शनिवार, 22 अप्रैल 2023

जीवन यात्रा के सहयात्री



आदमी, जब आदिम अवस्था में था। तब इतनी हत्याएं और आत्म लेकिन इक्कीसवीं सदी के इस कथाकथित सभ्य समाज में हत्याओं और आत्महत्याओं के बढ़ते ग्राफ पर लिखते हुए बहुत पीड़ा होती है। साहित्यकारों का जीवन अभिशप्त होता है जो वह पर पीड़ाओं के साथ गुजरता है। महर्षि वाल्मीकि से लेकर आज तक सृजन कर्म में लगे लोग हत्याओं का विरोध ही करते आ रहे है और भविष्य में भी करेंगे। क्रौंच पक्षी के वध पर पहली कविता जन्मी थी। इस तरह अभी हाल ही में एक गर्भवती हथिनी के मुंह में बारुद डालकर मार डाला गया। इस घटना पर वाल्मीकि के वंशजों को रोना आया ही होगा। करुणापूरित मन भला क्यों दयाद्रवित न  हुआ/होगा। अगर ऐसा न हुआ हो तो अपने अंतस में झांकें कि क्या हम वास्तव में संवेदनशील मनुष्य है ? 
साहित्य जन्मा ही है हिंसा के विरोध में अतः उसके डीएनए में करुणा है। वह हिंसा, आतंक और रक्त क्रान्ति का पक्षधर नहीं है। हाँ, वह क्रान्ति करता है। इधर तथाकथित साहित्यकार उसके स्वभाव के विपरीत रक्त क्रान्ति का काम उससे लेना चाहते है। जो उसने न तो कभी किया है और न कभी करेगा। रचनाकर्म और करुणा की सात्विकता पर कवि नागार्जुन ने कहा- ‘‘कालिदास सच सच बतलाना इंदुमति के अज विलाप में अज रोए या तुम रोए थे।’’ सच यही है कि कारुणिक घटना घटे कही भी रोता केवल सर्जक का मन है। 
पशु, पक्षियों, वृ़़क्षों और प्रकृति के अन्य उपादानों के बिना मानव सभ्यता का इतिहास अधूरा है। यह केवल भारत के संदर्भ में नहीं बल्कि लगभग सभी संस्कृतियों मंे, प्रकृति के साथ आत्मीय संबंध दर्शाये गये है। भारत जैसे कृषि आधारित समाज में पशुओं के साथ हथिनी के साथ की गयी हिंसा समझ से परे है। 
यहाँ पशुओं को देवता के साथ पूजा जाता है। हाथी तो श्रीगणेश जी का स्वरूप ही माना गया। इनका एक अर्थ यह भी है कि जीवन की यात्रा अकेले की नहीं बल्कि सामूहिक है। 
पशु, पक्षियों के प्रति मनुष्य की क्रूरता की चिंता अपनी जगह है। यहाँ तो अब आदमी आत्महत्याओं पर उतरा है। आत्महत्याओं का आंकड़ा दिन-प्रतिदिन बढ़ रहा है। ऐसे में हमें यह सोचना चाहिए कि आखिर, हम किस तरह के मानवीय समाज की रचना कर रहे है ? हमने क्लर्क, अफसर, वैज्ञानिक, डाॅक्टर, अध्यापक, प्रोफेसर, नेता और तरह-तरह की अनेक श्रेणियाँ तो तैयार कर ली, मगर एक संवेदनशील मनुष्य बनाने में चूक गये। असल में इस दुनिया को करुणापूरित मन वाले कुछ मनुष्यांे की जरुरत है, जिनके सानिध्य में मानवीय समाज करुणा का भाव जगा सके। वैसे तो हर कालखंड में महापुरूष अवतरित होते रहते है जिन्होंने मनुष्य के अभ्यंतर को बदलकर उसे बेहतर से और बेहतर मनुष्य बनाने की कोशिश की है और रचनाकारों ने इन महापुरूषों के चरित्र को अनेक कोणों से गाया है, ताकि आने वाली पीढ़ियाँ इनसे प्रेरणा लेती रहे। 
कहने के लिए हमारी शिक्षा प्रणाली आधुनिक आवश्यकताओं के अनुसार ढाल दी गई है। हम यह भूल गये है कि इस शिक्षा व्यवस्था में आदमी को संवेदनशील आदमी बनाने के टूल्स नहीं हैं। आखिर शिक्षा के साहित्य की जगह इतनी कम क्यों है ? नैतिक शिक्षा पाठ्यक्रम से बाहर क्यों की गयी ? केवल रोटी की जुगाड़ करने वाली शिक्षा मनुष्य का निर्माण नहीं करती। रोटी खाने की तहजीब भी तो सिखायी जानी चाहिए। स्वयं के अतिरिक्त कायनात के प्रति चिंतन का भाव जगाने वाली शिक्षा चाहिये। रोटी का प्रबंधन जरुरी है, मगर अनियंत्रित भूख पैदा न हो, ऐसा भी कुछ प्रबंध हो। अतृप्त, वासना न तो स्वयं का कल्याण करती है और न ही समष्टिका। इधर कुछ अप्रत्याशित खबरें है कि ऐसे लोग जिनके पास रोटियाँ है, सुखद निवास है, सामाजिक प्रतिष्ठा है, यश है, इन सबके होने के बाद भी वे अंदर से खाली हैं और इतने खाली है कि आत्महत्या जैसा जघन्य कृत्य कर रहे हैं। अब नीति निर्धारकों को कौन समझाये कि मानव जीवन में आने वाले उतार-चढ़ावों को सहन करने की शक्ति देने वाली शिक्षा क्यों नहीं दी गई ? आंकड़े बताते है कि अधिकांश आत्महत्याएँ निजी कारणों से की गई है। कृषकों की आत्महत्याओं के लिए वे दोषी नहीं है व्यवस्थाएँ दोषी हैं। असल में ऊपर-ऊपर से चमकदार दिखने वाले ये छलिया, अभिनेता टाइप के लोग हमारी नई पीढ़ी के प्रेरणास्रोत है। ये भीतर से बहुत बैचेन और बेचारे निकाले।
साहित्य आदमी को भीतर से मजबूत बनाता है बाहरी दुनिया को बदलने में साहित्य की कोई रूचि नहीं। गुरु की महिमा के संदर्भ में कबीर ने कहा था - ‘‘अंतर हाथ सहाय दे/बाहर बाहे चोट’’ जीवन में साहित्य की भी यही भूमिका है। देर जरुर हुई है मगर बहुत देर नहीं। अभी भी समय है कि हम अपनी पीढ़ियों की ऐसे परवरिश करें कि वे केल साक्षर ही न बने बल्कि शिक्षित भी होें।

कोरोना समय और समस्याएँ

 कोरोना समय और समस्याएँ

कोरोना ने गाँव की याद दिला दी। हर एक को हरि नाम की तरह। गाँव की याद ही नहीं दिलाई बल्कि गाँव वापसी भी करवाई। केवल दूर ही वापस गये वापस वे भी जाना चाहते थे जो समर्थ है, धनवान है और जो दशकों पहले गाँव से बिछड़ गये थे। ऐसा नहीं है कि गाँव सभी समस्याओं का हल है। अगर ऐसा ही होता तो लोग अपने पुरखों का गाँव छोड़कर शहर आते ही क्यों ? आजादी के बाद हमारी सत्ताओं ने गांधी के ‘ग्राम स्वराज’ की अनदेखी की है। इसी पाप का यह भयानक परिणाम है कि अधिकांश जन ना तो गाँव के रहे, ना शहर के हो पाये। शहर में रहते हुए भी इनकी रगो में गाँव, रक्त बनकर दौड़ता रहा। गाँव और शहर के बीच का द्वन्द्व ने गाँव उजाड़ दिये और शहर कुरुप और बोझिल बनते गये। शायद कोरोना महामारी से शिक्षा लेकर अब हमारी सत्ताएँ ग्राम स्वराज की अवधारणा पर ध्यान देगी। यह उम्मीद की जा सकती है। गाँव की आत्मनिर्भरता से ही राष्ट्र की वास्तविक और टिकाऊ उन्नति का मार्ग प्रशस्त होगा। केवल स्मार्टसिटी बनाने की रटन्त छोड़िए, स्मार्टगाँव का मंच भी जपिए। इसी से बेरोजगारी मिटेगी और पलायन रुकेगा। कुटीर उद्योगों से गाँव का स्वरुप निखरेगा और प्रगति की नई इबारत लिखी जा सकेगी और इसे आप भारतीय संस्कृति कहते है उसकी आत्मा का क्षरण भी रोका जा सकेगा। ग्रामीण से नागरिक बनने का रास्ता सरल भले ही मालूम पड़े मगर इसका भविष्य वर्तमान में बहुत धंुधला और कुरुप है। इसकी बहुत बड़ी कीमत हमारा राष्ट्र चुका रहा है। आज आवश्यकता है कि तत्काल प्रभाव से ऐसे प्रबंध किये जाये कि यह संघर्ष हमेशा के लिए बदल जाये। 
कोरोना ने विज्ञान के अहंकार को भी चुनौती दी है। जो देश यह कल्पना कर रहे थे कि वे विज्ञान के सहारे आदमी को अजर-अमर बना देंगे। वास्तविकता यह है कि वे अदृश्य विषाणु (वायरस) से हार गये। जीवन सुरक्षा के लिए उठी उनकी चित्कार पूरा विश्व सुन रहा है। लगता है कि विज्ञान को अभी प्रकृति के तमाम रहस्य समझने में बहुत समय लगेगा और यदि अंततः वह ना समझ पाये तो आश्चर्य नहीं होगा। आचार्य रजनीश से किसी ने पूछा था- ‘‘क्या विज्ञान आध्यात्म को समझ सकता है’’ ? उनका उत्तर था-‘‘कभी नहीं, जहाँ विज्ञान की सीमा समाप्त होती है वहाँ से आध्यात्म की सीमा शुरु होती है।’’ यह सच है कि विज्ञान ने मनुष्य के जीवन को सरल, सुगम बनाया है और वह अनंतकाल तक अपने कार्य में यूँ ही लगा रहेगा। सवाल यह है कि क्या सरलता, सुगमता जीवन का अंतिम उद्देश्य है ? 
कोरोना काल में अनेक चिकित्सक भी बेमौत मारे गये। ये लोग असाधारण लोग थे, जो बीमारी के संक्रमण की बारीकियों से परिचित थे। इन्हें एक अदद वैक्सीन की दरकार थी। आवश्यकता ही अब तक अनुसंधान करवाती आ रही है और भविष्य में भी करवाती रहेगी। मगर भविष्य में भी ये चुनौतियाँ कम नहीं होगी। विज्ञान और प्रकृति के संघर्ष की कथा अनंतकाल तक इसी तरह चलने वाली है। वैज्ञानिक युग के आदमी ने पहली बार मौत का तांडव देखा है। महामारियों का इतिहास बताता है कि किस तरह लोग महामारियों के शिकार होते रहे है, मगर तब तकनीक ने दुनिया को इतना छोटा नहीं बनाया था। आदमी प्रकृति की गोद में स्वाभाविक जीवन जी रहा था। सूचनाओं और दवाओं का तंत्र नहीं था। 
कोरोना ने कुछ अनसुलझे सवालों के जवाब भी हमें दिये है। कोरोना से पहले पर्यावरण संतुलन के लिए दुनिया चिंतित थी। इधर मृत्यु से भयभीत मनुष्य ने लाॅकडाउन किया। बदहवास दौड़ती जिंदगी अचानक थम गई या मौत के भय से सहम गई। जीवन का कोलाहल निस्तब्धता में बदल गया। अचानक मनुष्य को लगा कि वह कहाँ जा रहा था। उसने यह भी समझा कि जीवन के लिए बहुत अधिक वस्तुओं के संग्रहित की आवश्यकता नहीं है। आवश्यकताएँ कम की जाये और प्रकृति की शरण में जीवन जिया जाये। इधर प्रकृति भी अपने मौलिक कलेवर में चली गयी। परिणाम यह हुआ कि हमने आकाश की पहली नीलिमा के दर्शन किये। पहाड़ों की संुंदरता और नयनाभिराम हरियाली भी देखी, पक्षियांें का कलरव शहर में भी सुनाई दिया, नदियाँ निर्मल हुई। ये वे नदियाँ है जिन्हें निर्मल बनाने के लिए हमने तरह-तरह की कोशिशें भी की थी, मगर परिणाम शून्य ही रहा। कारण स्पष्ट है कि सबके मूल में हमारा दुराचरण ही था। आज शहरों में वायु सांस लेने योग्य हुई और ध्वनि प्रदूषण अपने न्यून स्थिति में आ गया। मगर ये सारी स्थितियाँ एक स्वप्न की तरह है, कुछ समय के लिए है। घरों में बंद जनसंख्या जैसे ही मुक्त होगी, ईंधन से चलने वाले यंत्र फिर आग उगलना शुरु करेंगे और फिर मनुष्य का उसी नरक में जीने को विवश होगी। इस कोरोना काल में हमसे कहा है कि अगर आप प्रकृति को विनाश से बताना चाहते हो तो बचा सकते हो। दुनिया के सभी देश हर वर्ष एक सुनिश्चित अवधि के लिए लाॅकडाउन में जाना तय करें, ताकि प्रकृति रुपी सुंदरी अपने सौंदर्य को अक्षुण्य बनाये रखने का प्रयत्न कर सके। 
लाॅकडाउन में संवाद की नई शैली भी विकसित की है। तकनीक ने हमारी कल्पना को नया आकाश दिया है। साहित्य जैसे मार्मिक विषय को सोशल मीडिया के माध्यम से लोगों तक पहुँचाया है। प्रकाशकों, संस्थाओं ने आॅनलाईन व्याख्यान प्रारंभ किये। ये संकेत हमें नये युग में जाने का विश्वास दिला रहे है। अब एक सवाल यह है कि क्या कोरोना के बाद हम लोग पुराने ढ़ंग का जीवन जी पायेंगें ? शायद नहीं। इस अवधि के अनुभवों, आदतों से उभर पाना शायद संभव न होगा, अब भविष्य तकनीक के सहारे तय होगा। 
जो लोग इस अवधि में दिवंगत हुए उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित करना हम सबका कर्तव्य है। विचारक कहते थे कि जीवन क्षणभंगुर है, मगर इस कटु सत्य को इस महामारी ने हमारे समक्ष रखा। मृत्यु को प्राप्त लोगों ने और ना ही शेष समाज ने यह कल्पना की थी कि अंतिम यात्रा पर निकले इन लोगों को रक्तसंबंधियों का कांधा भी नसीब नहीं होगा। कोरोना से मृत्यु को प्राप्त लोगों को श्रद्धासुमन भी अर्पित न हो सके। एक दृश्य यह भी सामने आया कि अनेक रक्तसंबंधियों ने मृत देह को लेने से ही मना कर दिया। जीवन के इस नितांत सत्य से कम से कम भारत का जनमानस पूर्व से ही परिचित था कि यह जीवन यात्रा अकेले ही आता है परन्तु हमारे मन से यह विचार, आकांक्षा बहती ही रही है कि उनकी मृत देह को उनका रक्तसंबंधी भी अग्नि स्नान करायेगा, मगर महामारी ने निश्चय ही एक अलग परिदृश्य रचा है। नियति के गर्भ में क्या छुपा है, हमारी आँखे और हमारा मन अभी तक नहीं जान सका है। हमारी जिजीविषा शक्ति ही जीवन की नग्नता, कुरुपता को ढंककर अग्रसर होने के लिए प्रेरित करती आ रही है। इसी के बल पर मनुष्यता ने अब तक की यात्रा की है और भविष्य में भी यह यात्रा जारी रहेगी। ऐसे ही महामारियों के दौर से गुजरते हुए पुरखों ने प्रार्थना की थी ‘‘सर्वे सन्तु निरामया’’ आइये इसी प्रार्थना को हम लोग भी दोहराते है।