकुलता जरूर पैदा करती है मगर आदमी को भीतर से धीरज रखने का गुण भी पैदा करती थी। प्रतीक्षा से रचना, रचनाकार, पाठक सभी पकते थे, धैर्यशाली बनते थे। 
एक तर्क यह दिया जा सकता कि इन माध्यमों पर लिखे गए का ध्यान ही न दिया जाए। इसे अनदेखा करना बुद्धमानी नहीं कही जा सकती। इस समय का मूल्यांकन इन्हें छोड़कर नहीं किया जा सकता, क्यांेकि नई और पुरानी पीढ़ी की बड़ी संख्या इन माध्यमों पर उपस्थित है। यह बात अलग है कि इस घमासान में नीर-क्षीर विवेक संभव नहीं है।