शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

आचर्य रजनीश की जुबानी


एक अंधेरी रात में मैं आकाश के तारों को देख रहा था । सारा नगर सोया हुआ था । उन सोये हुए लोगों पर मुझे बहुत दया आ रही थी । वे विचारे दिन भर की अधूरी वासनाओं के पूर्ण होने के स्वपन ही देख रहे होंगे । सुवप्न में ही वे जागते हैं , और सुवप्न में ही सोते हैं न वे सूर्य को देखते हैं , न चाँद को न तारों को । वस्तुतः जो आखें स्वप्न देखती हैं ,वे उसे नहीं देख पातीं । सत्य को देखने के लिए आखों से सुव्प्न को दूर हटाना पड़ता है
रात्री जैसे -जैसे गहरी होती जाती थी , वैसे -वैसे आकाश मैं तारे बड़ते जाते थे । धीरे - धीरे पूरा आकाश ही उसमें जगमग हो उत्ता था । और आकाश ही नहीं , उनके मौन सौन्दर्य से मैं भी भर गया था । आकश के तारों को देखते -देखते क्या आत्मा का आकाश भी तारों से नहीं भर जाता ?वस्तुता मनुष्य जो देखता है , उसी से भर जाता है । क्षुद्र देखने वाला क्षुद्र से भर जाता है , विराट को देखने वाला विराट से । आखें आत्मा के दुआरे हैं ।
मैं एक पेड़ से टिका आकाश मैं खोया ही था की तभी किसी ने पीछे से आकार मेरे कंधे पर अपना तंडा और मुर्दा हाथ रख दिया । उसकी पग ध्वनियाँ भी मुझे सुनाई पड़ी थीं । वे ऐसी नहीं थी ,जैसी किसी जीवित व्यक्ति की होनी चाहिए , और उसका हाथ तो इतना निर्जीव था की अँधेरे में भी उसकी आँखों में भरे भावों को समझने में मुझे देर न लगी । उसके शरीर का स्पर्श उसके मन की हवाओं को भी मुझ तक ले आया था । वह व्यक्ति तो जीवित था और युवा था , लेकिन जीवन कभी का उससे विदा ले चुका था , और यौवन भी सम्भवता उसके मार्ग पर अभी आया ही नहीं था।
हम दोनों तारों के नीचे बैठ गये थे । उसके मुर्दा हाथो को मैंने अपने हाथो में लेलिया था , ताकि वे थोड़े गर्म हो सकें , और जीवन -ऊष्मा भी उनमें प्रवाहित सके । सम्भवता वह अकेला था । और प्रेम उसे जिला सकता था ,निश्चय ही ऐसे समय में बोलना उचित नही था सो मैं चुप ही रहा । ह्रदय मौन में ही ज्यादा निकटता पाटा है । और शब्द जी घावों को नहीं भर सकते मौन उन्हें भी स्वस्थ करता है । शब्द और ध्वनियाँ तो पूर संगीत में बिघ्न और वधाएं हैं । रात्री मौन थी , और मौन हो गयी । उस शुन्य संगीत ने हम दोनों को घेर लिया था । वह अब मुझे अपरचित नहीं था । । उसमें भी मैं ही था । जड़ता टूटी और उसके अशुओं ने खबर दी की वह पिघल रहा था । वह रो रहा था । ओर उसका सारा शरीर कांप रहा था । उसके ह्रदय में जो हो रहा था , उसकी तरंगें उसके शरीर तन्तुओं तक आ रहीं थी वह रोता रहा------ रोता रहा----रोता रहा और फिर बोला ; मैं मरना चाह्ताहूँ । मैं अत्यंत निर्धन और निराश हूँ । मेरे पास कुछ भी तो नहीं है ।
मैं थोड़ी देर और चुप रहा ओर फिर धीरे - धीरे मैंने उससे एक कहानी कही -मैंने कहा -- मित्र मुझे एक कथा स्मरण आती है । एक फ़कीर से किसी युवक ने जाकर कहा । 'परमात्मा ने सब कुछ मुझ से छीन लिया है । म्रत्यु के अतिरिक्त मेरे लिए अब कोई मार्ग नहीं है ।क्या वह युवक तुम ही तो नहीं हो ?

उस फ़कीर ने युवक से कहा ; मैं तो तेरे पास छिपा हुआ एक खजाना देख रहा हूँ । क्या उसे बेचोगे ?उसे बेच दे तो तेरा सब काम बन जाये । और परमात्मा की बदनामी भी न होगी .तुम वह युवक हो या नही , पता नही लेकिन फकीर मैं वही हूँ और लगता है की कहानी फिर से दुहरा रही है । वह युवक हैरान हुआ था और शायादतुम भी हैरान हो । उसने पूछा था खजाना मेरे पास तो फूटी कौड़ी भी नहीं है ' इस पर फ़कीर हंसने लगा और बोला : "चलो मेरे साथ बादशाह के पास चलो बादशाह बड़ा समझदार है । छिपे खजानों पर उसकी सदा से ही नजर रही है । वह जरुर ही तुम्हारा खजाना खरीद लेगा ।
वह युवक कुछ भी नहीं समझ पा रहा था । उसके लिया तो फकीर की सारी बातचीत ही पहेली थी । लेकिन फिर भी वह बादशाह के महल के तरफ चला । मार्ग में फकीर ने उससे कहा ; कुछ बातें पहले से ही तय कर लेना आवश्यक है ,ताकि बादशाह के सामने कोई झन्झट न हो । वह बादशाह ऐसा है की जो चीज उसे पसंद हो फिर किसी भी मूल्य पर छोड़ता नहीं है । इसीलिए यह भी जान लेना जरुरी है की तुम उस चीज को बेचने को राजी भी हो या नही ? वह युवक बोला :कौन सा खजाना ?कौन से चीजें ?फकीर ने कहा की जैसे तुम्हारी आखे । इन का क्या मूल्य लोगे ?मैं ५० हजार तक बादशाह से दिला सकता हूँ । क्या यह रकम पर्याप्त नहीं है ?या जैसे तुम्हारा ह्रदय या दिमाग , इनके लिए -एक लाख मिल सकते हैं । वह युवक हैरान हुआ और अब लगा की फ़कीर पागल है । बोला क्या आप पागल हो गए हैं ?आप यह क्या कह रहे हैं ? मैं इन्हें किसी भी मूल्य पर नहीं बेच सकता । और मैं ही क्या कोइ भी नहीं बेच सकता । फ़कीर हंसने लगा और बोला -- मैं पागल हूँ या तू । जब तेरे पास इतनी बहुमूल्य चीजें हैं , जन्हें तू लाखों मैं भी नही बेच सकता , तू झूट में निर्धन क्यों बनता है ? जो खाजाना उपयोग नहीं आता वह भरा हुआ भी खाली है और जो उपयोग में आता है खाली भी हो तो भर जाता है । परमात्मा खजाने देता है , अकूत खजाने देता है , लेकिन इसे खोजना और खोदना स्वंम ही पड़ता है । जीवन से बड़ी कोई सम्पदा नहीं है । जो उसमे ही संपदा नहीं देखता ,वह सम्पदा कहाँ पा सकता ?रात्री आधी से ज्यादा बीत चुकी थी । मैं उठा और मैंने उस यूवक से कहा - " जाओ और सो जाओ । सुबह एक दूसरे ही व्यक्ति के भांति उठाना । जीवन वैसा ही है जैसा हम उसे बनाते है । वह मनुष्य की अपनी रचना है । उसे हम म्रत्यु भी बना सकते है और अमृत भी । सब कुछ स्वयं के आलावा और किसी पर निर्भर नहीं है । फिर म्रत्यु तो अपने आप आएगी । उसे बुलावा देने की ज़रूरत नहीं । बुलाओ अमृत को । पुकारो परम जीवन को । वह तो श्रम से , शक्ति से , संकल्प से और साधना से हे मिल सकता है । " { ओशो - मिटटी के दिए से साभार }

सोमवार, 26 अप्रैल 2010

आज की विसंगतियों को उजागर करती पुस्तक


किसी पुस्तक का मूल्यांकन करते समय यह जरूर देखा जाना चाहिए की लेखक ने अपने समय के साथ न्याय किया है या नहीं । कवि श्री चन्द्र सेन विराट की सद्यः प्रकाशित पुस्तक '' कुछ मिश्री कुछ नीम '' में ४११ मुक्तक हैं । आज के समय की चिताओं में बाजार , नारी विमर्श , शहर का जीवन और इससे उपजने वाले अनेक तरह के संत्रास आते हैं । कवि विराट ने एन सब पर कलम चलाई है । बाजार के प्रभाव पर वे लिखते हैं --''रात अंधियारे में विकाऊ है / दिन के उजयारे में विकाऊ है /नीट , ईमान और धर्म कला / क्या न बाजार में विकाऊ है । '' वे आगे लिखते हैं --'' जुर्म की मार का तरीका है/क्रूर बाजार का तरीका है /बिकती है मौत की सुपारी /यह भी बाजार का तरीका है । '' इसी तरह और भी --''देह व्यापार से बड़ा क्या है /वस्तु विस्तार से बड़ा क्या है/चीजें महगी हैं ,आदमी सस्ते / आज बाजार से बड़ा क्या है । '' बाजार में यूँ तो सब विका है किन्तु सबसेअधिक नारी की देह विज्ञापित हुई है । इस पर कवि की चिंता देखिये ---''खूब धंधे में कमाई पूंजी /और पूंजी से बडाई पूंजी /जिस्म औरत का करके उजागर / इस्तहारों से कमाई पूंजी । '' आज के शहर का आदमी ---'' ज़िंदा लोगों का सघन जंगल है / जिन्दा रहना ही बड़ा कौशल है/ जब शर से ना मेरा ख़त आये / तुम समझना की कुशल मंगल है । '' इसी तरह रोज मर्रा के स्वप्न बुनता है /शहरी पैसे का गणित गुनता है /कूक कोयल की कहाँ शहरों में /चीख हार्नों की विवश सुनता है । ''

इस पुस्तक में कविने कविता पर तरह -तरह से अपनी बात रखी जो उसके निरंतर बड़ते अनुभव का प्रमाण है वह लिखता है --'' देह की सिर्फ न /मन की पीड़ा / टीक शव्दों के कहन की पीड़ा / जिसने भोग है वही समझे गा /कैसी होती है सर्जन की पीड़ा । '' इसी तरह का एक और उदाहरण देख लें --''शव्द में ताप उतर आता है/जो कहे उसमें असर उतर आता है / आते -आते ही कई बर्षों में शेर कने का हुनर उतर आता है । ''

हमारे समय के अनेक पक्षों पर कवि विराट ने इस पुस्तक में मुक्तक लिखे हैं । '' समानांतर पब्लिकेशन तराना , उज्जैन से प्रकाशित इस पुस्तक का मूल्य रु २५० है । समीक्षा ---- राकेश शर्मा

शनिवार, 24 अप्रैल 2010

कविता छंद में लिखी जानी चाहिए

अपने पुस्तकालय में श्री सूर्य प्रसाद दीक्षित
विगत दिनों डॉ सूर्य प्रसाद दीक्षित के प्रवास पर थे । साहित्य परिषद् के तत्वाधान में दिनक २० अप्रैल २०१० को उनका एक व्याख्यान हुआ था .इसके कुछ अंश यहाँ दिए जा रहे हैं । पाटकों को श्री सूर्य प्रसाद जी का परिचय देना में जरूरी समझ रहा हूँ ----- श्री दीक्षित के अब तक १०० से अधिक ग्रथ प्रकाशित हैं । १०० से अधिक छात्रों ने उन पर पी एच ड़ी कीउपाधी अर्जित की है । देश विदेश में अब तक उनके ३०००से अधिक विख्यान आयोजित हुए हैं । प्रयोजन मूलक हिंदी को विश्व विद्यालाओं में लागू करवाने के लिए उन्होंने सबसे पह्के प्रयास किये हैं। इसी का यह परिणाम हुआ की आज दश के ७० से ८० विश्व विद्यालयों में प्रयोजन मूलक हिंदी पढाईजा रही है । इंदौर के व्याख्यान में श्री दीक्षित ने हिंदी और इसके साहित्य के मौजूदा स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए कहा । आज पूरी दुनिया के लोगों का अंतर्मन बदला है । इसका सबसे बड़ा कारन अर्थ का बड़ता प्रभाव है आदमी से आदमी की दूरी निरंतर बड़ रही । जीवन से प्रेम और करुना के भाव निरंतर कम हो रहे हैं । आदमी की जीवन प्रवृतियों कीछाया साहित्य पर आती है । निरंतर बदलते परिद्रश्य ने भाषओंऔर सहित्य के सामने अनेक संकट खड़े किये हैं । मनुष्य की विलासी आदतों ने न केवल मानवीय संबंधों को खत्रू में डाला है बलिक प्रकृति का असितित्व भी संकट में है । ग्लोव्लिजेशन के चलते सबसे बड़ी चुनौती हमारी जातीय पहचान के लिए पैदा हो रही है । चिंताएं की जा रहीं की वैश्विक ग्राम में हमारी भाषाएँ और साहित्य बचे गे भी या नहीं । खतरा तो है पर इसके लिए जरूरी चिंतन की आवश्यकता है चिंता की नहीं । हमें अपने जीवन मूल्यों पर विश्वास करना चाहिए । भारत्या जीवन मूल्य कविता में सबसे अधिक संरक्षत हुए हैं । गीता , रामायण आदि सभी ग्रन्थ अपने दार्शनिक भाव और छंद की लयता के कारण ही आम जनता को आज तक याद हैं । सोचना होगा की आज कविओं की संख्या तो बड़ी हुई है लेकेन जनता इनका नोटिस नहीं ले रही है । आज के नीरस हो रहे आदमी के जीवन में सरसता लानें के लिए कविता को चंद में लिखनें की बहुत जरूरत इसका मतलब यह नहीं है की वर्तमान समय की वास्तविकताओं की अनदेखी की जाए । यूँ तो पूरी दुनिया का आदमी साहित्य के सरोंकारों से दूर हुआ है । पर भारत एस दौड़ में सबसे आगे है । यह चिंता का सबसे बड़ा कारन है । आजादी मिलती ही देश में धन वान बनाने की भूख जाग उठी जो गुलामी के समय में दबी हुई थी । पहले चरण में यह दौड़ एक जरूरत थी पर अब यह एक हबस बन चुकी है । धन वान बनाने की इच्छा रखना कोई बुरी बात नहीं है । लेकेन धन के लिए अपना सबकुछ दांव पर लगा देने का अंधापन बुरा है। साहित्यकार की भूमिका यहीं से शुरू होती है वह इनका विरूद्ध करे । एस विरोध में उसे सत्ता से लड़ना भी होगा । आज का सच यह भी है की पुरुस्कारों की भूख के कारन लोग सच का सामना करनें से डरते हैं इसका परिणाम यह होता की जमानें का सच लेखे जाने से बच जाता है । आम आदमी की पक्ष धरता , गरीबों , मजदूरों महिलाओं के अधिकारों पर कविताई करने का दम्भ भरने वाले लोग आज जनता के सामने निरर्थक शिध्ध हुए हैं । आम जन की बात करने वाले लेखक बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का विरोध करने से बचते फिर रहे हैं । यह उचित समय है जब साहित्य को मूल धरा में लाने के लिए कोशिशें की जानी चाहिए । अभी सब कुछ समाप्त नहीं हो गया । हमें मंगल आशा नहीं छोडनी चाहिए ।और भारतीय मूल्यों पैर आस्था रखनी चाहिए । विश्वास रखिये की विश्व गाँव में भी आप की पहचान शेष रहने वाली है । एस अवसर पर श्री क्रष्ण कुमार आस्थाना , डॉ जवाहर चौधरी , चन्द्र सेन विराट वकास दावे गोपाल महेश्वरी टी ल शर्मा आदि उपस्थित थे । रिपोर्ट ------ राकेश शर्मा

कार्यक्रम रिपोर्टें

विश्व पुस्तक दिवस पर एक सार्थक आयोजन
२३ अप्रैल विलियम शैक्सपियर का जन्म दिन है । इस महान रचनाकार को याद करने के लिए पुस्तक प्रेमी इसे पुस्तक दिवस के रूप में मानते हैं । इंदौर की तीन संस्थाओं स्पर्श ; शाव्दानुभूति ,अहिल्या केंद्रीय पुस्तकालय, शिक्षक संचेतना , और इंदौर संभाग पुस्कालयसंघ ने मिल कर एक आयोजन किया । इस आयोजन में कुछ रचना कारों ,पुस्तक प्रकाशकों , शिक्षकों को सम्मानित किया गया । भारतीय चित्र कला पर श्री नर्मदा प्रसाद उपाध्य का मार्मिक उदबोधनहुआ । श्री नर्मदा प्रसाद उपाध्य सुविख्यात ललित निबंधकार और विश्व प्रशिध कला मर्मज्ञ और एक कुशल प्रसाशक भी हैं । आप भारतीय चित्र कला के बारे में और अधिक जानने के लिए श्री ऊपाध्याय की वेबसैट देख सकते हैं । प्रोजेक्टर की मदद से उन्होंने भारतीय कला के अनेक पक्षों को सामने रखा । एस अवसर पर विख्यात चित्रकार और कहानीकार श्री प्रभु जोशी, श्री ईश्वरी रावल ,मौजूद थे अनेक साहित्यकार जैसे प्रभु त्रिवेदी , नरहरी पटेल ,सदाशिव कौतुक , संदीप रासिनकर,और हरे राम बाजपेयी उपस्थित थे । कार्यक्रम के दो प्रेरणा पुरुष और सूत्रधार थे डॉ जवाहर चौधरी और डॉ जी डी अग्रवाल । सहयोगी आयोजकों में शामिल थे श्री प्रदीप शुक्ल , अनिल ओझा , राकेश शर्मा । उपस्थित जनों ने यह मांग की इस तरह के आयोजन निरंतर होने चाहिए जिससे लोगों में पुस्तकों के प्रति प्रेम बढेगा हो । यह सच है कि आज लोगों का मन अध्ययन से दूर हुआ है इसके लिए प्रयास किये जाएँ। यह बहुत जरूरी काम है । इस अवसर पर कवि मुरलीधर की कविता प्रसंगानुकूल रही इसे आप भी देख लें --- कोई मशीन सोना नहीं उगलती / सोना उगलती हैं किताबें / भीतर भीषण प्रश्न खड़े हैं/ उत्तर उगलती हैं किताबें / नालंदा मिट गया /तक्षशिला शेष नहीं / वह सब कभी था / असल हैं किताबें / जो भी बोया है इतिहास में हमनें /उसी की फसल हैं किताबें --------रिपोर्ट -----राकेश शर्मा

बाएं से दाएं{ऊपर}-श्री रामवरन यदव,श्री मनीष  जैन,सु.श्री मनीशा शर्मा एवं लता बाजपेयी
बाएं से दाएं{नीचे}-डा.पी.डी.अग्रवाल,नर्मदाप्रसाद उपाध्याय,राकेश शर्मा,शुशीला मोतिवाले एवं डा.जवाहर चौधरी ।

शनिवार, 17 अप्रैल 2010

हिंदी और महात्मागांधी

भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में गांधीजी का पदार्पण 1915 में हुआ। इससे पूर्व राष्ट् गुलामी की जंजीरों को तोड़ने के प्रयास कर चुका था। सन् 1857 की महान क्रांति के असफल हो जाने के बाद स्वतंत्रता संघर्ष अन्तर्मुखी हो चुका था। जनता अंग्रेजी राज्य से छुटकारा चाहती थी। जनता की भावनाओं की छाया साहित्य में प्रतिध्वनित हो रही थी। भारतीय समाज अनेक तरह के अनुभवों और संत्रसों से गुजर रहा था। सामाज का आन्तरिक संघर्ष और अधिक संगठित और पैना हो रहा था। इस संघर्ष को व्यक्त करने के लिए हिन्दी भी नए स्वरूप में ढल रही थी। सन् 1918 तक हिन्दी साहित्य में भारतेन्दु बाबू हरिशचन्द का युग समाप्त हो चुका था और आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी सरस्वती पत्रिका के द्वारा हिन्दी भाषा के नवनिर्माण में पूरी तरह लगे हुए थे। मध्य भारत में हिन्दी के व्यापक प्रचार को पूरा करने के लिए होलकर नरेश के मार्गदर्शन में सर सेठ हुकुमचन्द जैसे धनवान महापुरूषों ने इन्दौर में श्री मध्यभारत हिन्दी साहित्य समिति का संचालन शुरू कर दिया था। सन् 1918 में इसी समिति के तत्वावधान में साहित्य सम्मेलन प्रयाग का 8 वां अखिल भारतीय अधिवेशन आयोजित हुआ। अधिवेशन की अध्यक्षता करने के लिए पहली बार इन्दौर आए। इन्दौर रेल्वे स्टेशन पर उनके स्वागत के लिए सर सेठ हुकुमचन्द सरजूप्रसाद तिवारी जैसे महानुभाव उपस्थित हुए। इन्दौर रेल्वे स्टेशन पर आज भी वह स्थान सुरक्षित है जहाओं रेलगाड़ी गांधी से उतरकर खडे़ हुए थे। इन्दौर में सभा की अध्यक्षता करते हुए उन्होंने कहा- भाषा का मूल करोड़ों मनुष्य रूपी हिमालय से मिलेगा और उसमें ही रहेगा। हिमालय से निकलती हुई गंगाजी अनन्तकाल तक बहती रहेंगी ऐसे ही हिन्दी का गौरव रहेगा। गाॅंधी का मनतव्य था कि राष्ट्र संचालन के लिए वही भाषा श्रेष्ठ है जो आम जनता की भाषा हो और यह शक्ति हिन्दी में है। सन् 1918 में गाॅंधीजी का भाषा चिन्तन उस स्तर पर पहुॅंच चुका था कि भारतवासियों के लिए हिन्दी और उनकी प्रान्तीय भाषाएं बहुत जरूरी हंै। भाषा और स्वराज्य गाॅंधीजी के लिए दो अलग-अलग बातें नहीं थीं। इन्दौर की इसी सभा में उन्होंने कहा- ’’ मेरा नम्र लेकिन दृढ़ अभिप्राय है कि जब तक हम भाषा को राष्ट्रीय और अपनी अपनी प्रान्तीय भाषाओं में उनका योग्य स्थान नहीं देंगे, तब तक स्वराज्य की सब बातें निर्थक हैं।’’ यह बात गाॅंधीजी ने सन् 1918 में कही थी यानी आज से 90 वर्ष पूर्व लेकिन भाषा से जुड़ा यह प्रश्न आज भी पूरे उत्तर की मांग कर रहा है। आज भी हिन्दी समेत प्रान्तीय भाषाएं अपना स्थान मांग रही हैं। गाॅंधाजी जानते थे कि केवल अंग्रेजी से राष्ट्र के आमजन को वाणी मिल सकेगी इसी सभा में उन्होंने कहा- अंग्रेजी का ज्ञान कितने भारतवासियों के लिए आवश्यक है। लेकिन इस भाषा को उसका उचित स्थान देना एक बात है, उसकी जड़ पूजा करना दूसरी बात।1918 में भाषाई परिदृष्य में गाॅंधीजी को अंगे्रजी के प्रति लोगों का समर्पण उसकी जड़ पूजा मालूम पड़ती थी। इसीलिए वे देश की आजादी को भाषाई आजादी के साथ जोड़कर देखते थे।जी हिन्दी के लिए अपने स्तर पर तो लड़ ही रहे थे साथ साथ वे देश के उन महान लोगों के साथ पत्र व्यवहार भी कर रहे थे कि हिन्दी को राष्ट्रीय आंदोलन के साथ जोड़कर उसे और अधिक व्यापक बनाकर राष्ट् भाषा के रूप में मान्यता दी जाए सन् 1918 में ही उन्होंने ठाकुर रवीन्द्र नाथ टैगोर को पत्र लिखा जिसमें उन्होंने हिन्दी को राष्ट्र भाषा के रूप में स्थापित करने के लिए प्रयासों का उल्लेख किया जिसका उत्तर देते हुए ठाकुर रवीन्द्र नाथ टैगोर ने लिखा -निःसंदेह अंतप्र्रांतीय व्यवहार केे लिए हिन्दी ही एक मात्र राष्ट्र भाषा हो सकती है सन् 1918 से लेकर 1935 के बीच के कालखण्ड में आजादी के आन्दोलन में अनेक उतार-चढ़ाव आए। इस दौर में देश के उद्योगपति भी भाषा के व्यापक प्रचार-प्रसार में लगे हुए थे। गाॅधीजी आन्दोलन का केन्द्र बने हुए थे। राष्ट्रीय आन्दोलन को चलाते हुए उन्होंने हिन्दी के महत्व को हमेशा ध्यान में रखा। सन् 1935 में हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग को 24 वां अखिल भारतीय अधिवेशन इन्दौर में आयोजित हुआ। इन्दौर के हिन्दी के पक्षधरों ने एक बार फिर से गाॅंधीजी को सम्मेलन की अध्यक्षता के लिए बुलाया। राष्ट्रीय आन्दोलन का संचालन करते हुए गाॅंधीजी हिन्दी के महत्व को पूरी तरह जान चुके थे। अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में उन्होंने कहा ’’हिन्दी भाषा को बहुत आदमी बोलते हैं और यह भाषा सीखने और पढ़ने में सरल है, इसलिए यह राष्ट्रभाषा होने का अधिकार रखती है।’’ कदाचित यह पहला मौका था जब हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने की मांग गाॅॅंधीजी ने रखी। हिन्दी राष्ट्रीय एकता का सूत्र बन रही थी। ध्यान देने बात यह थी कि 1935 में राष्ट्र को आजाद होने में अभी 12 वर्ष का समय शेष था लेकिन गाॅंधीजी आजाद राष्ट्र के लिए राष्ट्रभाषा का चयन कर चुके थे। यह उनकी दूर दृष्टि का परिणाम था तथा हिन्दी की शक्ति का परिचायक भी। हिन्दी उनके लिए राष्ट्रीय सम्मान और आत्म गौरव का विषय थी उन्होंने कहा-’’किसी के सामने झुकने की जरूरत नहीं है। वायसराय से बात करना हो, तब भी अपनी भाषा का व्यवहार करो। लोग कहते हैं वायसराय आदि अंग्रेजी के अतिरिक्त और कुछ नहीं समझते। इसलिए उसी का उपयोग करना आवश्यक हैं पर मैं कहता हूॅं कि यदि मैं बोलना जानता हूॅं और मेंरे बोलने में कोई ऐसी बात रहेगी जिससे वायसराय लाभ उठा सकें तो अवश्य ही वे मेरी बातें हिन्दी में बोलने पर भी सुन लेंगे। उन्हें आवश्यकता होगी तो उनका अनुवाद करा लेंगे।’’ (गाॅंधी, आम्बेडकर, लोहिया और भारतीय इतिहास की समस्याएं पृष्ठ-41इसी अध्यक्षीय भाषाण में उन्होंने एक और महत्वपूर्ण सुझाव दिया कि सभी भारतीय भाषाओं की एक समान लिपि हो। लिपि की समरूपता भाषाओं को एक-दूसरे के समीप लाऐगी। जिससे राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी को प्रचारित करने में सहायता मिलेगी। गाॅंधीजी ने सुझाव दिया- ’’ अपने प्रान्त में वह भाषा तो चले किन्तु हिन्दी का प्रचार विशेष हो, जिससे यह राष्ट्रभाषा बन सके। यू ंतो बंगला का

साहित्य भी बहुत है। परन्तु वह राष्ट्रभाषा नहीं बन सकती। राष्ट्रभाषा तो केवल हिन्दी ही बन सकती है।’’ गाॅंधीजी के द्वारा लिपि के संबंध में व्यक्त किए गए विचारों को बाद में आचार्य विनोबा भावे ने आगे बढ़ाने की पुरजोर वकालत की। इसी अधिवेशन में उन्होंने काका कालेलकर की अध्यक्षता में लिपि परिषद् गठित की गयी लिपि की सम रूपता की ओर संकेत करते हुए कहा- ’’ हिन्दी प्रचार के लिए लिपि का एक होना भी आवश्यक है, हिन्दी भाषा संस्कृत से पैदा हुई है, आसामी और बंगला भी इसी से बहुत संबंधित है। दक्षिण भारत की भाषा द्राविडी मापी जाती है। में तो यह मानता हूॅं कि वह संस्कृत से पैदा हुई है। तमील, तेलगु, कनाडी आदि भाषाएं संस्कृत से भरी हुई हैं। बंगला भी संस्कृत से परिपूर्ण है। जब उनको अपनी भाषा में कोई शब्द नहीं मिलता तो वे इससे शब्द लेती है और उनका क्रप्रयोग करती हैं। अतः सब भाषाओं के लिए समान लिपि का होना आवश्यक है। (सन् 1935 में इन्दौर में दिए गए भाषण सेसभाओं, आन्दोलनों, बैठक की कार्रवाईयों और समाचार पत्रों के आलेखों तथा संपादकियों और साक्षात्कारों एवं वार्तालापों के द्वारा गाॅंधीजी निरंतर हिन्दी की स्थापना की लड़ाई लड़ रहे थे। उन्होंने कहा- अंग्रेजी में व्याख्यान देने की आदत ने हिन्दुस्तान के राजनीतिज्ञों के मन मैं जो घर कर लिया है, उसे मैं अपने देश और मनुष्यत्व के प्रति अपराध मानता हूॅ, क्योंकि हम लोग अपने ही देश की उन्नति में रोड़ा अटकाने वाले बन गए हैं।’’(29/312 गांधी वांड़मय) गांधीजी यह बात भली भांती समझ गये थे कि राष्ट्रीय अस्मिता का बोध अपनी जातीय भाषाओं के द्वारा ही सम्भव है। उन्होंने आगे कहा-’’जिस राष्ट्र ने अपनी भाषा का अनादर किया उस राष्ट्र के लोग अपनी राष्ट्रीयता खो बैठते है। हममें से अधिकांश लोगों की यही हालत हो गयी हो गयी है। पृथ्वी पर हिन्दुस्तान ही एक ऐसा देश है जहाॅं माॅं, बाप अपने बच्चों को अपनी मातृभाषा के बदले अंग्रेजी सिखाना पसन्द करेंगे (गांधी वांड़मय पृष्ठ क्रमांक 15/गांधीजी हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने की बात कह रहे थे उस समय तक हिन्दी एक साहित्यिक भाषा के रूप में ही विकसित हुई थी। विज्ञान, तकनीक, पत्रकारिता और ऐसे ही अनेक रूपों में इसका ढलना अभिशेष था। गांधीजी यह बात भलीभांति जानते थे कि जब तक हिन्दी जीवन के सभी आयामों को लेकर ना चलेगी तब तक इसे राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठिापित करने में सफलता मिल सकेंगी इसीलिए उन्होंने कहाॅं- ’’केवल साहित्य की वृद्वि करे तो यह भाषा राष्ट्रभाषा कैसे बन सकती है? साहित्य की वृद्वि करना हमारा परम कर्तव्य है, किन्तु साहित्य की वृद्वि से यह भाषा राष्ट्रभाषा नहीं बन सकती। (सन् 1935 में इन्दौर में दिए गए भाषण सेगांधीजी हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाये जाने का प्रयास कर रहे थे और साथ ही हिन्दी के विद्ववानों को आगाह भी कर रहे थे कि एक भाषा को राष्ट्रभाषा के रूप में विकसित करने के लिए और क्या किया जाना चाहिए। आज आजादी के 60 वर्षो के बाद हिन्दी ज्ञान-विज्ञान की सभी विधाओं के संवाहन में सक्षम है। आवश्कता केवल इतनी है कि हम अंग्रेजी की जकडन से अपने को मुक्त करें और हिन्दी की शक्ति को पहचाने। साथ ही उस षड़यत्र को भी पहचानने की भी जरूरत है जिसके तहत अंग्रेजी का प्रभाव बढाने के कुचक्र रचे जा रहे हंै। गांधीजी का हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का सपना अभी शेष है। इसे पूरा करना हम सब की राष्ट्रीय जिम्मेदारी है। आज जब सब टूट रहा ऐसे में भाषा की चिंता किसे है । पर भाषा के बिना भारतीया

पहचान की रक्षा नहीं की जा सकती ।