मंगलवार, 9 दिसंबर 2008

हिन्दी के विकास में निराला की भूमिका


तुलसीदास के बाद हिन्दी साहित्य में निराला ही सर्वाधिक सम्मान पाने वाले कवि हैं । जिस तरह फारसी के आतंक से हिन्दी को मुक्त करने का काम तुलसी ने किया था ,उसी तरह अंग्रेजी से हिन्दी को मुक्ति दिलाने के लिए निराला ने संघर्ष किया । उन्होंनें न केवल अपने लेखन से हिन्दी को आगे बढाया किया बल्कि उस समय के नेताओं के साथ भी विमर्श किया । आज हिन्दी के विकास में जो वधाएं हैं उन्हें निराला की तरह सत्ता के सामनें उतने वाले लेखक दिखाईनहीं पढ़ते । डॉ रामविलास शर्मा ने लिखा है की निराला के जीवन का एक मात्र उद्देश हिन्दी का विकास था । इसके लिए वे उस समय के शीर्ष नेताओं के सामने अपना पक्ष रखते थे । इसका एक उदहारण देखए -----''जनता से विदा होने और गाड़ी के चलने पर जब नहरू जी भीतर आकर बैठे तब निराला ने शुरू किया ---आपसे कुछ बातें करने की गरज से आपनी जगह से यहाँ आया हूँ । नहरू ने कुछ न कहा । निराला ने आपना परिचय दिया फ़िर हिदुस्तानी का प्रसंग छेदा , शूक्ष्म भावः प्रकट करने में हिनुस्तानी की अस्मार्थिता जाहिर की फ़िर एक चुनौती दी ; मैं हिन्दी के कुछ वाक्य आप को दूँगा जिनका अनुवाद आप हिन्दुस्तानी जवान में कर देंगे , मैं आप से प्राथर्ना करता हूँ । इस वक्त आप को समय नहीं । अगर इलाहाबाद में आप मुझे आगया करें .तो किसी वक्त मिलकर मैं आप से उन पंक्तियों के अनुवाद के लिए निवेदन करूँ । जवाहर लाल ने चुनौती स्वीकार नहीं की समय देने में असमर्थता प्रकट की । निराला ने दूसरा प्रसंग छेरा .समाज के पेछ्देपन की बात , ज्ञान से सुधर करने का सूत्र पेश किए । हिंदू मुस्लमान समस्या का हल हिन्दी साहित्य में जितना सही पाया जाएगा , राजनीत साहित्य में नहीं --निराला नें आपनें व्यावहारिक वेदांत का गुर समझाया जवाहर लाल नेहरू डिब्बे में आयी बाला को देखते रहे ,उसे टालने की कोई कारगर तर्कीव सामनें न थी । डिब्बे में आर एस पणित भी थे । दोनों में किसी ने भी बहस में पड़ना उचित नहीं समझा । लेकिन निराला सुनने नहीं सुनाने आए थे । बनारस की गोष्टी में जवाहर लाल के भाषण पर वह 'सुधा 'में लिख चुके थे , अब वह व्यिक्ति सामने था जो अपने हिन्दी -साहित्य सम्बन्धी ज्ञान पर लज्जित न था । जो सुयाम अंगरेजी में लिखता था , जो हिन्दी वालों को क्या करना चाहिए ,उपदेश देता था । (इससे पूर्वपंडित नेहरू बनारस एक सम्मलेन में कह आए थे की हिन्दी साहित्य अभी दरवारी परम्परा से नहीं उबरा है । यहीं पर उनहोंने यह भी कहा था की अच्छा होगा की अंग्रेजी साहित्य की कुछ चुन्नी हुए पुस्तकों का हिन्दी में अनुवाद कराया जाए , इस पूरे प्रसंग पर निराला ही निराला ,पंडित जवाहरलाल नहरू से बात कर रहे थे )
निराला ने कहा ; पंडित जी यह मामूली अफ़सोस की बात नहीं है की आप जैसे सुप्रसिद्ध व्यक्ति के इस प्रान्त में होते हुए भी इस प्रान्त की मुख्या भाषा हिन्दी से प्रायः अन्विग्य हैं किसी दूसरे प्रान्त का राजनीतिग्य व्यक्ति एसा नहीं । सन १९३० के लगभग श्री शुभाष बोस ने लाहौर के बीच भाषण करते हुए कहा था की बंगाल के कवि पंजाब के वीरों के गीत गाते हैं । उन्हें अपनी भाषा का ज्ञान और गर्व है । महात्मागांधी के लिए कहा था गुजरती को उनहोंने नया जीवन दिया था । बनारस के जिन साहित्यकारों की मंडली में आपने दरवारी कवियों का उल्लेख किया की ,उनमें से तीन को में जनता होऊं । तीनो अपने- अपने विषय के हिन्दी के प्रवर्तक हैं । प्रसाद जी काव्य और नाटक -साहित्य के , प्रेम्चान्द्रजी कथा-साहित्य के और रामचन्द्रजी शुक्ल आलोचना साहित्यके । आप ही समझिये की इनकेबीच आपका दरवारी कविओं का उल्लेख कितना हास्यास्पद हो सकता है । एक तो हिन्दी के साहित्यिक साधारण श्रेणी के लोग हैं ,दूसरे एक हाँथ से बार झेलते हुए दूसरे से लिखते हुए ,दूसरे आप जैसे बड़े - व्यक्तियों का मैदान में वे मुखालफत करते हुए देखते हैं । हमने जब काम शुरू किया था ,हमारी मखाल्फत हुई थी आज जब हम कुछ प्रतिष्टित हुए ,अपने विरोधिओं से लड़ते हुए , साहित्य की श्रष्टि करते हुए ,तब किन्हीं मायिने में आपको मुखालफत करते हुए देखते हैं .यह कम दुर्भाग्य की बात नहीं है साहित्य और सहितिय्क के लिए .हम वार झेलिते हुए सामने आए ही थे की आपका वार हुआ .हम जानते हैं .हिन्दी लिखने के लिए कलम हाँथ में लेने पर बिना हमारे कहे फैसला हो जाएगा के बड़े से बड़ा प्रसिद्ग राजनीतिक एक जानकर साहित्यिक के मुकावले में कितने पानी में टहरता है । लेकिन यह तो बताये ,जहाँ सुभास बाबू , अगर में भूलता नहीं .अपने सभापति के भाषण में सर्द्चंद्र के निधन का जिक्र करते हैं , वहां क्या वजह है जो आप की जुबान पर प्रासद का नम नहीं आया । में समझता हूँ आप से छोटे नेता सुभास बाबु के जोड़ के शव्दों में कांग्रेश में प्रसाद जी पर शोक -प्रस्ताव पास नहीं करते । क्या आप जानते हैं की हिन्दी के महत्त्व की द्रष्टि से प्रसाद कितने महान हैं ?जवाहरलाल एक तक निराला को देखते रहे ऐसा धराप्रवाह भासन सुननेवाला उनेहं जीवन में पहला विय्क्ति मिला था । अगला स्टेशन अभी आया न था निराला को प्रेम चाँद याद आए प्रेमचंद पर भी वैसा प्रस्ताव पास नही हुआ जैसा शरतचंद्र पर । नहरू ने टोका -नहीं जहाँ तक याद है ,प्रेमचंद्र पर तो एक शोक प्रस्ताव पासकिया गया था
निराला ने अपनी बात स्पष्ट की जी हाँ यह में जनता हूँ ,लेकिन वैसी महत्ता नहीं थी जैसी शरद चंद्र वाले की थी
आख़िर अयोध्या स्टेशन आ गया । निराला ने आखिरी बात कहीअगर मौका मिला तो आपसे मिलकर फ़िर सहितियक प्रश्न निवेदित करूँगा '' । ( निराला की साहित्य साधना भाग 1 प्रष्ट -३२०-३२१) यह विवरण सन १९३५ का है । यहाँ यह प्रश्न जरूरी है की जो लोग आज सत्ता के नजदीक हैं , वे लोग आज के हिन्दी साहित्य ओर हिन्दी भाषा के सामने मौजूद चुनौतिओं का जिक्र नहीं करते । हिन्दी के सामने लिपि की नई समस्या उत्पन्न की गई है । आज की पीढी हिन्दी को रोमन में लिख रही है । सोचिये तो जरा अगर यही हालत रही तो आगामी दिनों में देवनागरी लिपि का क्या होगा । इस पर विचार करने की जरूरत है ।इससे भी अधिक शर्म नाक यह है की इस पर चिंतन करनेवालों को पुरातनपंथी घोषित किया जाता है । इंदौर के श्री प्रभु जोशी ने इस विषय पर सबसे पहले लोगों का ध्यान खींचा उनहोंने न केवल लिखा वल्कि एक राष्ट्रीय बहस भी पैदा की । इस विषय पर गहरे चिंतन की जरूरत है । यह हमारी अस्मिता का प्रशन है ।

शनिवार, 6 दिसंबर 2008

आतंकवाद के विरुद्ध हमारे सामाजिक सरोकार

आतंकवाद आज के मानवीय समाज के सामने सबसे बड़ी चुनौती है। हर सभ्य आदमी इसे सभ्यता के माथे पर कलंक मानता है। आज संसार का हर देश इससे पीड़ित है। मनुष्यता के इतिहास में कभी ऐसा नहीं हुआ, जब बिना किसी कारण के निर्दोष मानुष मारा गया हो। इसके कारण जो भी हों पर इससे लड़ने के लिए पूरा सभ्य समाज चिंतित है। इंदौर की श्री मध्य भारत हिन्दी साहित्यसमित द्वारा संचालित समसामयिक अद्ययन केन्द्र ने इस विषय एक आयोजन किया। जिसका विषय था ''आतंकवाद के विरुद्ध, हमारे सामाजिक सरोकार।" इस पर बोलते हुए सेवानिवृत्त आईजी.सीमा सुरक्षा बल श्री मोहम्मद जियाउल्लाह ने बताया की आतंकवाद से लड़ने के लिए जनता को जागरूक करना जरुरी है। बिना जनसहयोग के इससे नही लड़ा जा सकता। हमें इस सोच से बाहर निकलना होगा की हमारी हर प्रकार की सुरक्षा के लिए सरकार ही जिम्मेदार होगी। यह सही है की जनता की जानमाल की रक्षा की जिम्मेदारी सरकार की है पर एक जागरूक नागरिक होने के नाते राष्ट्र के प्रति हमारा उत्तरदायित्व है। आतंकवाद के कई कारण हैं, जिनमें धर्म के प्रति कट्टरता , अशिक्षा , गरीबी जैसे कारण प्रमुख हैं। भारत में आतंरिक कारणों और बाहरी कारणों से आतंकवाद फैला हुआ है। पाकिस्तान से आयातित आतंकवाद स्टेट के द्वारा फैलाये जाने वाले आतंकवाद की श्रेणी में आता है। एक नागरिक की हैसियत से हम लोग चौकन्ने रहकर आंतकवादी गतिविधियों पर रोक लगा सकते हैं। आतंकवाद धीरे-धीरे पैर पसारता हैं। अपनी बस्ती में संदिग्ध दिखने वाले व्यक्ति की गतिविधियों पर ध्यान रखे और निजी स्वार्थों से ऊपर उठकर राष्ट्रहित में काम करे। आंतकवादियों का कोई धर्म नही होता, वे खून-खराबे में विश्वास करते हैं। भारत में रहने वाले हर व्यक्ति का पहला धरम राष्ट्रधर्म है। इसके बाद उसका अपनाया हुआ धरम आता है। राष्ट्र ही एक ऐसे जगह है जहा हमें जीवन जीने की सहजता होती है। लेखकों का यह दायित्व है की वे राष्ट्र भावना का जागरण करें और लोगों को संकीर्णता से ऊपर उठाये।आतंकवाद के काम में लगे लोग कम उम्र के गुमराह कोग होते हैं । मिडिया को बहुत अधिक तरजीह नही देना चाहिए क्योंकि इनमें अक्सर इसे लोग होते हैं । जोचाहते हैं की इस्सी बहने से संसार के लोग इन्हें पहचाननें लगेंगे । यदिमीडिया में ये हीरो की तरह इन्हें जगह मिलेगी तो ये लोग अपने लक्ष्य में कामयाब हो जाते हैं ।
प्रसिद्ध समाजसेवी और वकील अनिल त्रिवेदी ने कहा की आजादी के ६० वर्षों में सामाजिक स्तर पर भाईचारा बढ़ाने की जगह आपसी वैमनस्य बढ़ा है। और बात यहाँ तक आ गयी है की हमारे पड़ोसी मुल्क के गुमराह लोग आत्मघाती बनकर आतंक फैला रहे हैं। उन्होंने माना की मनुष्य के आतंरिक विचारों को परिवर्तित कर उसे निर्माण के रास्ते पर लाया जा सकता है। देश में नफरत फैलाने वाले भ्रष्टाचार के ठेकेदार भी आतंकवादी ही माने जाने चाहिए। भारत का आतंकवाद एक गहरे छदम युद्ध का हिस्सा हैं। आतंकवाद से लड़ना केवल सेना का काम नही हैं, यह काम सामजिक स्तर पर करना होगा तथा मनुष्य में सत्य, अहिंसा के प्रति लगाव पैदा करने की जरुरत है। ऊपर से भले ही ठीक न लगे पर इस समस्या का निदान गांधीजी के द्वारा दिखाए गए मार्ग से ही सम्भव हैं। न तो यह देश कारपोरेट की तरह है और न ही कोई दूसरा देश कारपोरेट की तरह चलाया जा सकता है। देश को चलाने के लिए व्यापक विचारों वाले लोगो की जरूरत है, जो लोगों को सामजिक, राजनितिक, आर्थिक और सांस्कृतिक तोर पर समझे और उन्हें समझा सके। हर घटना से समाज प्रभावित होता है । लोगों में घबराहट पैदा होती है लेकिन बाद में हम फ़िर विसुध हो जा ते हैं । जबकि जरुरत इस बात की है की हम निरंतर विचार करें की दुबारा इसी घटना न घटने पाए । इस अवसर पर इंदौर शहर के अनेक लेखक तथा छात्र उपस्थित थे।

रविवार, 30 नवंबर 2008

कविताएँ

ये कविताएँ मेरे कविता संकलन "अंतस के स्वर" में प्रकाशित है।
एक बाण

संसार का दुःख दर्द
जब फांस की तरह
धंस जाता है कवि ह्रदय में ,
तब लिखी जाती है,
एक सार्थक कविता।
कवि अवचेतन में हैं,
अगणित कविताएँ,
, वे प्रवाहित होती हैं,
कवि की मानस सलिला में,
लेकिन जब कोई अर्जुन,
संधान करता बाण .,
बानगंगा की तरह प्रवाह आ जाता है बाहर।
इसे प्रवाह में एक -
एक शव्द कवि के रक्त और मांस मज्जा
का स्पर्श पाकर ही,
लेता है आकार,
कागज़ की छाती पर।
क्रोंच पक्षी को लगा था तीर,
तो मर गया था वह,
लेकिन बहेलिये का वह बाण,
तब से फंसा हुआ है कवि छाती में,
जिसे युगों-युगों से,
लिए हुए घूम रहा है वह,
यत्र, तत्र, सर्वत्र,
सोचो तो जरा,
अगर नही धंसता बाण,
वंचित रह जाता संसार कविता से।
जब तक यह बाण धंसा है,
कविताओं का प्रवाह रहेगा निरंतर,
जानता हूँ में भलिभांति,
की कम नही हैं बाण बहेलिये के तुणीर में।
पर कवि मानस में है अनंत कविताएँ।
इसी तरह अनंत काल तक
चलता रहेगा युद्ध
अबाध और अखंड
न कम होंगे बहेलिये और बाण
न कम होंगी कविताएँ और कवि।
(कहा जाता है की वाल्मीकि ने बहेलिये के द्वारा मरे गए क्रोंच पक्षी के क्रंदन को सुना था और तभी विश्व की पहली कविता जन्मी थी। अगर यह सच है तो विद्रूपताओं के बाण आज भी वाल्मीकि के वंशज कवि को आहात करते हैं। और कविताएँ जनम लेती हैं।)
हम सभी हैं बाहुबली
पेड़ की आड़ से ,
बाली को मारकर
राम ने।
बाहुबलिओं को मारने का,
संभ्रांत तरीका खोजा था।
तब से संभ्रांत लोग तलाशते हैं,
एक पेड़ राम की तरह
खड़े होकर पीछे जिसके
मारा जा सके बाहुबली।
समाज में इस तरह खड़े हम सभी
हर तीसरे की लिए तीसरा हैं बाहुबली
हम सभी के पास है
अक्षय तूनीर विष बुझे बाण
इनके संधान की अचूक कला
जानते है हम सभी।
बाहुबलिओं के दंभ से सराबोर हैं
हमारे मानस।
सभी की पीठ पर दिखाई पड़ते हैं
पीछे से संधान किए गए बाण
और रक्तरंजित ह्रदय,
इस युद्ध में मरते है बाली
और कटते हैं पेड़
टूटता नही हैं क्रम
पूर्ति होती है सुनिश्चित
युद्ध का अभिनय हो सकता है भिन्न-भिन्न
पर सचमुच में है हम सभी बाहुबली।
सबके अन्दर का युद्ध
आप का दाया या बांया हाँथ,
आप के विरुद्ध कर दे बगावत,
और काटने लगे आपका सर,
तो कौन मानेगा इसे सच।
स्वपन में नही जागते हुए,
जीवन में घटता है यही सब,
और यही करते हैं,
आप के अन्तरंग लोग।
इस अनकही पीड़ा
से उपजे आर्तनाद की कराह को,
बाहर न निकाल सकने के लिए
अभिशप्त हैं आप,
फिर किस तरह बताएँगे
संसार को अपने अन्दर का हाल।
मन के महाभारत को
संजय की तरह देखते है आप
ध्रितराष्ट्र सी अंधी दुनिया,
मना करती है सुनने के लिए
आपकी मनोव्यथा
तब और नही लगाया जा सकता है
आपकी पीड़ा का अनुमान
जानता है केवल वह
जिसके पास है
ह्रदय में झाँकने की दृष्टि
और दूसरों की पीड़ा में
गल जाने वाला ह्रदय
पर असंभव है मनुष्यों के इस जंगल में
शिशु के समान ह्रदय को खोज पाना।
आवरण
देखकर आवरण
पालोमत कोई विचार
छिपाने केलिए विद्रूप्तायं
ओढे जाते है आवरण
दिख सके सौम्य
इसलिए आदमी ओढ़ता है आवरण
आवरण ही तो है जिसे ओढ़ कर
वह कहलाता है सभ्य
जिसे नहीं होती है अक्ल
आवरण ओढ़ने की
सभ्य होते हुए भी
वह खा जाता है मात
आवरण वस्तुओं के ही नहीं
सव्दों के भी होते हैं
शब्दों के आवरण
होते हैं अधिक घातक
शब्द कह लाता है ब्रम्ह
शब्दों में लिपटा आवरण
बन जाता है ब्रम्हास्त्र
महाकवि की मूर्ति पर बैठा परिंदा
भाग्यशाली हैं वे लोग
जिनके घर आते हैं परिंदे
विचारों की तरह
स्वतंत्र विचरते हैं परिंदे
विचार भले ही घुस जायें
किसी के भी दिमाग में
परिंदे कभी नहीं बैतिते
जीवित मनुष्य के सर पर
चाहे वह खड़ा ही रहे
अविचल रात और दिन
परिंदे जानते हैं भली भांति
जिन्दा मनुष्य के सर पर बैठना
होता है खतरनाक
वे अक्सर रहते हैं वहां
जहाँ बहुतकम जाता है मनुष्य
महा कवि की मूरिती पर बैठा परिंदा
लगता है अभी
उपजा है नया विचार

जो उड़ान भरने से पूर्व
करना चाहता है दिशा सुनिश्चित
जानते हैं महा कवि
uda दिए गए हैं उनके विचार
परिंदों की मानिंद
अब बहुत कम बचे हैं मनुष्यों के सर
जहाँ बैठे सकें महा कवि के विचार








सोमवार, 24 नवंबर 2008

डॉ. रामविलास शर्मा के आलोचना सिद्धांत


रामविलास शर्मा का जन्म १० अक्टूबर १९१२ में हुआ था। १९३३ में वे सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला” के संपर्क में आए और १९३४ में इन्होंने निराला पर एक आलोचनात्मक आलेख लिखा जो रामविलासजी का पहला आलोचनात्मक लेख था। यह आलेख उस समय की चर्चित पत्रिका चाँद में प्रकाशित हुआ। सन् १९३८ में उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में पी.एच.डी. की डिग्री प्राप्त की। इसके बाद वे निरंतर सृजनोन्मुख रहे। अपनी सुदीर्घ लेखन यात्रा में लगभग १०० महत्वपूर्ण पुस्तकों का सृजन किया जिनमें “गाँधी, आंबेडकर, लोहिया और भारतीय इतिहास की समस्याएँ”, “भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश”, “निराला की साहित्य साधना”, “महावीरप्रसाद द्विवेदी और हिन्दी नव-जागरण”, “पश्चिमी एशिया और ऋगवेद” “भारत में अंग्रेजी राज्य और मार्क्सवाद”, “भारतीय साहित्य और हिन्दी जाति के साहित्य की अवधारणा”, “भारतेंदु युग”, “भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिन्दी” जैसी कालजयी रचनाएँ शामिल हैं।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के बाद डॉ. रामविलास शर्मा ही एक ऐसे आलोचक हैं, जो भाषा, साहित्य और समाज को एक साथ रखकर मूल्यांकन करते हैं। उनकी आलोचना प्रक्रिया में साहित्य अपने समय, समाज, अर्थ, राजनीति और इतिहास की समग्रता के साथ होता है। अन्य आलोचकों की तरह उन्होंने किसी रचनाकार का मूल्यांकन केवल लेखकीय कौशल को जांचने के लिए नहीं किया है, बल्कि उनके मूल्यांकन की कसौटी यह होती है कि उस रचनाकार ने अपने समय के समग्र रचनात्मक संविधान के साथ कितना न्याय किया है। इतिहास की समस्याओं से जूझना उनकी पहली प्रतिबद्धता है। वे भारतीय इतिहास की हर समस्या का निदान खोजने मे जुटे रहे। उन्होंने जब यह कहा कि आर्य भारत के मूल निवासी हैं, तब इसका विरोध हुआ था।
उन्होंने कहा कि आर्य पश्चिम एशिया या किसी दूसरे स्थान से भारत में नहीं आये हैं, बल्कि सच यह है कि वे भारत से पश्चिम एशिया की ओर गये थे। वे लिखते हैं - “दूसरी सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व बड़े-बड़े जन-अभियानों की सहस्त्राब्दी है। इसी के दौरान भारतीय आर्यों के दल ईराक से लेकर तुर्की तक फैल गए। वे अपनी भाषा और संस्कृति की छाप सर्वत्र छोड़ते जाते हैं। पूंजीवादी इतिहासकारों ने उल्टी गंगा बहाई हैं, जो युग आर्यों के बहिर्गमन का है उसे वे भारत में उनके प्रवेश का युग कहते हैं। इसके साथ वे यह प्रयास करते हैं कि पश्चिम एशिया के वर्तमान निवासियों की आँखों से उनकी प्राचीन संस्कृति का वह पक्ष ओझल रहे, जिसका संबंध भारत से है। सबसे पहले स्वयं भारतवासियों को यह संबंध समझना है, फिर उसे अपने पड़ोसियों को समझाना हैं। भुखमरी, अशिक्षा, अंध-विश्वास और नये-नये रोग फैलाने वाली वर्तमान समाज व्यवस्था को बदलना है। इसके लिए भारत और उसके पड़ोसियों का सम्मिलित प्रयास आवश्यक है। यह प्रयास जब भी हो अनिवार्य है कि तब पड़ोसियों से हमारे वर्तमान संबंध बदलेंगे और उनके बदलने के साथ वे और हम अपने पुराने संबंधों को नये सिरे से पहचानेंगे। अतीत का वैज्ञानिक, वस्तुपरक विवेचन वर्तमान समाज के पुनर्गठन के प्रश्न से जुड़ा हुआ है”। (पश्चिम एशिया और ऋगवेद पृष्ठ २०)भारतीय संस्कृति की पश्चिम एशिया और यूरोप में व्यापकता पर जो शोधपरक कार्य रामविलासजी ने किया है, उसमें उन्होंने नृतत्वशास्त्र, इतिहास, भाषाशास्त्र का सहारा लिया है।
शब्दों की संरचना और उनकी उत्पत्ति का विश्लेषण कर वे इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि आर्यों की भाषा का गहरा प्रभाव यूरोप और पश्चिम एशिया की भाषाओं पर है। वे लिखते है - “ सन् १७८६ में ग्रीक, लेटिन और संस्कृत के विद्वान विलियम जोंस ने कहा था - ग्रीक की अपेक्षा संस्कृत अधिक पूर्ण है। लेटिन की अपेक्षा अधिक समृध्द है और दोनों में किसी की भी अपेक्षा अधिक सुचारू रूप से परिष्कृत है। पर दोनों से क्रियामूलों और व्याकरण रूपों में उसका इतना गहरा संबंध है, जितना अकस्मात उत्पन्न नहीं हो सकता। यह संबंध सचमुच ही इतना सुस्पष्ट है कि कोई भी भाषाशास्त्री इन तीनों की परीक्षा करने पर यह विश्वास किये बिना नहीं रह सकता कि वे एक ही स्त्रोत से जन्में हैं। जो स्रोत शायद अब विद्यमान नहीं है। इसके बाद एक स्रोत भाषा की शाखाओं के रूप में जर्मन, स्लाव, केल्त आदि भाषा मुद्राओं को मिलाकर एक विशाल इंडोयूरोपियन परिवार की धारणा प्रस्तुत की गई।
१९ वीं सदी के पूर्वार्ध्द में तुलनात्मक और एतिहासिक भाषा विज्ञान ने भारी प्रगति की है, अनेक नई-पुरानी भाषाओं के अपने विकास तथा पारस्परिक संबंधों की जानकारी के अलावा बहुत से देशों के प्राचीन इतिहास के बारे में जो धारणाएँ प्रचलित हैं, वे इसी एतिहासिक भाषा विज्ञान की देन हैं। आरंभ में यूरोप के विद्वान मानते थे कि उनकी भाषाओं को जन्म देने वाली स्रोत भाषा का गहरा संबंध भारत से है। यह मान्यता मार्क्स के एक भारत संबंधी लेख में भी है। अंग्रेजों के प्रभुत्व से भारतीय जनता की मुक्ति की कामना करते हुए उन्होंने १८३३ में लिखा था - हम निश्चयपूर्वक, न्यूनाधिक सुदूर अवधि में उस महान और दिलचस्प देश को पुनर्जीवित होते देखने की आशा कर सकते हैं, जहाँ के सज्जन निवासी राजकुमार साल्तिकोव (रूसी लेखक) के शब्दों में इटेलियन लोगों से अधिक चतुर और कुशल है जिनकी आधीनता भी एक शांत गरिमा से संतुलित रहती है, जिन्होंने अपने सहज आलस्य के बावजूद अंग्रेज अफसरों को अपनी वीरता से चकित कर दिया है, जिनका देश हमारी भाषाओं, हमारे धर्मों का उद्गम है, और जहाँ प्राचीन जर्मन का स्वरूप जाति में, प्राचीन यूनान का स्वरूप ब्राह्यण में प्रतिविंबित है। (पश्चिम एशिया और ऋगवेद पृष्ठ २१)
डॉ. रामविलास शर्मा मार्क्सवादी दृष्टि से भारतीय संदर्भों का मूल्यांकन करते हैं लेकिन वे इन मूल्यों पर स्वयं तो गौरव करते ही हैं, साथ ही अपने पाठकों को निरंतर बताते हैं कि भाषा और साहित्य तथा चिंतन की दृष्टि से भारत अत्यंत प्राचीन राष्ट्र है। वे अंग्रेजों द्वारा लिखवाए गए भारतीय इतिहास को एक षड़यंत्र मानते हैं। उनका कहना है कि यदि भारत के इतिहास का सही-सही मूल्यांकन करना है, तो हमें अपने प्राचीन ग्रंथों का अध्ययन करना होगा। अंग्रेजों ने जान-बूझकर भारतीय इतिहास को नष्ट किया है। ऐसा करके ही वे इस महान राष्ट्र पर राज्य कर सकते थे। भारत में व्याप्त जाति, धर्म के अलगाव का जितना गहरा प्रकटीकरण अंग्रेजों के आने के बाद होता है, उतना गहरा प्रभाव पहले के इतिहास में मौजूद नहीं है। समाज को बांटकर ही अंग्रेज इस महान राष्ट्र पर शासन कर सकते थे और उन्होंने वही किया।

रविवार, 23 नवंबर 2008

डॉक्टर रामविलास शर्मा की आलोचना दृष्टि

समालोचना शब्द की उत्पत्ति संस्कृत की लुच धातु से है, जिसका अर्थ है देखना। सम्यक द्रष्टि से देखने की विधि हुई आलोचना। यदि बिना भेदभाव और पूर्वाग्रह के गुण-दोषों को देखना ही समालोचना है, तो इस प्रकार की आलोचना किसी रचना के बाद उस पर किया जाने वाला नीर-क्षीर विवेक का काम है। इस परिभाषा में आलोचकीय कर्म सामानांतर सृजन न होकर प्रतिसृजन हुआ। लेकिन सही मायने में आलोचना एक लेखकीय कर्म है तथा इसकी एक पुष्ट विधा हिन्दी साहित्य में मोजूद है। हिन्दी आलोचना की जो नींव आचार्य शुक्ल ने साहित्याकीय गुणों के आधार पर निश्चित की थी, यह निश्चित रूप से एक वैज्ञानिक विश्लेषण पर केंद्रित है। डॉक्टर रामविलास शर्मा ने हिन्दी साहित्य में आलोचना के पैमाने बदले हैं। उनका आलोचकीय कर्म एक बंधी हुई लीक से हटकर है। उनके आलोचना साहित्य को पढ़ते हुए लगता है कि मानो उनके लिखित साहित्य पर कविता, कहानी, नाटक और उपन्यास लिखे जाने की जरूरत है। उनकी पुस्तकें शोध कार्य के लिए प्ररित करती है। क्योकि इन पुस्तकों के केन्द्र में शोध कार्य के लिए प्रेरित करती हैं। क्योकि इन पुस्तकों के केन्द्र में शोध की वृत्ति मौजूद होती है। एक साथ अनेक विषयों पर लेखनी चलाई है, वे विषय पहली बार साहित्य के विषय बनते हुए दिखाई पढ़ते हैं। इतिहास, दर्शन, भाषा-विमर्श जैसे विषय उनकी आलोचना के केन्द्र में हैं। उनका यह काम हिन्दी साहित्य की विकासमान प्रकृति को प्रकट करता है। एक अच्छा आलोचक समग्रता में सोचता हैं तथा वर्तमान समय को संपूर्ण समस्याओं से जूझकर उनके समाधान प्रस्तुत करते हुए भविष्य का खाका भी प्रस्तुत करता हैं। इस काम में डॉक्टर रामविलास शर्मा हिन्दी के पहले आलोचक हैं, जिन्होंने आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी और हिन्दी नव-जागरण पर जब पुस्तकें लिखी, तब उनके विश्लेषण का विषय आचार्य शुक्ल का लिखा हुआ साहित्य ही नहीं होता, बल्कि वे नाप रहे थे की शुक्लजी ने अपने समय के सामाजिक सरोकारों के साथ किस तरह से न्याय किया है और यही बात जब वे निराला की साहित्य साधना पुस्तक लिख रहे थे, तब भी दिखाई पढ़ती है। निराला की साहित्यिक साधना जो किसी कवि पर लिखी गयी विश्व की उत्कृष्ट कृति मानी जाती है। यह कृति उस कालखंड की समूचे रचना परिद्रश्य को प्रकट करती है और साथ ही लेखकों को यह प्रेरणा देती है की अपने समय के साथ किस तरह से लेखकीय न्याय होना चाहिए। 'भारतेंदु युग' पुस्तक में भी केवल साहित्य आलोचना नहीं है, बल्कि उस समय का मूल्यांकन भी मौजूद है। डॉक्टर रामविलास शर्मा अपनी आलोचना यात्रा में लगभग १०० ग्रन्थ लिखते हैं। उनके अनेक ग्रन्थ मार्कस्वाद की द्रष्टि से संपन्न हैं, लेकिन इन ग्रंथों की तह में समय और उसकी जरूरतों तथा उन शक्तियों का विश्लेषण मिलता है, जिनसे मानव जीवन प्रभावित हुआ था, तमाम विश्लेषणों के बाद वे एक प्रगतिशील समाज की रचना ke लिए जूझते हुए दिखाई पढ़ते है। डॉक्टर रामविलास शर्मा हिन्दी आलोचक भिन्न हैं, क्योंकि वे साहित्येतर विषयों पर काम करते हैं। उनकी पुस्तकें "गाँधी, आंबेडकर, लोहिया और भारतीय इतिहास की समस्याएँ'' तथा भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश एवं '' पश्चिमी एशिया और ऋग्वेद'' ये इसी श्रेणी की पुस्तकें हैं। डॉक्टर शर्मा के व्यक्तित्व पर निराला का प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ता है। निराला की सृजनशीलता के लिए उन्होंने लिखा था -"जैसे १८५७ का कोई वीर सेनानी युद्ध छोड़कर साहित्य के मैदान में चला आया हो।''इसी बात को आगे बदतेहुएइ नामवरसिंह ने कहा यह है .जयादा सही यह है की वह वीर सेनानी doctor रामविलास स्वम हैं. '' सन १८५७ का स्वतंत्रता संग्राम, जिसे अंग्रेजों ने सैनिक विद्रोह तथा कुछ भारतीय इतिहासकारों ने ग़दर कहा था। यह आन्दोलन डॉक्टर रामविलास शर्मा के लेखन का प्रस्थान बिन्दु है। उन्होंने इसे भारतीय स्वाभिमान का उभार माना है। भारत में व्यापत जाती प्रथा और अंगरेजी राज्य की स्थापना के बारे में उनका स्पष्ट मत रहा है की भारत में जातीय बंटवारा अंग्रेजों के आने से पहले था और बाद में भी रहा, लेकिन अंग्रेजों के आने से पहले इतनी granaspad कट्टरता नही थी। लोगों के बीच इस घरना की खाई को चोंडा करने का काम अंग्रेजों का रहा हैं। इसी sandrabh में उनकी यह manyata हैं की हिंदू-muslim dange इतनी badi matra में नही होते थे। वे likhte हैं की हिंदुस्तान की आजादी के लिए हिंदुस्तान की लादे, लेकिन अंग्रेजों ने kootniti का sahaara लेकर देश को aajad होते देख उसका धार्मिक आधार पर बंटवारा कर दिया।
अंग्रेजी का महत्व कम हो और उसकी जगह हिन्दी और भारतीय भाषाओँ का प्रभाव बड़े, यह डॉक्टर रामविलास शर्मा की सबसे बड़ी चिंता है। अमेरिका और इंग्लैंड की भाषा सम्बन्धी नीति का हवाला देते हुए वे लिखते हैं -''ब्रिटेन और संयुक्त राष्ट्र अमेरिका, दो ऐसे देश हैं, जो अन्य देशों की पूँजी का निर्यात करते हैं, जो प्रछन्न और प्रकट रूप में से उपनिवेशवाद का पोषण करते हैं, जो अपने प्रभाव को साम-दाम-dand - भेद की बहुरंगी नीति से सुरक्षित करके और व्यापक बनने में लगे हुए हैं। राजनीति से लेकर शिक्षा और संस्कृति तक जिस देश में जैसे बन पड़े हैं, यह घुसने, पैठने, अपनी जड़ें ज़माने की कोशिश करते हैं। इनकी भाषा सम्बन्धी एक स्पष्ट नीति हैं, पहले के समान यहाँ की भाषाओँ को दबाकर रखना, उनके ऊपर श्रीश स्थान पर अंगरेजी को जमकर रखना। इससे यह लाभ होता है की आपके मर्मस्थल पर प्रहार करके आपको कमजोर बनाकर, वे आपको ओनी स्वार्थ निति की ओर आसानी से खिंच सकते हैं। मर्मस्थल हैं, जातीय भाषा के प्रेम का स्थल, जातीय संस्कृति के प्रेम का स्थल, राष्ट्रीय आतम गौरव का स्थल। आदमी को उस स्थल पर मारिये, उसे भीतर से निर्वीर्य कर दीजिये, फिर बलि पशु को चाहे जिस खूंटे से बांधकर उसका वध कर दीजिये।"
डॉक्टर शर्मा का सपना है की भारत का समाज एक समता मूलक समाज बने, जो विदेशी मूल्यों का अनुकरण न करते हुए प्रगतिशील बने, उन्हें भारतीय संस्कृति की गरिमा का ख्याल हमेशा रहता है, इसीलिए वे ऋग्वेद, महाभारत, रामायण, पुराण आदि से सन्दर्भ प्राप्त करते हैं. जितनी व्यापक द्रष्टि के साथ उनका लेखन है, उतनी ही व्यापक द्रष्टि के साथ उसका मूल्यांकन किया जिए, तभी न्याय सांगत मूल्यांकन होगा.

गुरुवार, 20 नवंबर 2008

स्त्री की मानसिकता को बदलती वित्तीयपूंजी

सामंतवादी व्यवस्था में स्त्री को दासियों, वैश्याओं आदि विभिन्न रूपों में जीवन जीने के लिए मजबूर होना पड़ता था। जहा-जहा सामंतवादी व्यवस्था लंबे समय तक रही है वहा-वहा स्त्री के स्थिति आज भी दयनीय हैं। इसका आकलन आज भी किया जा सकता है। पूंजीवादी व्यवस्था मे स्त्री की आजादी का नारा इतनी जोर से लगाया जाता है की उसके शोर में स्वयं स्त्री को पता ही नही चलता वह कब मुक्त नारी में तब्दील हो गयी। पूंजीवाद में स्त्री को स्वतंत्र असली है या नकली। आश्चर्य तो तब होता है जब वह स्वयं को इस मृगमरीचिका में कब और कैसे पहुचाया गया। इसका पता उसे नही चल पाया। यह काम इतने छदम रूप में किया गया हैं की स्वयं स्त्री को न मालूम हो सका की यह स्वतंत्रता असली है या नकली। आश्चर्य तो तब होता है जब वह स्वयं को इस मृगमरीचिका में प्रसन्न पाती हैं। घूंघट, साडी, बुरका जैसे परंपरागत परिधानों को पूंजीवाद ने स्त्री के गुलामी का प्रतीक और उसकी प्रगतिशीलता का विरोधी बताकर उसके मन को इतना बदल दया है कि वह इन्हे छोड़ने के लिए छटपटाने लगी है। यहाँ साड़ी, घूंघट और बुरका की बात से आशय यह नही है स्त्री को वापस आदिम युग में भेजने की वकालत की जा रही है। कम से वस्त्र धारण कर वह स्वतंत्र और आधुनिक नारी में परिवर्तित होने के लिए उत्कंठित दिखाई दे रही है। महाभारत की कहानी में द्रोपदी का चीर दुशासन खीचता है। दुशासन सामंतवादी व्यवस्था का उदाहरण है। जहा स्त्री को nagna देखने की लालसा में पुरूष छदम कृत्यों और बाहुबल का प्रयोग करता है।
पूंजीवाद समय में पुरूष की इस लालसा की पूर्ति वित्तीय पूंजी करने लगती हैं। और दुशासन का काम करने के लिए स्त्री को ही तैयार किया जाता हैं। उसे धन, यश और स्वतंत्र नारी की कल्पना की मिश्रित शराब इस हद तक पिलाई जाती है की इसके नशे में धुत्त होकर वह अपने ही हाथों से अपने वस्त्र उतरकर आजाद नारी के रूप में प्रकट होना चाहती है। इस नशे में वह देह के उस पार जा कर विदेह में बदलना चाहती है। जहा सांसारिक लोक लाज मानवीय सम्बन्ध का तकाजा सब बेमानी हो जाए। स्त्री के मानसिक स्टार को वितत्य पूँजी के सहारे इतना बदल दिया जाए की उसे सभी वर्जनाये नागपाश की तरह दस्ती नजर आने लगे । इनसे जितने जल्दी हो सके वह मुक्त होना चाहती है। महाभारत की कहानी में बेबस द्रोपदी की प्रार्थना सुनकर कृष्ण दौड़ते हैं और उसकी लज्जा की रक्षा करते हैं लेकिन आज जो स्त्री अपना chirharan ख़ुद ही कर रही हैं उसे न तो कृष्ण की जरूरत है और न ही इसके लिए उसे प्रारथना ही करनी है। यहाँ तो शरीर की रासलीला जारी है।
आज स्त्री की आजादी की बात पुरूष करता है और स्त्री पर अंकुश लगाने की बात भी पुरूष करता है। यहाँ यह जरूरी है की स्त्री की स्वाधीनता की पक्षधर संस्थाएँ यह जांच ले की जो लोग उसकी आजादी की बात कर रहे हैं उनके निहितार्थ क्या है? अंकुश लगाने वालों की बात तो स्पष्ट है पर इन लोगों से सावधान रहने की आवशयकता है जो मुक्ति के लिए अपनी छाती लहूलुहान किए हुए घूम रहे हैं। असल में यह लोग छदम कर्मों के द्वारा स्त्री के मानसिक स्पंदन को जीत कर अपनी स्वार्थ सिद्धि का मार्ग प्रशस्त करते हैं। गाँधी ने नारी की आजादी की बात की थी। इस आजादी में उसके जीवन की गरिमा सुरक्षित थी। वहा उसके पूर्ण व्यक्तित्व को निर्मित करने के उपाय मौजूद थे। लेकिन स्त्री स्वाधीनता का यह गाँधीवादी फार्मूला प्रयोग में नही लाया गया क्योकि वहा नग्नता और विलासिता के लिए जगह मौजूद नही है। यह बात पूंजीवाद को मंजूर नही है। स्त्री की आजादी के लिए लगे हुए लोग किसी अर्ध विकसित नारी को मॉडल banaakar समाज में पेश करते हैं। इस हित साधने वाली चालाक कोशिश के पीछे का छिपा हुआ भाव यह है कि उसके बहाने औरों को भी प्रलोभित किया जा सके। मछुआरे मछली को फसाने के लिए बंसी में केचुए का मांस फसाते हैं। आज स्त्री की मासलता को स्त्री के विरुद्ध प्रयोग में लाया जा रहा है। ऐसा करने वालो की हिकमत की दाद देना पड़ेगी कि ये न तो उस स्त्री को पीड़ा, लज्जा, ग्लानी महसूस होने देते हैं जिसकी मासलता का प्रयोग वे दूसरी के विरुद्ध करते हैं और न ही उस स्त्री को जो उनके जाल में फंसती है। असल में वित्तीय पूँजी स्त्री की दृष्टियों की रौशनी इस तरह से हरती है कि उसे wahi दिखाई पड़ता है जो उसे निर्देशित किया जाता है। वित्तियापूंजी का यह प्रभाव जीवन के हर क्षेत्र पर भी पड़ता है। स्त्री समाज की तड़प यह है कि वह उन्मुक्त/मौड़ स्मार्ट दिखना चाहती हैं। सदियों से दबी कुचली इस भावना के विरुद्ध उसका जोश समझ में आता है लेकिन स्त्री की आजादी के बहाने पूँजी बनाने वालों के लिए उसकी यह कमजोरी फायदे का सौदा बन गई। परिणाम यह हुआ कि वे कहने लगे ''तुम्हे हो जो बात पसंद वही कहेंगे।'' बस इसी भाव के सहारे स्त्री का दोहन शुरू हुआ। इस झूठी आजादी के झांसे में स्त्री फँसी हुई दिखाई पड़ रही हैं।
जिन मूल्यों के सहारे इन महान नारियों के व्यक्तित्त्व का निर्माण हुआ है और जो नारी जाती के स्वाभिमान के प्रतिक बन सकते हैं उन पर बात नहीं की जाती क्योंकि इनसे वित्तीय पूँजी का न तो पेट भरता है और न उसकी विलासितापूर्ण लालसा की पूर्ति हो पाती। पिछले दिनों एक स्त्री की प्रसूति को नेट के जरीए सीधा प्रसारण किया गया। जिसके लिए उसे एक मोटी रकम भी दी गई। आप विचार कर देखे तो पाएंगे कि पक्षियों और पशुओं की मादाएं भी एकांत में प्रसूति करती हैं। यहाँ तो सभ्य कहलाने वाला मनुष्य, स्त्री के इन अत्यन्त निजी क्षणों को पूंजी के बल पर अपनी लालसा की पूर्ति के लिए खरीद रहा हैं। उसका यह कृत्य निसंदेह पशु प्रवृति से भी निचे का है। यह पूंजी की ताकत है कि उसने स्त्री के निजी क्षणों को न केवल ख़रीदा बल्कि खरीदने से पहले उसमे यह निर्लज्ज भाव पैदा किया कि उसका यह कृत्य न केवल ख़रीदा बल्कि खरीदने से पहले उसमे यह निर्लज्ज भाव पैदा किया की उसका यह कृत्य न तो लज्जास्पद है और न ही nafarat के योग्य। आप विचार करे तो आप इस कृत्य में अनुसन्धान या शोध का कोई विचार नही पाएंगे। बल्कि यह निपट निर्लज्जता और न्यूनतम दर्जे की विलासिता का प्रतीक हैं। विचार योग्य यह भी है के क्या bena पूँजी के यह सब कुकृत्य सम्भव था।
सच तो यह है की जिसे आज स्त्री की आजादी का समय कहा जा सकता है, यह स्त्री की आजादी का समय नही है। यह उसकी नयी पराधीनता की नयी कारागार है जिसकी दीवारे पारदर्शी बताई तो जा रही हैं पर वे पारदर्शी नही हैं।