बुधवार, 9 मार्च 2011

मोबाइल से कुछ सीखें

                   मोबाइल के घर
                                      जब भूल  से  भी आता है कोई 
                             प्रसन्नता से जग -- मग
                                हो उठती  है उसकी काया
                                   मेहमान के आने की खुशी
                              गा गा कर  सुनाता वह
                           महानगर के निवासी
                                    संभ्रांत कहे जाने वाले हम
                                                बुझे चहरे और सरगम हीन भाषा में
                                      अतिथि का करते हैं स्वागत 
                            क्या मोबाइल  से हम
                                          स्वागत संस्कार सीख सकते हैं

शनिवार, 5 मार्च 2011

भारतीय समाज के निर्माण में साहित्य की भूमिका ---------


 विचार रखते हुए आलोचक डॉ क्रष्णदत्त पालीवाल
 भारतीय समाज के निर्माण में साहित्य की सबसे बड़ी भूमिका है , हमारा समाज आज साहित्य से दूर भागता हुआ भले ही दिखाई पड़े परन्तु वह साहित्य के बिना अपना काम नहीं चला सकता . आज भी उसके सभी संस्कार साहित्य से ही पूरे होते हैं .स्वतंत्रता आन्दोलन  के समय राष्ट्रीय भावना जागृत करने में साहित्य की सबसे बड़ा योगदान है . साहित्य केवल भाषा और शब्दों का खेल नहीं है . साहित्य की परिध में किसी भी राष्ट्र के पेड़ , पहाड   , नदियाँ , जंगल ,पशु , चिड़िया , जड़ जंगम , चेतन      वनस्पतियाँ , खान  पान , वेश  भूषा आदि सभी आते हैं  . इन सबसे मिलकर जो चीज बनती है वह साहित्य की नजर में वह सब राष्ट्रीय  धरोहर है . एक युग चेतना सम्पन्न लेखक ,कवि , आलोचक . मानवीय समाज के साथ  साथ इन सबकी चिंता  भी करता है . हिंदी साहित्य में राष्ट्रीय स्वर विषय पर डॉ क्रष्णदत्त  पालीवाल ने इंदौर में एक अविस्मरनीय भाषण दिया वे धर्मपाल शोध पीठ भोपाल दुआरा आयोजित एक प्रसंग पर इंदौर आये   थे . हरिश चन्द्र और उनके बाद के सभी युगों में हिन्दी के अनेक रचना कारों ने राष्ट्रीय चेतना को पुष्पित और पल्लवित करने वाला साहित्य रचा है . आज के साहित्यकार का यह कर्तव्य है की वह एस परम्परा का निर्वाह करता रहे . साहित्य के सामाजिक सरोंकारों पर डॉ पालीवाल ने अनेक प्रसंग श्रोताओं के सामने रखे .

बुधवार, 2 मार्च 2011

साहित्य वही है जो अपने समय से झूझता है


श्री सुखदेव सिंह कश्यप की पुस्तकों के विमोचन अवसर का द्रश्य

 साहित्य की सत्ता अपनी जगह स्वतंत्र है .साहित्य का सच राजसत्ता के सच से हमेशा अलग रहता है . समाज के सच के बहुत पास तक जाता साहित्य का सच, परन्तु वह समाज के सच के साथ हमेशा हाँ में हाँ मिलाये यह जरूरी नहीं . धर्म का सच साहित्य की द्रष्टि  में खंडित सच है इस लिए साहित्यकार धार्मिक होते हुए अपनी तरह विद्रोही भी होता है . जब कोई साहित्यकार धर्म के पास जाता है तो केवल साहित्यिक कारणों से ही जाता है न क़ि अंध विश्वासी होकर और न ही धर्म के सच को प्रचारित और प्रसारित करने के उदेश्य के साथ  . मूल अर्थों में वह आध्यात्मिक अधिक होता है , धार्मिक कम . धर्म , समाज और राज सत्ता के त्रिकोण के बीच साहित्य अपने सच के साथ उपस्थित रहता है . जनता का सच सुनकर  भगवान  राम   जो सत्तासीन हैं . अपनी पत्नी सीता का परित्याग किया  .इस घटना पर धर्म अपनी तरह रियक्ट होता है लेकिन एक साहित्यकार  जो वाल्मीक  के रूप में मौजूद है . वह जनता , राज सत्ता  और धर्म के सच की परवाह किए बिना सीता के साथ हुए अन्याय के विरुद्ध खड़ा होता है . और जो पुस्तक रचता है वह रामायण बन जाती है .  लगभग यही बात महाभारत में भी घटित होती है , वेद व्यास अपने समय के सारे सच को संजय की आँखों से देखते हैं और अंधी राज सत्ता को पूरा सच दिखाते हैं .जो न केवल महाभारतबल्कि हर युग के आदमी के लिए गीता के रूप में प्रेरणा  दाई बन जाता है  साहित्य मूल रूप से सत्ता  के विरुद्ध ही खड़ा होता है . इस लिए साहित्य के नाम पर जितने भी वाद चलाए गए बे सब इस लिए विफल हुए क्योंक़ि उनकी आधार  शिला  साहित्य की जमीन और जमीर पर आधारित नहीं थी ये आन्दोलन राजनीत से प्रेरित थे  बल्कि कह सकते हैं के राजनीत की जलवायु वाले पौधे को साहित्य की जमीन पर रोप कर फल प्राप्त करने की कोशिश  की जा रही थी इसलिए इनका यही परिणाम होना था . साहित्य और एक साहित्य कार को हमेशा अपने निज धर्म की तलाश में रहना चाहिए जिसकी चाह मुक्तिबोध के शब्दों में इस तरह है

   रचनाकार वही ठीक है जो समाज में व्याप्त विद्रूपताओं के विरुद्ध लिखता है और अपने आचरण से समाज को प्रभावित भी करता है . [कल १ मार्च २०११ को इंदौर के वरिष्ट रचनाकार श्री सुखदेव सिंह कश्यप की दो पुस्तकों  'चर्चा आज की ' और प्रजातंत्र के आईने में कविता ' का विमोचन हुआ , श्री सुख देव सिंह कश्यप निरंतर लेखन  करने वाले लिखकों में हैं . सरल और समयानुकूल लेखन उनकी विशेषता  है . इन पुस्तकों में हमारा समय बोलता है    विमोचन अवसर पर मैंने जो जो विचार व्यक्त किये हैं उन्हीं के कुछ  कुछ अंश ऊपर दिए  गये  हैं  ]इस अवसर पर श्री सत्य नारायण सत्तन ,चन्द्र सेन विराट,सूर्य कान्त नागर,जस्टिस वीरेन्द्र दत्त ज्ञानी,सुरेश सेठ ,हरेराम बाजपेई उपस्थित थे .