मंगलवार, 14 सितंबर 2010

आत्म चिंतन का दिन भी है , हिन्दी दिवस

आज हिन्दी दिवस मनाते हुए ऐसा क्यों लगता है कि हम केवल एक औपचारिकता निभा रहे हैं। क्यों इसके प्रति कोई आत्मिक भाव बोध नहीं जागता ? क्यों ऐसा नहीं लगता कि भाषा हमारे लिए बहुत महत्व की चीज है ? ऐसा इसलिए नहीं लगता क्योंकि आज का भारत वह भारत नहीं है जिसका स्वप्न गाँधी, लोहिया जैसे अन्य अनेक महान लोगों ने देखा था। भाषा को देष की सांस्कृतिक अस्मिता मानने वाले इन लोगों के प्रयासों का प्रतिफल है यह दिन। इन लोगों ने सोचा था कि हम भी आगामी पीढ़ियां इस प्राचीन देष की अद्वितीय सांस्कृतिक धरोहर को अपनी भाषाओं के सहारे जीवित रखेंगी। लेकिन पीढ़ियां ऐसा नहीं कर सकी। और अब आज का भारत गाँधी, आम्बेडकर और लोहिया के स्वप्नों वाला भारत नहीं रहा। आज का भारत अमरीकीय दृष्टिपथ पर आकार ले रहा भारत है। इसीलिए अपनी भाषा की स्थापना का दिवस मनाते हुए मन में कोई स्वाभाविक राग नहीं दिखाई पड़ता। किसी भाषा के प्रति अनुराग एक दिन में पैदा नहीं किया जा सकता। अनुराग और प्रेम के लिए पूरी जिन्दगी चाहिए। आजादी के इन 61 वर्षों में हमने अपनी पीढ़ियों के मनों में अपनी मातृभाषाओं के प्रति कोई लगाव पैदा नहीं किया। इन भाषाओं को उनके कैरियर के अनुरूप नहीं ढाला जिसका दुष्परिणाम हमारे सामने है। ’’लगे रहो मुन्नाभाई’’ फिल्म का एक डाइलाॅग याद करें जिसमें अभिनेता संजय दत्त कहता है कि ’’हृदय परिवर्तन’’ जैसा शब्द बोलने से ऐसा लगता है कि मानो सुनने वाले का हार्ट फेल हो गया है। देष में यह स्थिति अकस्मात उभरी है। इसके पीछे एक लम्बा षड़यंत्र है। अपनी भाषा के शब्दों के प्रति लगाव क्यों होना चाहिए इसकी जरूरत पर प्रकाष डालते हुए सन् 1967 में डाॅ. राममनोहर लोहिया ने कहा था -’’षब्द आसमान से नहीं टपकता, शब्द जुड़ा हुआ रहता है, देष की मिट्टी के साथ, देष के इतिहास के साथ, कथाओं और किंवदन्तिओं के साथ। जैसे गांगा शब्द कोई सुनता है भारतवर्ष में, तो गंगा का जो मतलब होता है वह न जाने कितना, ढेर सा चित्र दिमाग में एक साथ आ जाता है(पुस्तक समता और सम्पन्नता-पृष्ठ 90)। एक शब्द की मृत्यु का मतलब है एक समूची व्यवस्था का मर जाना। एक आदमी की मृत्यु के रिक्त स्थान को दूसरे आदमी से भर पाना संभव है पर एक शब्द की मृत्यु की भरपाई असंभव हैं क्या यह दुःखद नहीं है कि हमारी भाषा के हजारों शब्दों की रोज हत्या हो रही है और सप्रयास की जा रही है, पर इस सबसे हम उसकी तरह बेखबर है जैसे अन्धे आगे किसी हत्या हो और उसे पता ही न चले। हमारे अन्धत्व के मोटे तौर पर दो कारण हैं। एक तो यह कि हमें भ्रम है कि हमारा जो आर्थिक विकास हुआ और आगे भी होगा। दूसरा यह कि अंग्रेजी भाषा के प्रति लगाव ने हमें संज्ञाहीन बना दिया है। जिसके कारण उसके आर्तनाद के स्वर हमारे कानों को सुनाई ही नहीं पड़ते। गुलाम भारत में भारतीय भाषाओं के सामने इतना बड़ा संकट न था जितना बड़ा संकट आजादी के इन 61 वर्षों में पैदा हुआ है या किया गया है। हमारा जो आर्थिक विकास हुआ है वह हमारे यहां मौजूद प्राकृतिक संसाधनों, मेहनतकष किसानांे, मजदूरों और हमारे पुरखों द्वारा दिए गए संस्कारों का सुफल है। इसको गइराई से जांचे बिना नहीं समझा जा सकता। केवल वैष्विक बिलिज, आर्थिक उदारीकरण के कारण ही ये परिवर्तन नहीं आए है। लेकिन ये बातें ऐसे अर्थ मंत्री की समझ में नहीं आएगी जो कहते हैं कि ’भारत कभी सोने की चिड़िया नहीं रहा।’ लेकिन यह बात देष का अपढ़ आदमी भी जानता है कि डाका उसी पर पड़ता है जिसके पास सम्पत्ति होती है। और भारत के सदियों लूट जाने की गाथा सबको विदित है अलावा कुछ तथाकथित आर्थिक चिंतकों के।
आज के युवक की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि अंधी आर्थिक व्यवस्था ने उसे धृतराष्ट्र बना दिया है। उसे केवल वहीं सुनाई पड़ता है जो संजय रूपी बाजार का विज्ञापन उसे सुनाते हैं। आर्थिक मोह ने उसकी संज्ञा को इतनी गहराई से जकड़ा है कि उसके विवके ने काम करना बन्द कर दिया है। अब वह उसे बाजार, रोबोट की तरह भी संचालित कर रहा है। विवके के बिना चिन्तन नहीं होता और बिना चिन्तन के जीवन और जगत की पर्तें नहीं खोली जा सकती है और माया का संबंध जीवन और जगत दोनों से है। यह ठीक है कि साक्षरता का प्रतिषत बढ़ा है लेकिन यह भी ठीक है कि इन साक्षरों में ऐसे लोगों का प्रतिषत भी बढ़ा है जिनकी निगाह में जीवन का मतलब केवल सुख के संसाधनांे की भीड़ जमा करना भर ही जीवन है। देष, संस्कृति, भाषा आदि से उनके सरोकार बस उतने ही हैं जो उनके जीवन के खांचे में फिट बैठते हो। आखिर ऐसी मनोदषा वाले नागरिकों के सहारे आप अपनी प्राचीन धरोहर को सुरक्षित रखने का स्वप्न कैसे साकार कर सकते है ? ऐसे में अगर हमारी भाषाओं पर संकट है तो हुआ करे। इन भाषओं का साहित्य मर रहा है, तो मरे हमारी युवा पीढ़ी हर हाल में फीलगुड कर रही है। यह व्यवस्था आज की उपज नहीं है। इसकी जड़ें बहुत दूर तक जाती हैं। इसे पैदा करने में अनेक ऐसे नाम कटघरे में खड़े हरे जते हैं जिन्हें भ्रमवष हम भारत को उद्धारक मान बैठे हैं। अगर सूझबूझ से काम लिया गया होता तो देष के लिए एक नारा उछाल दिया गया है कि ’’हिन्दी विष्व भाषा बनने जा रही है।’’ मित्रों भ्रम में रहने की जरूरत नहीं है। यह नारा छद्म भरा एक वाक्य है। जो ऊपर से आकर्षक लग रहा है पर है यह सफेद झूठ। मैं पूछता हूं कि विष्व भाषा बन रही हिन्दी के साहित्य को जानने और समझने वालों की संख्या निरन्तर घट क्यों रही है ? कितने सुषिक्षित नवयुवक हैं जो हमारे कवियों और लेखकों को पढ़कर समझने का दावा कर रहे हैं। कितने ऐसे नवयुवक हैं जो आर्थिक चकाचैंध को छोड़ भाषा के द्वारा अपना कैरियर बनाने के लिए उद्यत है ? क्या विष्व भाषा बन रही हिन्दी के संबंध में ये प्रष्न महत्व नहीं रखते। यहां हिन्दी प्रदेष के छा़त्रों का यह हाल है  िकवे हमारे रचनाकारों के नाम तक नहीं जानते। हां, अपवाद आप छोड़ दीजिए, मैं समूची व्यवस्था की बात कर रहा हूँ। इन पंक्तियों के लेखक से एक पढ़े-लिखे युवा ने प्रष्न किया था कि महादेवी वर्मा पुरूष है या स्त्री ? क्या अब भी आपको लगता है कि इन्हीं नवयुवकों के सहारे आप भाषायी विजय करने जा रहे हैं। हिन्दी में विज्ञापन इसलिए दिए जा रहे हैं कि विज्ञापनदाता कंपनियों का स्वार्थ इसी के द्वारा पूरा होता है। इन विज्ञापनों को देखकर यह विचार करना गलत है कि हिन्दी का विकास हो रहा है। अभी भारत सरकार के प्रतिष्ठानों में ही शत-प्रतिषत कार्य हिन्दी में नहीं हो रहा है। इस कार्य के लिए संवैधानिक दृष्टि से 15 वर्षों की अवधि निर्धारित की गयी थी। जहां तक बाजार की भाषा का सवाल है, इसके बारे में यह जानना भी ठीक है कि बाबर लिखित बाबरनामा में कहा गया है कि वहां के बाजार में हिन्दी भी एक भाषा थी पर क्या इससे हिन्दी वहां स्थापित हो गयी ?
गांधीजी ने सन् 1935 में इन्दौर में भाषण देते हुए कहा था -’’इस मौके पर अपने दुःख की भी कहानी कह दूं। हिन्दी भाषा राष्ट्रभाषा बने या न बने मैं उसे छोड़ नहीं सकता। तुलसीदास का पुजारी होने के कारण हिन्दी पर मेरा मोह रहेगा ही। लेकिन हिन्दी बोलने वालों में रवीन्द्रनाथ कहां हैं ? प्रफुल्लचन्द राय कहां हैं ? जगदीष बोस कहा हैं ? ऐसे और भी नाम मैं बता सकता हूं। मैं जानता हूं कि मेरे अथवा मेरे जैसे हजारों की इच्छामात्र से ऐसे व्यक्ति थोड़े ही पैदा होने वाले है। लेकिन जिस भाषा को राष्ट्रभाषा बनना है उसमें ऐसे महान व्यक्तियों के होने की आषा रखी ही जायेगी। (गांधी, आम्बेडकर और भारतीय इतिहास की समस्याएं पृष्ठ-6)। इन पंक्तियों में गांधी के दुःख की जो कहानी है वह सन् 2008 तक कितनी और अधिक बड़ी हुई है। पाठक विचार कर सकते हैं। समर्पित हिन्दी सेवियों और सरकार के बीच कोई समन्वय अभी तक नहीं बना।
आम्बेडकर देष के जिस वर्ग की लड़ाई लड़ रहे थे उसका विकास भाषा के प्रष्न से जुड़ा है। विकास की सीढ़ियां जिस अंग्रेजी के सहारे चढ़ी जाती है उससे देष के गरीबों का संबंध नहीं जुड़ पाया। परिणाम यह है कि आरक्षित पदों को भरने के लिए जब परीक्षाएँ ली जाती हैं तो सुपात्र नहीं मिलते और पद वर्षों-वर्षों रिक्त रहते हैं। ऐसे में आरक्षण की मूल भावना की हत्या हो जाती है। ये लोग सुपात्र नहीं थे, यह बात नहीं है बल्कि अंग्रेजी के माध्यम से सुपात्र ढूंढने की व्यवस्था गलत है। जनतंत्र में सब एक व्यवस्था का दूसरे से कैसे अविभाज्य संबंध है इस पर प्रकाष डालते हुए आम्बेडकर ने लिखा था -’’जहां सामाजिक और आर्थिक जनतंत्र न हो, वहां राजनैतिक तंत्र सफल नहीं हो सकता। सामाजिक और आर्थिक जनतंत्र के वे रग और रेषे हैं, जिनसे राजनीतिक लोकतंत्र निर्मित होता है। ये रग रेषे जितने पुष्ट होते हैं, उतना ही शरीर पुष्ट होता है। लोकतंत्र समानता का दूसरा नाम है। संसदीय लोकतंत्र ने स्वतंत्रता के लिए उत्साह दिखाया। लेकिन समानता के प्रष्न की ओर उसने आँख उठाकर भी नहीं देखा। स्वतंत्रता समानता को निगल गयी।’’ (गांधी, आम्बेडकर और भारतीय इतिहास की समस्याएं पृष्ठ-602)। आम्बेडकर जी सामाजिक समानता का जो ऐतिहासिक प्रष्न उठाते है उसका संबंध भाषा से सीधे-सीधे जुड़ता है। सन् 1965 में उत्तर प्रदेष के विधायकों को संबोधित करते हुए हुए डाॅ. राममनोहर लोहिया ने कहा था -’’अंगे्रजी कस हिन्दी से आज भी झगड़ा है। इसलिए नहीं कि उससे हमारे सम्मान को या इज्जत को धक्का पहुंचता है। यह परदेषी भाषा है। लेकिन उससे और बड़ा सबब दूसरा यह है कि यह भाषा पहले की और भाषाओं की तरह हमारे देष को बिल्कुल दो हिस्सों में बांट देती है। एक तो अभिजात और दूसरा साधारण जनता में इतना फर्क हो जाता है। जनतंत्र असंभव है, ऐसी स्थिति में जनतंत्र कहना तो अपने-आपको फुसलावा देना हैं इस बात को छोड़ दीजिए। भाषा की ओर से भी जनतंत्र हमारे देष में हैं नहीं। यह भी अपनी भाषा के बिना संभव नहीं हो सकता है हिन्दुस्तान में। लेकिन इससे भी बड़ा मेरा सबब है और वह यह कि हिन्दुस्तान की गरीबी और उसका अज्ञान है। इन दोनों का शायद सबसे बड़ा कारण अंगे्रजी भाषा का चलन है।’’ (समता और सम्पन्नता पृष्ठ-80) 
हिन्दी, संस्कृति, साहित्य, कला पर चिन्तन मनन करने और विचारों को प्रकट करने वाले सुधीजनों की कमी नहीं है पर जैसे नक्कारखाने में तूती (तुरही) की आवाज सुनी नहीं जा रही है। वैसे ही इनके चिन्तन को दबा दिया जाता है। लेकिन कोई न सुने इससे बात का महत्व कम नहीं होता। जब घना अंधेरा तो छोटा दीप भी महत्ववान होता है। इस 21 वीं सदी में विराट आर्थिक उदारीकरण और विष्वग्राम के भीषड़ नगाड़े की ध्वनि के बीच हमें अपने आवाज को उठाने से कौन रोक सकता है। कौन जाने एक दिन ऐसा आए, जब हमारी भाषाएँ अपना वर्चस्व पुनः स्थापित कर पाएं।

शनिवार, 11 सितंबर 2010

बाजार और धर्म

 बाजार में सब बिक रहा है धर्म इससे अछूता नहीं है . आज गणेश चतुर्थी का दिन और बाजार   में भगवान् गणेश की मूर्तियाँ बड़े पैमाने पर बिक रही हैं . श्रधा का दोहन बाजार कैसे करता यह विचारणीय है . गणेश को बुध्धि  का देवता मना गया है . पूर्वजों ने गणेश का जो स्वरूप गढ़ा है वह अद्भुत है . सभी देवताओं  के अपने -अपने वाहन हैं . गणेश का वाहन चूहा बताया गया है . सभी देवताओं में गणेश का बजन ही सबसे अधिक होना चाहिए फिर उनका वाहन इतना कमजोर  क्यों ? असल में ज्ञान का कोई बजन नहीं होता और ज्ञान तब तक बेकार है जब तक वह तर्क पर आरूड न हो . वह ज्ञान किस काम का जो समय के अनकूल तर्क पैदा न कर सके . हामारे पुरखों नें यही सन्देश भगवान गणेश के माध्यम से देने की सोची होगी . आज इस कम्प्यूटर के युग में भी देखें कि बिना माउस के कम्प्यूटर  किसी काम का नहीं  होता यानी कि ज्ञान को तर्क चाहिए ही .चूहा ही एक ऐसा प्राणी है जो रात और दिन काट पीट करता रहता है . कहते हैं कि एक बार एक शेर  जाल में फंस गया था . बलशाली शेर को जाल से मुक्त करने का काम  चूहे ने किया था , शेर के पास बल था किन्तु तर्क चूहे के पास था और बल को मुक्ति तर्क ने दी . जरूरत है कि आज के बाजार रूपी शेर से तर्क के सहारे मुक्ति पाने की .न कि आँखें बंद कर अपनी  गरदन  बाजार रूपी शेर के सामने कर देनी की . प्रार्थना के जो उपाय पुरखों ने दिए उन पर चिंतन करने के वजाय लोग आँखें बंद किये हुए हैं इसका लाभ बाजार को मिल रहा है  भगवान् गणेश का जन्म  दिन के मध्य भाग में माना गया है . राम भी दिन के बारह  बजे ही प्रकट हुए थे और भगवान् क्रष्ण रात बारह बजे . भगवान् ईसा मशीह का जन्म भी रात बारह बजे माना जाता है .इनके अलावा और भी अनेक शक्तियाँ हैं जो बारह बजे अवतरित  हैं .यह अलग से एक  चिंतन का विषय है लिकिन हमारे पुरखों भगवान गणेश के वारे में जो कुछ कहा है उस दर्शन की व्याख्या की जानी चाहए न कि आँखें मूँद कर काम करते रहें . भगवान गणेश को  मोदक बहुत प्रिय हैं .इसका एक मतलब यह भी निकलता है कि जिस पिता का पुत्र हमेशा मोदक ही खाता रहे वह पिता, गणेश भगवान् के पिता शंकर की तरह लंगोटी ही लगाए गा .  इसलिए जो स्थूल दिख रहा उससे अधिक उसके पीछे  छिपा हुआ अर्थ  है जरूरत उसे पकड़ने की है . भगवान गणेश हमें ऐसा ज्ञान दें जो आज के बाजार रूपी दैत्य से लड़ सके . आज के दिन  हम यही प्रार्थना करते हैं .

रविवार, 5 सितंबर 2010

आगामी दस वर्ष और भारत का भविष्य

   भविष्य का आकलन करना निःसंदेह सबसे कठिन कार्य है। लेकिन आज के भारत की नब्ज देखते हुए आगामी दस वर्षों के स्वरूप  के बारे में अनुमान लगाया जा सकता है। आज पन्द्रह अगस्त के दिन सन् 2010 में आगामी दस वर्ष बाद के भारत का आकलन किया जा सकता है। दस वर्ष बाद अर्थात् सन् 2020 में जब हम स्वतंत्रता दिवस मना रहे होंगे, वह आजादी की 70 वीं वर्षगांठ होगी। आज की तरह ही उस दिन भी हम अपने अमर शहीदों को याद करेंगे और राष्ट्रध्वज को सलामी देंगे। लेकिन इस पूरे कार्य में समर्पण की भावना में  कमी आने की संभावना अधिक है तथा एक कृत्रिमता आने की संभावना ज्यादा है। दस वर्ष बाद समूचे विष्व का परिदृष्य बहुत बदल चुका होगा। जैसा कि पिछले 10 वर्षों में बदला है। आज से 10 वर्ष पहले स्वतंत्रता दिवस और अन्य राष्ट्रीय दिवसों को मनाते हुए जो गरमाहट, समर्पण और अहलाद तथा राष्ट्रीयपन का भाव होता था, वैसा 10 वर्ष बाद दिखाई नहीं पड़ेगा। इसके लिए जहां समय अवधि जिम्मेदार होगी वहीं हमारी षिक्षा तथा मौजूदा नेताओं का चरित्र जिम्मेदार होगा। जिन राष्ट्रीय मूल्यों और उद्देष्यों को लेकर स्वतंत्रता आंदोलन लड़ा गया था, वे मूल्य धाराषायी होते हुए दिखाई पड़ेंगे। क्योंकि आजादी के तुरंत बाद यह राष्ट्र उन मूल्यों की रक्षा के लिए तत्पर दिखाई नहीं पड़ा। इसके लिए एक उदाहरण भाषाओं के संबंध में लेना पर्याप्त होगा। गांधीजी स्वराज्य में या आजाद भारत में अपनी भाषओं को बढ़ता हुआ देखना चाहते थे, क्योंकि उनके लिए आजादी और भाषाई स्वतंत्रता दोनों का एक ही मायने था। इसलिए वे कहते थे -’’ मेरा नम्र लेकिन दृढ़ अभिप्राय है कि जब तक हम भाषा को राष्ट्रीय और अपनी प्रांतीय भाषओं में उनका योग्य स्थान नहीं देंगे, तब तक स्वराज्य की सब बातें निरर्थक है।’’ (सन् 1918 में इन्दौर में दिए गए भाषण से)। गांधीजी की दृष्टि में प्रांतीय और राष्ट्रभाषा के रूप  में हिन्दी को उचित स्थान न देने का मतलब गुलाम बने रहना जैसा ही था। आजादी के इन 63 वर्षों में भारत की अषिक्षित जनता को न्याय अभी भी उनकी भाषओं में नहीं मिल रहा हैं। आगामी 2040 वर्षों में संसार का भाषाई परिदृष्य कैसा होगा, इस पर यूनेस्को ने एक विस्तृत अध्ययन करवाया है इस अध्ययन में विष्व की सभी भाषाओं के बारे में भविष्य का आकलन किया गया है। भारत की भाषाओं के लिए खतरे की घण्टी बजते हुए सुनाई पड़ रही है। इस रिपोट्र में यह खुलासा किया गया है कि आगामी दशकों में भारत के प्रांतों की भाषाएं समाप्त हो जायेगी। और वे सिमटकर स्थानीय बोलियों के रूप में बचेगी। ऐसा होना निःसंदेह दुःखद होगा, लेकिन ऐसा होना इसलिए तय है क्योंकि आजादी के बाद भारतीय भाषाओं के संरक्षण के उपाय नहीं किये गये। उन्हें रोजगारोन्मुखी नहीं बनाया गया। केवल ऊपरी तौर पर प्रदर्षन कर भाषाओं के संरक्षण का ढोल पीटा गया है। विष्वभाषा के रूप में हिन्दी आगामी 10 वर्षों में स्थापित होते हुए दिखाई पड़ने लगेगी। अंग्रेजी भाषा का साम्राज्य कम होगा। वर्तमान में बाजार की भाषा के रूप में हिन्दी निरंतर ब़ढ़ रही है। भाषा का विकास व्यापार भी तय करता है। केवल साहित्य के सहारे भाषा का विकास नहीं होता। आज बाजारू हिन्दी को देखकर जो जन सोचते हैं कि भाषा के स्वरूप को बिगाड़ा जा रहा है वे देखेंगे कि आगामी 10 वर्षों में हिन्दी को विष्वभाषा के रूप में स्थापित करने में वे ही बाजार और बाजारू हिन्दी सहायक बनेगी। हिन्दी मीडिया, अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग में और आगे बढ़ेगी। और अंग्रेजी के शब्द हिन्दी व्याकरण के साथ आकर उसी तरह हिन्दी भाषा का हिस्सा बन जायेंगे, जैसे अरबी, फारसी, पश्तो, फ्रेंच, इटेली और अंग्रेजी के शब्द पहले से घुले-मिले हंै। 
     भारतीय समाज में तेजी से परिवर्तन आयेगा। सदियों से व्याप्त जातीय भेद-भाव और कुरीतियों से समाज मुक्त होगा। समाज में वैज्ञानिक सोच विस्तार पायेगा . महिलाओं की स्थिति पहले से बदलेगी। महिला सषक्तिकरण का कार्य सकारात्मक परिणाम दिखाएगा। षिक्षा का प्रचार-प्रसार बढ़ेगा, लेकिन समाज के सभी वर्गों तक षिक्षा नहीं पहुॅच पायेगी, जिसके कारण एक बहुत बड़ा वर्ग अविकसित अवस्था में जिएगा। यह अषिक्षित वर्ग और दयनीय स्थिति में जाएगा। आर्थिक विकास की यह अंधी दौड़ मनुष्य को स्वार्थी बनाएगी। वह अपने तई और अपने परिवार तक सीमित बनेगा। सामाजिक चिंताओं और राष्ट्रीय सरोकारों से दूर अधिकांष जनसंख्या केवल अपने लिए जिएगी। षिक्षा का उददेष्य मनुष्य को मनुष्यता सिखाने की बजाय केवल नोट कमाने का साधन बनाना भर बचेगा। एक ओर जातीय व्यवस्था कमजोर होगी तो दूसरी ओर धन के आधार पर वर्ग भेद पनपेगा, जो समाज में नये जातीय समीकरणों को पैदा करेगा।
  आगामी 10 वर्षों में एक वैष्विक संस्कृति और एक विष्व भाषा आकार लेने लगेगी। ग्लोबल बिलिज में अपनी-अपनी पहचान बनाए रखने के लिए भाषाएं और संस्कृतियां संघर्ष करते हुए दिखेगी। ऐसे समय में भारतीय संस्कृति अपने वैज्ञानिक तथ्यों पर खरी उतरकर नये स्वरूप में ढलकर विष्व संस्कृति का रूप ग्रहण करने लगेगी। ऐसा इस आधार पर कहा जा सकता है कि विष्व की जो अति-प्राचीन संस्कृतियां हैं, उनमें केवल भारतीय संस्कृति अपने मूल के साथ अनेक आक्रमणों को झेलकर जीवित बची है। इसी आधार पर गांधीजी ने हिन्द स्वराज्य में लिखा था-’’मेरी मान्यता है कि भारत नें जो सभ्यता विकसित की है, वहां दुनिया में कोई नहीं पहुंच सकता, जो बीज हमारे पुरखों ने बोए है, उनकी बराबरी कर सकने योग्य कहीं कुछ देखने मंे नहीं आया। रोम मिट्टी में मिल गया, ग्रीस का नाम भर बचा, मिस्त्र का साम्राज्य चला गया, जापान पष्चिम के शिकंजे में  आ गया और चीन का कुछ कहा नहीं जा सकता। किन्तु इन भग्वावस्था में भी भारत की बुनियाद अभी शेष है। यही शेष बुनियाद विष्व संस्कृति का आधार बनेगी। भारत की योग और आत्याध्मिक खोजें आगामी 10 वर्षों में विष्व मानव के लिए सहारा बनने लगेगी। भारतीय समाज पंडो, पुरोहितों, मौलवियों जैसे पाखंडियोें से मुक्ति पाते हुए प्रतीत होगा, जो सामाजिक समरसता और सामाजिक क्रांति के लिए एक महान कार्य होगा। आज की तुलना में मानव जीवन की गरिमा अधिक सुरक्षित होगी। भारत की वर्तमान पीढ़ी तथा आगामी 10 वर्षों में आने वाली पीढ़ी तकनीकी और प्रबंधन के क्षेत्रों में अपनी दक्षता का लोहा विष्व में मनवाएगी। विष्व के लगभग सभी देषों में दक्ष भारतीयों की उपस्थिति विष्व भर में भारतीय संस्कृति को स्थापित करने में मदद करेंगी। भारत के नये और पुराने ज्ञान-विाान मिलकर एक नये विष्व के निर्माण में सहायक होंगे। वर्तमान परिदृष्य से जिन्हें यह भय है कि कहीं भारत अपनी मूल पहचान न खो दे, वे 10 वर्ष बाद देखेंगे कि भारत अपनी अस्मिता के साथ समझौता किये बिना विष्व को डिक्टेट करेगा, वह दिन हमारे उस ऋषि की परिकल्पना को पूरा करेगा, जिसमें उसने वसुधैव कुटुम्बकम् का स्वप्न देखा था।

रविवार, 15 अगस्त 2010

आम आदमी का देश प्रेम

  

आज स्वतंत्रता दिवस  क६३वी वर्ष गांठ का अवसर  है . कर्मचारी  राज्य बीमा निगम  नंदा नगर इंदौर  ( मध्य  प्रदेश ) में एक  आयोजन  है इसमें शामिल होने का मुझे भी सौभाग्य मिला .  और सब कुछ तो  ठीक वैसा ही  था जैसा सब जगह होता है . राष्ट्र प्रेम के गीत गाये जा रहे थे . अभी कार्यक्रम चल ही रहा था की अस्पताल की इंचार्ज डॉ चित्रा मेहता के पास सन्देश आता है कि कार्यक्रम के बाद वे वार्ड न. ७ में आयें. ऐसी मरीजों की इच्छा    है . एक डॉ को मरीज का बुलाना स्वाभाविक बात है , पर आज के बुलावे में रिश्ता डॉ और मरीज तक सीमित न था बल्कि सम्बन्ध देश प्रेम से था .  ख़ैर डॉ चित्रा मेहता अपने साथी  उप चिकत्सा अधीकक्षक डॉ नरेंद्र  कुमार, डॉ उत्तमचन्द्र जैन , डॉ  मनोज विडवान  , डॉ पंकज  जैन , डॉ . सारदा , श्री के . सी झा . वित्त अधिकारी  और अन्य लोगों की पूरी टीम के साथ वार्ड न . ७ में प्रवेश करती हैं पर आज  वार्ड रोज जैसा न था .मरीजों की कराहों की जगह भारत माँ की जयकार थी . वार्ड में भर्ती मजदूर  गंभीर अस्थि रोग से जूझ रहे हैं .    पर आज उनके चहरे देश प्रेम से  चमक रहे थे मानो कह रहे हों की देश पर प्राण न्योछावर   करने वालों से मेरी पीड़ा बहुत  कम है. वे  बाहर निकल कर स्वतंत्रता दिवस न मना सकते थे .सो  उनके देश प्रेम  ने उन्हें वहीं ऐसा कुछ करने के लिए कहा . पूरा वार्ड ऐसे सजाया गया मानों  जन्म दिन हो . एक छोटी सी टेविल पर  फूलों से सजा  कागज से बना तिरंगा और हाँ एक फ़ैली हुई कटोरी में दीप जलाने  का प्रबंध भी  . यह सब प्रबंध किया था मोहम्मद अब्दुल   रूफ ने, इनका  भाई इकवाल कूल्हे  की टूटी हड्डी  के कारण अस्पताल में भर्ती है . भाई ,अब्दुल  रूफ ने पूरे उत्साह से  प्रवंध किया . राष्ट्र गान के बाद मुहम्मद रूफ ने अपने हाथो से सभी को मिठाई  बांटी .मुहम्मद रूफ खुद मिठाई  न ले रहे थे  क्योंकि यह रमजान  का महीना है . जितनी देर वार्ड में यह वातावरण था. किसी भी मरीज कि चहरे पर कोई शिकायत का भाव न था . सब भारत  माँ की जयकार में  डूबे रहे  .यह देख विश्वास गहरा हुआ कि देश पर प्राण अर्पित करने का ज़ज्बा कभी कम न होगा . कम से कम उस वर्ग में जिसके बल बूते पर हम बिना संदेह का भरोसा कर सकते हैं . कई बड़े -बड़ों से बहुत बड़ा है इन मजदूरों का देश प्रेम.. कम से कम उन से जो देश की सेवा करने के बहाने भ्रष्ट आचरण में डूबे हैं . [ आप सब को स्वतंत्रता दिवस की बहुत बधाई ]

मंगलवार, 10 अगस्त 2010

कविता हमारे परिपूर्ण क्षणों की वाणी है


        आज कल कुछ आलोचक यह कहने लगे हैं कि पंत का साहित्य  कूड़ा करकट है। अब इस साहित्य को पढ़ने-पढ़ाने की जरूरत नहीं है। पंत का साहित्य प्रासंगिक नहीं रहा।  रचनाकार प्रासंगिक है या नहीं, इसका निष्चय करना आलोचक का काम नहीं है। रचनाकार की प्रासंगकिता तय करने का अधिकार उसके पाठकों को होता है। कोई भी आलोचक चाहे कितना ही बड़ा हो लेकिन वह किसी रचनाकार से बड़ा नहीं हो सकता। बड़ा नहीं हो सकता के मायने तब, जब कि वह किसी रचनाकार की रचना प्रक्रिया पर बात कर रहा हो। आलोचक पर यह बात तब लागू नहीं होती जब वह स्वयं सृजन कर रहा हो और साहित्यिक प्रतिमानों की स्थापना कर रहा हो जैसे आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और डाॅ. रामविलास शर्मा ने किए हैं। जिस समय तुलसीदास ने रामचरित मानस लिखा, तो उस समय यह कहा गया था कि यह पुस्तक प्रासंगिक नहीं और लोगों ने रामचरित मानस की होली जलाई थी। तब से निरंतर आलोचक नुमा तथा कठगुल्ले तरह के असाहित्यिक समझ के लोग निरंतर कहते रहे और अभी भी कहते ही रहते हैं कि तुलसीदास का साहित्य प्रासंगिक नहीं है। वास्तविकता यह कि तुलसीदास किसी आलोचक की कृपा के बिना अपने-अपने प्रिय पाठकों के सहारे आज भी प्रासंगिक हंै और जब तक पाठकों को उनके काव्य में जीवन का अर्थ तथा साहित्यिक मर्म मिलेगा तब तक वे प्रासंगिक बने रहेंगे। कोई भी रचनाकार आलोचकीय कृपा के बिना अपनी रचनाओं की सार्थकता के सहारे अनन्त काल तक प्रासंगिक बना रह सकता है।
   पंत ने तुलसीदास के समान कुछ नहीं कहा। पंत ही क्यों कोई कवि न कह सका। हिन्दी में ही नहीं विष्व साहित्य में न कह सका। यह जरूरी भी नहीं कोई किसी महान कवि के समान लिखे ही। किसी महान कवि के समान न लिखने के बावजूद भी अन्य कवि महान हो सकते हैं। पंत अपने काव्य के साथ महान हैं। इस पर संदेह करने की जरूरत नहीं है। पंत की साहित्य यात्रा उपन्यास लेखन से शुरू हुई और बाद में वे कविता में आए। सच यही है कि कविता ही पंत के प्राण थे। कविता के विषय में जितनी मर्मस्पर्षी परिभाषा पंत करते हंै उतनी मार्मिैक परिभाषा अन्यत्र पढ़ने को नहीं मिलती। वे लिखते हंै:-’’ कविता हमारे परिपूर्ण क्षणों की वाणी है। हमारे जीवन का पूर्ण रूप, हमारे अन्तरतम प्रदेष का सूक्ष्माकाष ही संगीतमय है, अपने उत्क्ृष्ट क्षणों में हमारा जीवन छन्दमय ही बहने लगता है, उसमें एक प्रकार की परिपूर्णता, स्वरैक्य तथा संयम आ जाता है। प्रकृति के प्रत्येक, रात्रि-दिवस की आॅख मिचैनी, षणऋतु परिवर्तन, सूर्य-षषि का जागरण शयन, ग्रह-उपग्रहों का अश्रान्त नर्तन-सृजन, स्थिति, संहार, सब एक अनन्त छन्द, एक अखण्ड संगीत ही में होता है।
पंत रचनावली भाग-1 पृष्ठ 163

            पंत के लिए कविता प्राणों का संगीत है। कविता की लयात्मकता के प्रति पंत बहुत सचेष्ट हैं। वे लिखते हंै -’’कविता तथा छन्द के बीच बड़ा घनिष्ट सम्बन्ध है, कविता हमारे प्राणों का संगीत है, छन्द हृतकम्पन, कविता का स्वभाव ही छन्द में लयमान होना है। जिस प्रकार नदी के तट अपने बन्धन से धारा की गति को सुरक्षित रखते,- जिनके बिना वह अपनी ही बन्धनहीनता में अपना प्रवाह खो बैठती है, उसी प्रकार छन्द भी अपने नियंत्रण से राग को स्पन्दन, कम्पन तथा वेग प्रदान कर, निर्जीव शब्दों के रोड़ों में एक कोमल, सजल अलख भर, उन्हें सजीव बना देते हैं। वाणी की अनियमित सांसे नियंत्रित हो जातीं, तालयुक्त हो जातीं, उसके स्वर में प्राणायाम, रोओं में स्फूर्ति बंध जाती, उनके परिपूर्णता आ जाती है। छन्द बध्द शब्द, चुम्बक के पाष्र्ववर्ती लोहचूर्ण की तरह अपने चारों ओर एक आकर्षण क्षेत्र (मैग्ने फील्ड) तैयार करक लेते, उनमें एक प्रकार का सामंजस्य, एक रूप, एक विन्यास आ जाता, उनमें राग की विद्युत धारा बनने लगती, उनके स्पर्ष में एक प्रभाव तथा शक्ति पैदा हो जाती है।’’
पंत रचनावली भाग-1 पृष्ठ162-163

   पंत की भाषा और व्याकरण प्रयोग के विषय में काफी चर्चा होती है। पंत कविता में सुकुमार कवि के रूप में प्रसिध्द हंै। यह सुकुमारता उन्हें उनके जन्म स्थान कौसानी से प्राप्त हुई है। प्रकृति के सुदर स्वरूप उनके अवचेतन में पड़े हुए हंै, जो समय-समय पर कविता में प्रकट होते हंै।पंत की भाषा पर टिप्पणी करते हुए डाॅ. नगेन्द्र ने लिखा है -’’उनकी भाषा चित्रभाषा है, उनके शब्द भी चित्रमय और सस्वर हंै- देव की तरह उनकी रस-मधुरिमा भीतर न समा सकने के कारण बाहर छलकी पड़ती है। संगीत की दृष्टि से वह लोल लहरों का चंचल कलरव बाल झंकारांे का छेकानुप्रास है। उसके प्रत्येक शब्द का स्वतन्त्र हृतकम्पन, स्वतन्त्र अंग-भंगी, स्वाभाविक सांसे हंै। उसका संगीत स्वरों की रिमझिम में बरसता छनता-छलकता, बुदबुदों में उबलता, छोटे-छोटे उत्सों के कलरव में उछलता-किलकता हुआ बहता है। उसके शब्द एक-दूसरे के गले पड़कर, पगों से पग मिलाकर सेनाकार भी चलते हंै और बच्चों की तरह अपनी ही स्वच्छन्दता में थिरकते-कूदते भी हैं।
सुमित्रानन्दन पन्त पृष्ठ 66

   पंत स्वयं भी अपनी कविता और कविता की भाषा के विषय में लिखते हैं -’’कविता के लिए चित्र भाषा की आवष्यकता पड़ती है, उसके शब्द, सस्वर होने चाहिए, जो बोलते हों, सेब की तरह जिनके रस की मधुर लालिमा भीतर न समा सकने के कारण बाहर झलक पड़े, जो अपने भावों को अपनी ही ध्वनि में आॅखों के सामने चित्रित कर सके, जो झंकार में चित्र, चित्र में झनकार हो, जिनका भाव संगीत विद्युत धारा की तरह रोम-रोम में प्रवाहित हो सके, जिनका सौरभ सूंघते ही सांसों द्वारा अन्दर पैठकर हृदयाकाष में समा जाए, जिसका रस मदिरा की फेन राषि की तरह अपने प्याले से बाहर छलक कर उसके चारों और मोतियों की झालर की तरह झूमने लगे, छत्ते में न समाकर मधु की तरह टपकने लगे, अर्धनिषीथ की तरावली की तरह जिनकी दीपावली अपनी मौन जड़ता के अन्धकार को भेद कर अपने ही भावों की ज्योति में दमक उठे, जिसका प्रत्येक चरण प्रियंगु की डाल की तरह अपने ही सौन्दर्य के हृदय से रोमांचित रहे, जापान की द्वीप मालिका की तरह जिनकी छोटी-छोटी पंक्तियां अपने अन्तस्तल में सुलगे ज्वालामुखी को दबा न सकने के कारण अनन्त ष्वासोच्छवास के भूकम्प में कांपती रहे।
पंत रचनावली भाग-1 पृष्ठ160

   पंत ने जहां एक ओर कविता की लयात्मकता और छन्दबध्दता का पूरा ध्यान रखा है, वहीं कविता के लिए व्याकरण के नियम षिथिल करने पर जोर भी दिया है। पंत पर लिखित अपनी पुस्तक में डाॅ. नागेन्द्र कहते हंै -’’पन्तजी के शब्द जिस प्रकार एक ओर व्याकरण के कठिन नियमों से बध्द रहते हैं, उसी प्रकार दूसरी ओर राग के आकाष में पक्षियों की तरह स्वतन्त्र भी होते हैं, साथ ही अपने कलापूर्ण स्वभाव-वैषम्य के अनुसार वे स्थान-स्थान पर व्याकरण की कड़ियां तोड़ भी देते हैं। वे कहते हैं कि जो शब्द केवल अकारान्त या इकारान्त के अनुसार पुल्लिंग अथवा स्त्रीलिंग हो गये हैं और जिनमें लिंग का अर्थ के साथ सामंजस्य नहीं मिलता उन शब्दों का ठीक-ठीक चित्र ही आॅखों के सामने नहीं उतरता और कविता मंे उनका प्रयोग करते समय कल्पना कुण्ठित सी हो जाती है। इसीलिए प्रभात तथा उसके अन्य पर्यायों का जहां एक और स्त्रीलिंग में प्रयोग है, वहीं बूंद, कम्पन आदि का परिमाण के अनुकूल उभय लिंगों में। इसी प्रवृत्ति के अनुसार - अर्थात् शब्द और अर्थ में सामंजस्य स्थापित करने के लिए आपने संस्कृत के सन्धि-नियमों का भी उल्लंघन कर दिया है-जैसे ’मरूताकाष’ में। साथ ही अनेक स्थलों पर कर्ता के अनुसार क्रिया का लिंग निष्चय किया है। उदाहरणार्थ ’बालिका मेरी मनोरम मित्र थी।’ इस प्रकार शब्दों में प्रयुक्त कठोर व्यंजनों को विषेषकर ’ण’ कपो भाव के अनुसार सर्वत्र ही कोमल कर दिया है। पन्तजी के इस स्वभाव-वैषम्य पर रूढ़ियों के उपासक कुछ भी कह लें परन्तु उनकी कलात्मक आवष्यकता पर सन्देह करना सरल नहीं।’’
सुमित्रानन्दन पन्त पृष्ठ 69
पंतजी व्याकरण के नियमों के विरूध्द नहीं है, लेकिन कविता की सरसता बनाए रखना उन्हें व्याकरण के नियम तोड़ने के लिए प्रेरित करती है। ऐसा कार्य वही कवि कर सकता है, जो पूर्णरूपेण कविता के संसार में रमा हो और जिसके लिए कविता ही सर्वश्रेष्ठ वस्तु हो। वे लिखते हंै-’’जिस प्रकार शब्द एक ओर व्याकरण के कठिन नियमों से बध्द होते, उसी प्रकार दूसरी ओर राग के आकाष में पक्षियों की तरह स्वतंत्र भी होते हैं। जहां राग की उन्मुक्त स्नेहषीलता तथा व्याकरण की नियमवष्यता में सामंजस्य रहता है, वहां कोमल मां और कठोर पिता के घर में लालित-पालित सन्तान की तरह, शब्दों का भरण-पोषण अंग, विन्यास तथा मनोविकास स्वाभाविक और यथेष्ट रीति से होता है।’’
सुमित्रानन्दन पन्त रचनावली भाग-1 पृष्ठ 159
 छायावादी कवियों में प्रसाद, पंत, निराला और महादेवी वर्मा स्तंभ माने जाते हैं। ये चारों अपनी तरह से महान है, यद्यपि रहस्यवाद इन चारो कवियों की विषेषता रही है। लेकिन पंत अपनी काव्य यात्रा में जितने परिवर्तित होते हुए दिखाई पड़ते है, वह अद््भुत ही है। डाॅ. नगेन्द्र लिखते हंै -’’ प्रसाद का क्षेत्र हृदय प्रेम, निराला का दार्षनिक भाव जगत और पंतजी का प्रकृति और मानव का संपर्क तथा कला क्षेत्र का प्रभुत्व हुआ। उन्होंने हिन्दी कविता धारा को एक रूढ़ि से हटाकर एक नवीन दिषा की ओर प्रवाहित किया। उन्होंने ही वास्तविक गीत काव्य की कला का विकास विवर्धन किया है। सुमित्रानन्दन पन्त पृष्ठ 130
              अंत में पंतजी प्रकृति के मोहजाल से मुक्त होकर प्रयोगवादी कविता की ओर उन्मुख हुए थे, जो उनकी परिवर्तनषीलता और युग की मांग के अनुरूप सृजनषीलता को स्पष्ट करता है।

   पंत का साहित्य पाठक को एक ऐसे लोक में ले जाता है, जहां सुकोमल उपमाओं और भाषा के सुकोमल स्वरूप में वह खो जाता है। यह कहना ठीक नहीं है कि आज के समस्याओं भरे समय में पंत प्रासंगिक नहीं हैं, कोई भी रचनाकार अपने समय की आवष्यकताओं और समस्याओं से प्रभावित होकर रचना करता है। समस्याएं और आवष्यकताएं युग अनुरूप बदलती रहती हैं। यदि इस आधार पर आकलन किया जाये, तो कोई भी रचना बहुत समय तक प्रासंगिक न बचेगी।  प्रासंगिकता का अभिप्राय केवल जीवन की जटिलताओं का सामना करने वाली रचना हो यह आवष्यक नहीं ।   वास्तविकता यह है कि कविता एक औजार नहीं है, बल्कि वह एक माध्यम है जो मनुष्य के अंदर के संसार का परिवर्तन करती है, उसे संस्कारित करती है, उसे संबल देती है तथा एक अच्छे आदमी के निर्माण में सहायता करती है। साहित्य यही काम सदियों से करता रहा है और आगे भी करता रहेगा। कविता में प्रकृति का मानवीकरण मानवीय संवेदनाओं  एकाकार करने के उद्देष्य से हुआ है और पंत प्रकृति के कवि हंै। उनके काव्य में प्रकृति विविध रूपों में मौजूद है। प्रकृति परिवर्तनषील होते हुए भी अपरिवर्तनषील है, उसके नियम निष्चित हैं। इन नियमों कोई परिवर्तन उसे मंजूर नहीं। और इस प्रकार वह हर काल के मनुष्य के लिए संदेष भी देती है, दण्ड भी देती है तथा पालन - पोषण भी करती है। प्रकृति के इन्हीं रूपों के साथ पंत की कविता आज भी प्रासंगिक है और भविष्य में भी रहेगी।        प्रस्तुति ------   
राकेश शर्मा
मानस निलयम
एम-2, वीणानगर,
इन्दौर- 452 010
94253-21223

सोमवार, 9 अगस्त 2010

आगामी महाभारत की पग ध्वनियाँ

आज - कल
  कौन नहीं  है अर्जुन
किसे नहीं दिखाई पडती
 आपनी चिड़िया की आँख
 सिद्ध हस्त हैं सभी
 सत्ता की द्रोपदी का
वरन करने में
 किसे नहीं आती है गीता
 कृष्ण की तरहअपने  हित में
 रोज ही की जा रहीं हैं 
द्रोपदियां  नग्न 
 दुशाशनों के हाथो 
 और कर रहे हैं अभिनय सभी 
धरतराष्ट्र की तरह
निश्चित है एक और महाभारत
 जो होगा पहले से भीषण
 क्योंकि अब
 और तो अनेक हैं 
 भीष्म एक भी नहीं

मंगलवार, 3 अगस्त 2010

आदमी का दंभ

द्वेषवश उन्होंने न भेजा निमंत्रण
 अभिमान वश न ही गया मैं
 उत्सव के अवसर पर
 रिश्तों की भीड़ में
 अपने द्वेष की चिता पर
 जलता रहा वह
 और अपने ही अभिमान की लाश पर
 रोता रहा मैं
 न भेज कर आमन्त्रण
 उन्होंने हरपल
 मसूस किया मुझको
 न जाकर भी
 हर पल मौजूद था
 मैं भी वहीं

शनिवार, 24 जुलाई 2010

सिन्दूर

स्त्री मांग में भरते ही सिन्दूर
 वह हो जाती है वेखौफ
 उस  पुरुष से
 जैसे होता है कोई मालिक
 अपने पालतू पशु के साथ
भरते ही मांग में सिन्दूर
 पुरुष समझनें लगता है
 स्त्री को एक सड़क
 मांग में भरा गया सिन्दूर
 व्यापारिक समझुअते
 के हित हुए  हस्ताक्षर सा नहीं
 चुटकी भर सिन्दूर में
 छिपा होता है 
 चुरासी लाख
 जन्मों का सारांश

मंगलवार, 20 जुलाई 2010

प्रक्रति को नष्टकर आखिर मनुष्य कहाँ जाएगा



मनुष्य को प्रकृति कुमार कहा गया है . प्रकृति की गोद में ही उसनें आखें खोली थी . प्रकृति की बाहं पकड़ कर चलना सीखा .प्रक्रति के साथ बोलना सीखा .भाषा का जन्म भी प्रक्रति की गोद में ही हुआ है . ऐसा क्या है जो प्रक्रति ने मनुष्य को नहीं  दिया है. प्रकृति का शिशु कहलाने वाले इस मनुष्य ने अपने स्वार्थों के लिए इसी का गला गोट्ना शुरू कर दिया . आज सबसे अधिक संकट में यदि कोई है तो वह है , प्रक्रति . वायु संकट में है , जल काँप रहा है , निरंतर कम होते जा रहे जल के कारण आदमी के  अस्तित्व को संकट खडा हो गया है . ध्वनि प्रदूषण के कारण आकाश अशांत है . जमीन की पीड़ा का अनुमान नहीं लगाया जा सकता . निरंतर खनन के कारन  प्रथ्वी भीषण चीत्कार कर रही है . हमारे  पुरखों  ने  प्रथ्वी को माँ कहा और आकाश को पिता की संज्ञा से विभूषित किया . प्रक्रति के साथ जीवन  मरन के सम्बन्ध  जोड़े . इसी लिए म्रत देह को जलाकर उसके सभी अंशों को वापस उन्हीं के पास भेजने का उपाय किया . ऋग्वेद के ऋषि ने  पहले ही कहा  था  कि आग की उत्पति जल से हुई है . आज मूलभूत पांचो तत्व भयभीत हैं . भारत जो शुरू से ही प्रक्रति का पुजारी रहा है आज प्रक्रति के विपरीत आचरण कर उसे नष्ट करने पर तुला है . प्रक्रति को बचाए  विना आखिर हम जीवन की कल्पना कैसे कर सकते हैं?

रविवार, 11 जुलाई 2010

मंदिर के निर्माता

सभी लोग चाहते थे कि गाँव में एक मंदिर बने . मंदिर बनाने कि कला केवल राधे ही जानता  था . राधे यह भी जानता  था कि मंदिर बनाने के बाद गाँव वालों का व्यवहार  उसके साथ  बदलेगा . राधे का भाई पत्थर  तराश कर मूर्ति  बनाने कि कला  जनता था . गाँव वालों के कहने पर राधे ने बनाया मंदिर और उसके भाई ने तराशी भगवान कि मूर्ति . शुभ महूर्त में मूर्ति में प्राण स्थापना की  गयी  . प्राण स्थापना के समय दोनों भाइओ को मंदिर में नहीं आने दिया गया .बेचारे  दूर खड़े -खड़े सब देखते रहे . आज  भी जब मंदिर के गुम्बद पर चढ़ना  होता है तो चढ़ता  बेचारा  राधे ही है . लेकिन  आम समय में उसे मंदिर में जाने  की मनाही है . यह  प्रश्न उन दोनों भाइयों ने  आखिर पंडित जी से पूछ ही लिया कि यदि हम इतने अछूत ही हैं तो हमारे बनाए मंदिर   में आप  क्यों  करते हो पूजा ? और हमारे दुआरा गढी गयी मूर्ति   में कैसे विराजते हैं आप के भगवान ? पंडित जी के पास इन सीधे  प्रश्नों का कोई उत्तर नही था .

शनिवार, 3 जुलाई 2010

फूल तुम्हें प्रणाम



विधाता ने संसार में अनेक वस्तुएं बनाई हैं , फूल भी उनमें से एक है . प्रेम , श्रद्धा, समर्पण ,उल्ल्हाश सभी स्थितियों में एक फूल ही है जो साथ निभाता है . किसी को प्यार से फूल दे कर हम अपने को धन्य समझनें लगते हैं तो  शव पर फूल अर्पित कर  अपनी श्रधांजलि
 देते हैं . दो युगल जब विवाह के बंधन में बंधते हैं तो फूल ही है जो दोनों की मनोकामनाओं का प्रतीक बन कर उनके गले की शोभा  बन जाते हैं .  एक भगत पत्थर के भगवान पर दो फूल अर्पित कर उन्हें रिझाने की कोशिश करता है .जीवन  का कोई व्यापार नहीं जो फूलों के  बिना  पूरा होता हो .  फूल जो हमें अपना सर्वस्व देता है आखिर उसके प्रति हमारा कोई कर्तव्य तो होगा ही . हिन्दी के कालजयी रचनाकार नरेश मेहता ने लिखा है कि  प्रक्रति की अनुपम   क्रति है पुष्प , प्रथ्वी  की छाती फोड़ कर हवा और सूरज से संघर्ष करने वाले पौधे ने एक दिन अपनी विजयी मुस्कान को प्रकट करने के लिए अपने वरन्त पर फूल को जन्म दिया . वहां से टूट कर वह हमारी भावनाओं का शिकार हुआ . जब कोई पुष्प माल हमारे गले में डाले तो हम उसे वहींछोड़  कर न आ जाएँ , यह पुष्प का अपमान है . दादा माखन लाल चतुर्वेदी की पुष्प की अभिलाषा कविता हम सबने पढ़ी  है ,फिरभी फूलों के प्रति हमारा आदर वैसा नही  जैसा एक संवेदनशील आदमी से अपेक्षित है . एक बात और जो लोग शहर में रहतें हैं और सुबह धूमने  के शौकीन होंगे उनका अनुभव होगा कि रात अंधेर में उठ कर दूसरों के घरों में खिले फूलों को चुरा कर भगवान को अर्पित कर उन्हें खुश करने का पाप करने वालों पर फूल की आत्मा रोती जरूर होगी . हमारे लिए अपना सब कुछ  अर्पित करने वाले इन फूलों को हम क्या अर्पित करें ?    

सोमवार, 28 जून 2010

समुद्र और स्त्री -- भाग 2

निर्मम समाज में 
 अहंकार की बलबेदी पर 
कुरीतियों के कुठार से 
 रोज - रोज काटे  जाते हैं कंठ 
 और   चाढाई जाती है बलि 
असहाय स्त्री की 
 स्त्री और  नदी 
 समाज और समुद्र 
 में भेद नहीं है कुछ 
विचारों  ज़रा  
 अगर समुद्र से न मिलने जाये नदी
 और समाज में ममता हीन हो जाये स्त्री
 रक्षित  न रह सकेगा समुद्र
और हरीतिमा रहित
 कंकाल वट वर्क्ष सा
हो जाएगा  संसार
[ राकेश  शर्मा ]
                                       

रविवार, 27 जून 2010

समुद्र और स्त्री

[अभी गोवा  से लौटा हूँ ,आप जानते  हैं  की गोवा सुंदर जगह है वहां एक समुद्र है जिसके तट गोवा को छूते हैं ,एक और समुद्र है मदिरा ,का जिसमें गोवा डूबा  रहता है. खैर , आप को जब समय मिले वहां घूमने जरूर जाएँ . गोवा के सुन्दर बाघा बीच पर समुद्र को देख कर  कविता के  जो विचार आये उन्हें यहाँ दे रहा हूँ ]
                                                                
                     हे समुद्र
                   तुम्हें इस तरह इठलाता देख
                   सोचता हूँ
                    हर शोषक इठलाता है तुम्हारी  तरह .
                    नदी के अस्तित्व का शोषण कर 
                    तुम करते हो गर्जना 
                      तुमसे मिलने वाली हर नदी 
                   स्त्रीयत्व की विकलता से प्रेरित हो 
                   आती है तुम्हारे  आगोश में   
                   अपना सर्वश्व अर्पित कर तुम्हें 
                  फिर नहीं लौटी है दुबारा 
                   जैसे पुरुष के भुजपाश में आबद्ध स्त्री 
                  नहीं लौट पाती दुवारा नदी की भांति 
                  निर्भ्रान्त और कल -कल   करते हुए 
                  शायद इसीलिए तुम कहलाते हो नदीपति 
                  और पुरुष , पति परमेश्वर 
                 माना तुम्हीं देते हो नदी को जल कण
                उसकी सुंदर देह और मोहक रूप को 
                न जाने कहाँ छिपा लेते  हो तुम 
               तुम्हारी ये उल्ल्हाश तरंगें 
              आगोश में समाई नदियों की 
            असफल और अनवरत छ्टपटाहटें  हैं 
               तुम्हारी भीषण गर्जना के पीछे छिपा है 
                 नदी का आर्तनाद  और चीत्कार 
              ठीक उसी तरह जैसे 
              सती होने के लिए  मजबूर की गयी 
             स्त्री की दाहक पीड़ा को छिपाने के लिए 
            किया जाता था  भीषण शंखनाद और 
             घंटा -घड़ियालों का शोर 
              मत भूलो तुम्हारे अस्तित्व की रक्षा करती  है नदी  
              और पुरुष का जीवन श्रोत  होती है स्त्री   
                                          --------- राकेश  शर्मा

शुक्रवार, 25 जून 2010

एक लघु कथा

गाय अपने बछड़े को दूध पिलाने का प्रयास कर रही थी . ममता से भरी वह बछड़े को चाटती .      बछडा दूध पीने की कोशिश भी करता . मालिक ने बछड़े के मुहं पर मुसक बाँध दिया था इस कारण वह दूध पीने में असमर्थ  था .लेकिन  माँ की जिद थी की वह दूध पिए और बच्चे  की कोशिश थी वह कामयाब हो . परन्तु मानवक्रत व्यवधानों के कारण वे सफल न हो पा रहे थे . ममता से भरी वह माँ ना तो  हट रही थी और ना ही  वात्सल्यता से निहाल वह बछडा ही हार मान   रहा था . मैं उन दोनों के इस रूप को देखता रहा और सोचता रहा  की  आज संभ्रांत कहलानी वाली नारी अपने शिशुओं को स्तन पान कराएं ,इसके लिए विज्ञापन छपवाए जा रहे हैं  ,विश्व स्तर पर स्तन पान दिवस मनाया जा रहा है . इसके वाबजूद नारियां अपने सौन्दर्य बनाए रखने के चक्कर  में नव जात शिशुओं को स्तन पान नहीं   कराती . आप विचार करें की सभ्य कौन है ? वह पशु कहलाने वाली गाय या संभ्रांत कहलाने वाली वह नारी जो अपने बच्चों को उसके प्राक्रतिक अधिकार से वंचित रखती हैं . . 

मंगलवार, 15 जून 2010

ममता का कोई विकल्प नहीं है

संभ्रांत उन्हें कहते हैं जिनके वारे में भ्रान्ति हमेशा बनी रहे . संभ्रांत अक्सर ऐसे आवरण ओढ़ते हैं जिनके पीछे छिपा उनका असली रूप ज़माने के सामने नहीं आ पाता. सभ्रान्तों की बस्ती में सबसे अधिक सुखी होते हैं कुत्ते और दुखी भी होते हैं कुत्ते . अगर पाले गये तो सुखी वरना दुखी ही दुखी . ऐसी ही संभ्रांतों   की एक बस्ती में कुत्तिया ने जन्म दिया पांच पिल्लों को . कुछ दिन उन्हें  पाला पोसा  और फिर एक दिन किसी संभ्रांत की कार से कुचल दी गयी . अक्सर कुत्ते कुचल कर ही मरते हैं शहर  में,  गावों में ये संभावनाएं नही मिलती क्योंकि शायद वहां सम्भ्रान्त लोग कम होते होंगे . बरहाल कुत्तिया के मरने के बाद अनाथ हुए पिल्लों की देख =रेख कौन करता? संभ्रांतों की उस वस्ती में . सो मर गये वेचारे  जन्म लेते ही . जो काम अकेले एक कुत्तिया करती थी उसे पूरी संभ्रांत बस्ती  मिलकर भी न कर सकी . ममता का विकल्प कहां है ? [एक  लघु  कथा ]  ---  राकेश  शर्मा  

सोमवार, 14 जून 2010

आस्था का दीपक

इधर सूरज डूबने को होता उधर बूढी माँ अपने अँधेरे में डूबे कमरे में उजाला भरने की कोशिश  में लग जाती . दीप ढूढती ,तेल का प्रवंध करती और अपने कांपते हाथो से उसे वालती . दीपक कमरे के एक कोने में रखती और फिर थोड़ी देर आँखें बंद कर अपने अंदर ही कुछ ढूढती . आस्था का यह दीप किस अँधेरे का हरन करता . उस अंधरे का जो कमरे में  फैला  हुआ है या फिर उसका जो जीवन में व्याप्त है . सूरज के प्रखर प्रकाश में भी केवल आस्था का दीप ही है जो अंदर के अँधेरे   से लड़ता है .२१वी सदी का आदमी जो जीता है विजली की चाकाचौंध में परआस्था हजारों बल्वों के जलने से पूरी नहीं होती जो एक मिट्टी का दिया करता है . आज के आदमी की भी यह बेवशी है की उसके जीवन में बाहर खूब उजाला है अंदर घनी अंधरी अमावस रात . यह अंधेरी अमावास कैसे पूनम  में तब्दील हो यही विचारणीय है . काश कोई बूढी माँ हमारे मनो  में बैठे अँधेरे को दूर करने के लिए अपने कांपते हांथो से आस्था का एक  दीप जला कर रख दे . [ यह एक लघु कहानी है ]  राकेश शर्मा

गुरुवार, 3 जून 2010

चितवन फूल पलाश

श्री क्षेत्रपाल शर्मा , भारत सरकार ,श्रम मंत्रालय के अधीन संचालित  एसिक में वरिष्ठ अधिकारी हैं . वे एक अच्छे कवी और लेखक हैं . जैसा की हमारे यहाँ होता है की जिस आदमी को जहां होना चाहिए वह वहां नहीं होता .हिन्दी के अनेक समवेदन शील रचनाकार आजीवका की जुगाड़ में  ही अपनी सारी ऊर्जा खो देते हैं . इससे हिन्दी साहित्य को बहुत हानि हुई है . श्री शर्मा के साथ भी शायद भी ऐसा ही कुछ हुआ प्रतीत होता है ' उनकी कविताओं को देख कर यह साफ़ कहा जा सकता है की उनके पास एक  कवी मन है जो विषम  परिस्थितिओं में भी गुनगुनाता है ,  कविता की बाहं पकड जीवन की डगर चलना चाहता है . इस भीषण आर्थिक समय में आएये , मन की इस सम्वेदना  को बचाए रखने का प्रयत्न करते चलें शायद इसी के सहारे आदमी को मशीन बनने से बचाने में थोड़ी मदद मिल सके .  आज का समाज कविता से भले ही दूर भाग रहा हो परन्तु उसे अंत में शान्ति कविता की गोद में ही मिलेगी  . यह निश्चित है . यहाँ  श्री क्षेत्रपाल शर्मा का गीत दे रहा हूँ  . इसका आस्वाद लें . ----
  हॅंसी तुम्‍हारी चंदा जैसी,                  
चितवन फूल पलाश 1
बातें झरना यथा ओसकण
तारों भरा उजास 11
गुन-गुन भौंरों जैसे गाना,
और शरारत से मुस्‍काना 1
हौले-से, ही हमें चिढ़ाना
वादा कर फिर हाथ न आना 11
चमकाती लेकिन फिर भी हो
एक किरन की आस 11
जो भी दिन है साथ बिताए,
जस फूलों की घाटी में घर
नोंक-झोंक विस्‍मृत-स्‍मृति में,
एक क्षीरमय सुन्‍दर सर
मिलना तुम से तीरथ जैसा,
भूला - बिसरा रास 11


क्षेत्रपाल  शर्मा
-मो . 09711477046

बुधवार, 2 जून 2010

कला के लिए द्रष्टि जरूरी है , साधन नहीं

यदि कलाकार के पास द्रष्टि और साहित्यकार के पास कौशल हो तो साधन हीनता भी मार्ग की बाधा नहीं बनती . अभियास से दक्षता आती है . कल्पना के साथ कार्यान्वयन का समन्वय हो तो सर्जन में जान आ जाती है . शुभाष बोंडे की कलात्मक सोच का परिणाम आप देख रहे हैं . ऊपर दर्शाई गयी आक्रतियाँ  श्री बोंडे ने झाड़ू के कूदा  -करकट से बनायी  हैं . इस कला को श्री शुभाष ने ब्रूम आर्ट  नाम दिया है . आचार्य हजारी प्रसाद दूवेदी कहते थे की में रेट [बालू ] से भी तेल निकाल सकता हूँ बशर्ते बालू मेरे हाँथ लग जाए . साहित्य की
दुनिया में अनेक ऐसे लेखक हैं जिन्होंने शब्दों का घातातोप रचे  बिना , सरल और सहज शब्दों में काल जई रचनाएं की हैं . महाकवि तुलसीदास इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं .   सच्चे कलाकार की यही पहचान होती है . इन कला क्रतियों को आप भी देखें और इनका आनन्द लें  त्तथा कलाकार की भावनाओं को समझने का प्रयास हो तो बहतर होगा , प्रस्तुती .---राकेश शर्मा

शनिवार, 29 मई 2010

राम विलास शर्मा पुन्य स्मरण

 .आज   २९ मई है , डॉ रामविलास शर्मा  का पुन्य स्मरण दिन है . डॉ शर्मा पर केन्द्रित एक आलेख '' आलोचक अड्डा . blogspot .कॉम'' . पर दिया है  इस पर जाने का पता  मेरे पसंदीदा ब्लॉग की सूची में दिया गया है .

सोमवार, 24 मई 2010

डॉ. रामविलास शर्मा हिंदी आलोचना के प्रकाश स्तम्भ

आचार्य राम चंद शुक्ल के बाद हिंदी आलोचना में डॉ रामविलास शर्मा का स्थान आता है ।उन्होंने भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश पुस्तक में अनेक विमर्शों को हमारे सामने रखा है इसी पुस्तक का एक प्रसंग मैं यहाँ दे रहा हूँ ---
’’उल्लेखनीय है कि हेगल भारतीय दर्शन से परिचित थे। भारतीय दर्शन का परिचय देने वाले विलियम जोन्स और कोलवक जैसे विद्वानों के लेख ब्रिटेन और जर्मनी में पढ़े जाते थे। दर्शन शास्त्र के इतिहास पर अपने व्याख्यानों में हेगल ने न्याय वैशेषिक आदि दार्षनिक धाराओं का उल्लेख किया है। मार्क्स और एंगेल्स ने हेगल पर जो कुछ लिखा है उसे देखने पर ऐसा लगता है, यूनानियों के बाद लगभग डेढ़ हजार साल तक यूरोप का तर्कषास्त्र सोता रहा। 18 वीं सदी के अन्तिम चरण में हेगल ने इस सोते हुए तर्कषास्त्र को मानो अचानक जगा दिया। संसार सत्य नहीं है, विचार ही सत्य है। द्वंद्वात्मक प्रगति विचार-जगत् में सम्पन्न होती है। परस्पर विरोधी विचारों का टकराव उनका सह अस्तित्व और सामंजस्य, एक स्तर से ऊपर उठकर दूसरे पर नया विकास -ये धारणाएं हेगल को कहां से प्राप्त हुई ? यदि वे यूनानी चिन्तन में विद्यमान होती तो हेगल के लिए कहा जाता, वह उनकी आवृत्ति कर रहे हैं। उन्हें मौलिक तर्कषास्त्री न माना जाता। पर उन्हें मौलिक तर्कषास्त्री माना गया है और उनकी तर्क-पध्दति गर्व के साथ माक्र्स और एंगेल्स ने स्वीकार किया है। हेगल की तर्क पध्दति के मूल तत्व विरोधी तत्वों का संघर्ष और सामंजस्य, एक तत्व का दूसरे तत्व मेें परिवर्तन, प्रकृति में निरंतर परिवर्तन और विकास, ये धारणाएं उपनिषदों में ही वहीं उनसे पहले ऋग्वेद में विद्यमान हैं। हेगल ने मानव चेतना को प्रकृति से अलग रखने का प्रयत्न बराबर किया है। प्रकृति दोषपूर्ण है, शुध्द चैतन्य, निर्दोष परम सत्य उससे भिन्न है। इस यथार्थ विरोधी चिन्तन के विपरीत भारत में प्रकृति को अनादि अनंत माना गया है। असत से सत का अव्यक्त प्रकृति से व्यक्त प्रकृति का विकास हुआ है, यह सांख्य की आधार भूत स्थापना है। मनुष्य की चेतना, उसका मन, उसकी बुध्दि, अहंकार आदि इसी विकास क्रम में उत्पन्न होते हैं। भारतीय दर्शन के इतिहास को जानने के लिए एक स्त्रोत ग्रंथ महाभारत है। प्रकृति के विकास में सांख्य ने 24 तत्व ही माने थे। 25 वें तत्व चेतन पुरूष को इनमें जोड़ा गया, यह महाभारत के विवरणों से स्पष्ट है। प्रकृति और मानव चेतना में जो अलगाव हेगल के चिंतन में दिखाई देता है- वह भारतीय दर्षन में नहीं है। साहित्य पर हेगल का प्रभाव नगण्य है। हेगल की तर्क पध्दति ने माक्र्स और एंगेल्स को चाहे प्रभावित किया हो, उनक सामाजिक विष्लेषण पर हेगल के विचारों का प्रभाव नहीं है। हेगल की भारत संबंधी धारणाएं उन्होनें अवष्य दोहराईं। आगे चलकर उन्होनें इन धारणाओं को उलट दिया। इसके सिवा हेगल की तर्क-पध्दति में कुछ यांत्रिक विषेषताएं थीं, उनसे भी उन्होंने पिंड छुड़ाया। पष्चिमी यूरोप और ब्रिटेन के साहित्य पर जितना प्रभाव प्लैटों का है, उसे देखते हुए इस साहित्य पर हेगल का प्रभाव नगण्य है। कारण उसका यथार्थवादी स्वरूप।’’ [

शनिवार, 22 मई 2010

एफ.एम. प्रसारण बनाम भूमण्डलीकरण का भक्तिगीत ------- प्रभु जोशी

यहाँ  श्री प्रभु जोशी का एक लेख दिया जा रहा है . श्री प्रभु जोशी हिन्दी भाषा कोलेकर निरंतर चिंतन करते  हैं . वे मात्र ऐसे लेखक हैजो समाचार हिन्दी  पत्रों के दुआरा हिन्दी के शव्दों की जगह बलात अंगरेजी के शव्दों के विरुद्ध लिखते रहे हैं बल्कि समाचार पत्रों के मालिकों से संवाद भी करते रहे हैं . इलेक्ट्रोनिक मीडिया में व्याप्त भाषाई अराजकता पर उनका चिंतन इस लेख में मौजूद है . इस विसंगती पर विचार करना और क्रियान्वित करना हम सब की जिम्मेदारी है .  
ये आठवें दशक के ‘पूर्वार्द्ध‘ के आरम्भिक वर्ष थे और श्रीमती इंदिरा गांधी गहरी ‘राजनीति-शिकस्त‘ के बाद अपनी ऐतिहासिक विजय की पताकाएँ फहराती हुईं, फिर से सत्ता men  लौटीं थीं। इस बार वे शहरी मध्यम-वर्ग के ‘धोखादेह‘ चरित्र को पहचान कर, ‘ग्रामीण-भारत’ की तरफ मुंह कर के, अपने ‘राजनीतिक-भविष्य‘ का नया ‘मानचित्र‘ गढ़ना चाह रहीं थीं। इसीलिए, वे बार-बार एक जुमला बोल रहीं थीं-‘टेक्नोलाॅजी इज़ टु बी ट्रांसफर्ड टू रूरल इण्डिया।’ कदाचित्, तब तकनोलाॅजी को गाँवों की तरफ पहुँचाने के मंसूबे के साथ ही साथ उन्होंने ‘डिस्ट्रिक्ट ब्राॅडकास्ट‘ की बात भी करना शुरू कर दी थी, जिसका अंतिम अभिप्राय यह था कि ‘ज़िला-प्रसारण‘ की शुरूआत से, ‘ग्रामीण भारत‘ को सूचना-सम्पन्न बनाने की सक्रिय तथा पर्याप्त पहल की जा सकेगी।
कहने की जरूरत नहीं कि तब ‘प्रसारण‘ से जुड़े लोग, इस बात को अच्छी तरह जानते थे कि उनके इस ‘कथन‘ के पीछे भारत में भी एफ.एम. रेडियो के शुरूआत करने की मंशा ही है। चूंकि, तब तक अफ्रीकी महाद्वीप के छोटे-छोटे देशों में, वे आ चुके थे। मुझे याद है, आकाशवाणी की कार्यशालाओं में ‘प्रशासनिक‘ क्षेत्र तथा ‘इंजीनियरिंग‘ के उच्चाधिकारी गाहे-ब-गाहे इस बात पर अफसोस प्रकट किया करते थे, कि ‘देखिए, भला अफ्रीका के नाइजीरिया जैसे तमाम अन्य पिछड़े हुए मुल्कों में एफ.एम. आ चुके हैं और एक हम हैं कि अभी भी उसी पुरानी और ‘लगभग चलन से बाहर हो चुकी‘ तकनोलाॅजी से काम चला रहे हैं।’दरअस्ल, अफ्रीकी महाद्वीप में ‘सूचना‘ और ‘संचार‘ के क्षेत्र में अपना वर्चस्व बनाने वाले, ‘सूचना-सम्राटों‘ के समक्ष, यह अत्यन्त स्पष्ट था कि वहाँ की भाषाएँ, इतनी विकसित नहीं है कि पहले वहाँ के प्रिण्ट-मीडिया में घुस कर, उन पर अपना आधिपत्य जमाने की कोशिश की जाये। वहाँ ‘प्रिमिटव-कल्चर‘ और ‘सोसायटी‘ के चलते ‘लिखे-छपे’ के बजाय ‘बोले जाने’ वाले माध्यमों के जरिए ही वांछित काम निपटाया जा सकता है, जो ‘नव-औपनिवेशिक‘ एजेण्डे के लिए बहुत जरूरी है। अलबत्ता, उनके लिए, अफ्रीकी महाद्वीप में स्थानीय भाषाओं का ‘कम विकसित‘ होना, सर्वाधिक सहूलियत की बात थी। चूँकि, वह (‘हाॅफ लिविंग एण्ड हाफ फाॅरगाॅटन’) अर्द्ध-जीवित और अर्द्ध-विस्मृत अवस्था में थी। नतीजतन, वे तो कहा ही करते थे, ‘दे आर बार्बेरिअन्स विथ डायलैक्ट, वी आर सिविलाइज्ड विथ लैंग्विज’। वे अपनी ‘भावी-रणनीति‘ के तहत अफ्रीकी जनता को सभ्य बनाने के लिए, उनकी भाषाओं का ‘रि-लिंग्विफिकेशन‘ पहले ही शुरू कर चुके थे। लेकिन, एफ.एम. के आगमन ने, उनके एजेण्डे को तेजी से पूरा करने में, उनके लिए एक अप्रत्याशित सफलता अर्जित कर दी। चूँकि एफ.एम. रेडियो के आते ही उन्होंने फ्रेंच द्वारा अपने प्रचार-प्रसार के लिए अपनाई गई रणनीति के तर्ज पर अघोषित रूप से लगभग ‘लैंग्विज-विलेज‘ अर्थात् ‘भाषा-ग्रामों‘ के निर्माण जैसा काम करना शुरू कर दिया।
इसके अन्तर्गत उन्होंने किया यह कि ‘प्रसारण क्षेत्र‘ में आने वाली आबादी को, ‘स्थानीय भाषा में अंग्रेजी की शब्दावली के मिश्रण से तैयार एक ऐसे भाषा रूप का दीवाना बनाना‘ कि वह ‘पूरा प्रसारण‘, उस आबादी के लिए एक ‘मेनीपुलेटेड-प्लेजर’ (छलयोजित आनंद) का पर्याय बन जाये। इसके साथ ही उसके अनवरत उपयोग से उस ’भाषा रूप’ को ’यूथ-कल्चर’ का शक्तिशाली प्रतीक बना दिया जाये। इसे ‘आनन्द के द्वारा दमन‘ की सैद्धान्तिकी कहा जाता है। वस्तुतः, इसमें लोग, अपने ’समय और समाज’ के अन्तर्विरोधों को ठीक से पहचान पाने की शक्ति ही खो देते हैं और तमाम सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक ‘घटनाओं-परिघटनाओं‘ में आनंद की खोज ही उनका अंतिम अभीष्ट बन जाता है। ‘यूथ-कल्चर‘ से नाथ देने के कारण यह ‘अविवेकवाद‘ समाज के भीतर, निर्विघ्न रूप से काम करने लगता है। बौद्धिक रूप से विपन्न बना दिये जाने की यह अचूक युक्ति मानी जाती है।
बहरहाल, तब वहाँ बार-बार यह कहा जाने लगा कि सम्पूर्ण अफ्रीकी समाज में अपने ’प्रिमिटव कल्चर’ और उसके ’पिछड़ेपन’ से बाहर आने की एक ’नई-इच्छाशक्ति’ पैदा हो रही है और अपने समाज के विकास के लिए, ’दे आर वाॅलेन्टॅरिली गिविंग अप देअर मदरटंग्स’ उनके भीतर लैंग्विज-शिफ्ट की स्वेच्छया ‘सामाजिक-आकुलता‘ उठ चुकी है।
बहुत साफ था कि ये औपनिवेशक ताकतों की तमाम ‘धूर्त-व्याख्याएँ‘ थीं, जो उनके भाषागत षड्यंत्र को बहुत कौशल के साथ छुपा ले जाती थीं। इन एफ.एम. के कार्यक्रम संचालकों को कहा जाता था कि इसे भूल जाइये कि ‘जनता माध्यम के साथ‘ क्या करती है’, बस यह याद रखिए कि ‘माध्यम के जरिये आप जनता के साथ’ क्या कर सकते हैं।‘ नतीजतन, उन्होंने रेडियो के प्रसारण के जरिए, ‘अर्थवान-प्रसारण’ देने के बजाय ‘अर्थहीन-प्रसन्नता‘ बाँटने का अंधाधुंध काम, बड़े पैमाने पर किया और यह सब उसी समाज के ‘टोटम्स’ का इस्तेमाल करते हुए कुछ ऐसी चतुराई के साथ किया कि एक बार तो उन्हें लगा, उनकी संस्कृति और भाषाओं के आगे अंग्रेज और अंग्रेजी झुक गयी है। उसे उन्होंने अपनी विजय माना।
निश्चय ही इसका अभिप्राय ये कि वे एक विराट ‘भ्रम‘ तैयार करने में सफल हो रहे थे। बाद में प्रसारण से वह ‘भाषा रूप’ जिसे लिंग्विस्टिक-सिन्थेसिस’ के जरिए तैयार किया गया था और उसे ’बोलचाल का नैसर्गिक रूप’ कहा गया था, धीरे-धीरे अंग्रेजी के द्वारा विस्थापित कर दिया गया। इसे बाद में स्वाहिली और जूलू के लेखकों ने ‘माॅस-डिसेप्शन’ कहा। क्योंकि, अब अफ्रीकी महाद्वीप के देशों में, समाज की ‘प्रथम भाषा’ अंग्रेजी ही बना दी गयी। उन्होंने कहा कि ‘अश्वेतों ने भाषा नहीं, अपना भाग्यलेख बदल लिया है।’
भूमण्डलीकरण के पदार्पण के साथ बर्कली विश्वविद्यालय की प्रोफेसर गेल ओमवेत जो भारत आती-जाती रहती हैं, और गुरूचरणदास जैसे लोग, यहाँ भारत के लोगों को इसी तरह अपना ‘भाग्य-लेख‘ बदलने के लिए, भारतीय भाषाएँ छोड़ कर अंग्रेजी को अपनाने की राय बड़े जोर-शोर से दिये चले आ रहे हैं।
बहरहाल, अब अफ्रीका में अफ्रीकी भाषाएँ रोज़मर्रा का पारस्परिक कामकाज निबटाने की ऐसी भाषाएँ भर रह गयी हैं, जिनका काम चिंतन के क्षेत्र से हट कर, केवल ‘मनोरंजन‘ और ‘कामकाजी-सम्पर्क‘ भर का है। कहने की जरूरत नहीं कि हमारे यहाँ भी कुकुरमुत्तों की तरह दिन-ब-दिन हर छोटे-बड़े महानगर मंे, आवारा-पूंजी के सहारे खुलते जा रहे, इन एफ.एम. से एक ऐसी ‘प्रसारण-संस्कृति’ को जन्म दिया जा रहा है, जो ‘यूरो-अमेरिकी एजेण्डों‘ को उसकी पूर्णता तक पहुंचाने के काम को निबटाने में लगी हुई है। इसी के चलते देश का सबसे पहला निजी एफ.एम. प्रसारण मुम्बई में ‘हिग्लिश‘ में शुरू होता है और बाद में जितने भी एफ.एम. आये हैं - यही उनकी भाषा नीति हो गई। वहाँ अच्छी हिन्दी बोलना अयोग्यता की निशानी है।
 यह सिर्फ ‘महानगरीय सांस्कृतिक अभिजन‘ की ‘जीवन शैली‘, ‘रहन-सहन‘, ‘बोलचाल‘ को ‘समग्र’ समाज के लिए ‘मानकीकरण’ करने का काम कर रहे हैं, जिसने यह स्वीकार लिया है कि जल्दी से जल्दी, बस एक ही पीढ़ी के ‘कालखण्ड‘ में, इस देश से तमाम स्थानीय भाषाओं की विदाई हो। यही वजह है कि ‘अंग्रेजी लाओ देश बचाओ’ का ‘हल्लाबोल‘ इस  मीडिया ने शुरू कर दिया है।
आप हम साफ-साफ देख सुन रहे हैं कि जिस तेजी से ‘आर्थिक‘ क्षेत्र में भूमण्डलीकरण की शुरूआत की गयी, ठीक उसी और उतनी ही तेजी से, ‘सामाजिक क्षेत्रों‘ में, ‘स्थानीयता’ और ‘क्षेत्रीयताओं के प्रश्न, ‘अस्मिता की रक्षा के प्रश्न‘ बना दिये गये। वे परस्पर नये वैमनस्य में जुत चुकी है। हिन्दी को एक ‘साम्प्रदायिक‘ भाषा करार दिया जा रहा है। अलबत्ता, उसे नये ढंग से ‘विखण्डित‘ किया जा रहा है। बोलियों को हिन्दी से ‘स्वायत्त‘ करने का अभियान आरंभ है, जिसमें बहुत संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थ छुपे हैं। जल्द ही आठ हिन्दीभाषी प्रान्तों में जन्मे लोगों से कहा जायेगा कि वे अपनी ‘मातृभाषा‘, ‘मालवी‘, ‘निमाड़ी‘, ‘छत्तीसगढ़ी‘, ‘हरियाणवी‘, ‘भोजपुरी’ आदि-आदि लिखवायें। संख्या के आधार पर डराने वाले आंकड़ों वाली हिन्दी, किसी की भी मातृभाषा नहीं रह जायेगी। यह नया और निस्संदेह एक अन्तर्घाती ‘देसीवाद’ है, जो अंदरूनी स्तर पर अंग्रेजी के लिए एक नितान्त निरापद राजमार्ग बनाने का काम करने वाला है।
इस सारे तह-ओ-बाल के बीच, अंत में देश के महानगरों में ‘उधार की चंचला लक्ष्मी‘ से खुल रहे, इन तमाम निजी एफ.एमों की ‘प्रसारण-सामग्री‘ का आकलन किया जाये तो पायेंगे कि ये केवल मनोरंजन के आधार को मजबूत करती हुई, ‘मसखरी के कारोबार‘ में जुटी टुकड़ियां हैं, जिनका मकसद उस ‘पापुलर-कल्चर‘ के लिए जगह बनाना है, जो पश्चिम के सांस्कृतिक-उद्योग के फूहड़ अनुकरण से हमारे यहाँ जन्म ले रहा है। इनका ‘विचार‘ नहीं, ‘वाचालता’ आधार है। उन्हें ‘बोलना‘ और ‘बिना रूके बोलते रहना‘, बनाम बक-बक चाहिए। इनके लिए ‘विचार‘ एक गरिष्ठ और अपाच्य शब्द है। वहाँ वे ‘फण्डे‘ चाहते हैं। रोट्टी कमाने के। पोट्टी पटाने के। यानी डेटिंग के। बाॅस को खुश रखने के। सक्सेस के। जी हाँ, ‘सफलता‘, ‘समाज‘ या ‘समूह‘ की नहीं, केवल ‘व्यक्तिगत-सफलता‘ को हासिल करने के लिए मेन्युप्लेशन सीखिये। इनके लिए स्थानीय संस्कृति और संस्कार से दूरी पैदा करना इनका नया ‘मूल्य’। इनका वर्गीय समझ क्या है ? इन्हें कैसी और कौनसी पीढ़ी गढ़ना है? इनकी ‘प्रसारण-संस्कृति‘ क्या है ? इनकी ‘वैचारिकी‘ क्या है ? ये किसके प्रति ‘जवाबदेह‘ हैं ? इन सारे प्रश्नों के उत्तर खोजे जायें तो, ‘ये उसी खतरनाक ‘रेडियो कल्चर’ के भारतीय उदाहरण है‘, जिन्होंने अफ्रीकी महाद्वीप को सामाजिक-सांस्कृतिक रूप से विपन्न बनाने में बहुत कारगर भूमिका निभाई थी। इनकी कारगुजारियों का बहुत वस्तुगत विवेचन ई-काट्ज तथा जी-बेबेल की पुस्तक ‘ब्राॅडकास्टिंग इन थर्डवल्र्ड में बहुत सूक्ष्मता के साथ मिलता है कि किस तरह से जन-संचार में ‘सूचना-साम्राज्यवादियों‘ ने घुस कर उनकी धूर्त सांस्कृतिक राजनीति की कुटिलता से कैसे तीसरी दुनिया के गरीब मुल्कों की ‘भाषा‘ और ‘संस्कृति‘ को तहस-नहस किया।
इनकी बदअखलाक वर्ग-दृष्टि और भाषाई चतुराई का देश के सामने एक शर्मनाक उदाहरण तब सामने आया, जब एक एफ.एम. रेडियो के प्रतिभाशाली आर.जे. ने ‘इण्डियन आइडियल‘ बने, प्रशान्त तमांग के बारे में टिप्पणी की थी, जिसका कुलजमा अर्थ यह था कि ‘चैकीदारी से गायकी तक गया, गोरखा। यह पूरे गोरखा समाज पर अभद्र टिप्पणी थी। यानी गोरखा जन्म से चैकीदार ‘होने‘ और ‘बने रहने‘ के लिए होते हैं, लेकिन प्रशान्त तमांग संयोग से ऐसा ‘बिन्दास बंदा’ निकला, जिसने ‘गायकी‘ में गुल खिला दिये। यह भाषा की वही भत्र्सना योग्य ‘वर्गीय-दृष्टि‘ है, जो बताती है कि ‘रामू गरीब लेकिन ईमानदार लड़का था।‘ अर्थात्, गरीब मूलतः बेईमान होते हैं, यह रामू संयोग से एक ऐसा निकला जो बावजूद गरीब होने के ‘ईमानदार‘ बन गया। वास्तव में इन्हें कार्यक्रम प्रस्तुतकर्ता नहीं, बस ‘वाचाल कारिन्दे‘ चाहिए, जो हर चीज को ‘मस्ती‘, ‘मजा‘, या ‘फन‘ बना दे या फिर उसे कामुकता से जोड़ दे। एक कमजोर बौद्धिक आधार के बावले समाज का, ‘आनन्दवादी हथियारांे द्वारा सफल दमन‘ कार्यक्रम चल रहा है। फासीवादी दौर में जर्मन समाज के पतन की पृष्ठभूमि में, तब रेडियो ने यही किया था। जो आज ये कर रहे हैं। अपने प्रसारण से ये एक ऐसा ‘सांस्कृतिक-उत्पाद‘ बनाते हैं, जो देशकाल से परे रहता हुआ, केवल ‘उपभोगोन्मुख‘ हो और उसका कोई अन्य ‘मूल्य‘ न हो। ये ‘मुक्त भारत‘ के नये शिल्पियों की दिमागी उपज है। वे ‘भारत की मुक्ति‘ के शिल्पी नहीं। क्योंकि वे तो कब्रों में दफ्न हैं और आकाशवाणियाँ, तीस जनवरी को रूंधे हुए गले से रामधुन गाते हुए, उनकी ‘खामखाह‘ याद दिलाती रहती है। ठीक उस वक्त भी इनके यहाँ कोई धमाकेदार या ‘फोन इन’ प्रोग्राम चलता रहता है। समाज को सूचना-सम्पन्न बनाते हुए, किसी एफ.एम. का रेडियो जाॅकी अपने किसी एक कालर (!) से पूछ रहा होता है: ‘तो बताइये, आप अपने लिए गाॅरमेण्ट्स का कौन-सा ब्राॅण्ड चुनती हैं ? (उधर से किसी ब्राॅण्ड का नाम) और हाँ, तो आप अपने अण्डर गाॅरमेण्ट्स के लिए कौन-सा ब्राॅण्ड चुनती हैं ? (उधर से संकोच और शर्म को व्यक्त करते कुछ अस्पष्ट शब्द) अरेऽ रेऽऽ रेऽऽ आप तो शर्मा गयीं.... आपका नाम नेहा नहीं, लगता है ‘शर्मिला‘ है। ओह! यू आर सो शाॅय ? आई थिंक यू आर अ विक्टिम आॅफ एन ओल्ड कल्चरल फोबिया !..... वेल लेट इट बी सो..... कोई बात नहीं... कोई बात नहीं, वह आपका सीक्रेट है, वह शायद आपके फे्रण्ड को पता होगा.... शाॅपिंग उन्हीं के साथ करती हैं- कौन से माॅल में ?‘
प्रसंग दूसरा....... हाय, हैलो.... आपकी आवाज से लग रहा है, यू आर बोल्ड एण्ड ब्यूटीफुल टू.... तो बताइये, आप लड़कों से डरती हैं या सवालों से....? दोनों से नहीं डरती.......? वेरी गुड.... यू आर ब्यूटिफुल एण्ड नाॅट कावर्ड...... नाम बताइये आपके कोई खास क्लासमेट्स का....? ओ.के...... ऐनी सेक्समेट.... नाॅट यट.... (उधर से फोन कट) प्रतिभाशाली आर.जे. की बकबक जारी....... चलिए आपने लाईन काट दी..... लेकिन, हम आपको, लाइन मारने वालों की तरफ से एक खास गीत पेश कर रहे हैं...... गीत शुरू.... (नहीं नहीं अभी नहीं, थोड़़ा करो इंतजार.............। )
जी हाँ, ये है इनका ‘पीपुल्स-पार्टिसिपेशन’ (!) है। ये है इनकी ‘सूचना-सम्पन्नता‘ है। रेडियो जाॅकी की सबसे बड़ी योग्यता है कि वह हर बात को कितनी लम्पटई के साथ ‘कामुकता‘ (सैक्चुअल्टी) से जोड़ सकने में पारंगत है ? ये नया ‘यूथ-कल्चर‘ गढ़ा जा रहा है ? जिसमें लम्पटई को ‘ग्लैमराइज’ (!) किया जाता है। बाहर की लम्पटई, एफ.एम. प्रसारण में ‘बिन्दास है‘, ‘बैलौंस है’ और ‘बोल्ड है।‘
दरअस्ल, देखा जाये तो उसका सब कुछ ‘बोल्ड‘ नहीं, ‘सोल्ड‘ है। उसकी ‘जबान‘, उसकी ‘भाषा‘, उसका ‘समय‘, उसकी ‘वफादारी‘, यहाँ तक कि उसकी ‘आत्मा‘ भी। वह सामाजिक-सांस्कृतिक ध्वंस लिये ‘वेतन‘ नहीं ‘सुपारी‘ लिए हुए है। वह पैकेज पर है।
अंत में कहना यही है कि, जिस तरह ‘उदारवाद’ की अगुवाई के लिए ‘आनन-फानन’ में बगैर कोई आचार-संहिता के निर्धारण किये, निजी एफ.एम. के लिए, जो प्रसारण क्षेत्र में जगह बनाई गई, वह सत्ता की ‘नियमहीनता‘ का लाभ लेकर, एक किस्म की सांस्कृतिक अराजकता के खतरनाक खेल में बदल गयी है-‘क्योंकि, उसके सामने ‘प्रतिबद्धता’ या ‘जवाबदेही’ का कोई प्रश्न ही नहीं है। ये कोई लोक-प्रसारण नहीं है। ना उसे ‘लोक‘ की चिंता है, ना ‘शास्त्र‘ की। ‘लोक-नियंत्रण‘ के अभाव में, वे उदग्र और उद्दण्ड हो गये हैं। एक निजी मनमानापन ही प्रसारण का विषयवस्तु है। और अब दुर्भाग्यवश इन्हीं का विकृत अनुकरण करने में आकाशवाणी को भी ‘दरिद्र समझ‘ के नौकरशाहों द्वारा, जोत दिया गया है। सारी आचार-संहिता को ताक में रखते हुए, रेवन्यू जेनरेट करने के लिए, वे कुछ भी करने को तैयार है। वहाँ भी तमाम कार्यक्रमों के नाम जो हिन्दी में थे, हटाकर अंग्रेजी के कर दिये गये हैं‘ - वे अब एफ.एम. की होड़ में हैं। ‘बाजार-निर्मित’ फण्डों के घोड़ों पर सवार होकर वे ‘पापुलर कल्चर’ के पीछे बगटुक भाग रहे हैं। जनतांत्रिक राजनीति के कोड़े से पिटा हुआ ‘प्रसारण-बिल‘, वापस किसी ऐसे बिल में घुस गया है, जहाँ, से उसका बाहर निकलना मुमकिन नहीं रह गया है। वक्त के चूहे उसे कुतर-कुतर कर खत्म कर देंगे। क्योंकि, अब प्रसार-माध्यमों को कोई ‘निषेध‘ पसंद नहीं। अब इन्हें हर ‘निषेध‘, ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दमन‘ लगता है। ‘उदारवाद‘ के (जन)तांत्रिकों ने उनके कानों में यह मंत्र फूँक दिया है-कि ‘राष्ट्र‘, कुछ नहीं सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक ‘स्थानीयता‘ की ‘वर्चस्ववादी‘ एवम् ‘दमनकारी‘ व्यवस्था है- नेशन इज एन इमेजिण्ड कम्युनिटी। भारत एक राष्ट्र नहीं, बल्कि सैकड़ों राष्ट्रीयता का समुच्चय है, इसलिए, भारत की नक्शे में फैली भिन्न-भिन्न ‘राष्ट्रीयताएँ‘ जितनी जल्दी मुक्त हों, उतना ही श्रेयस्कर है। राष्ट्र-राष्ट्रं सिर्फ बौड़मों की चीख है। उसकी अनसुनी अनिवार्य है। ये उसके विखण्डन के हवन में अपनी तरफ से आहुति दे रहे हैं। इस हवन में अंतिम पूर्णाहुति के लिए उन्हें सिर्फ अब एफ.एम. को केवल ‘समाचार-प्रसारण’ की अनुमति की जरूरत भर है। फिर देखिए, सैकण्ड-दर-सैकेण्ड कैसे पैसा बरसता है। उनका पल-पल होगा पैसे के पास। नोम चोमस्की ने तो ठीक ही कहा है कि ‘डेमोक्रेसी हेज गान टू द हाईएस्ट बिडर।‘ जो जितनी ऊँची बोली लगायेगा, राजनीतिक सत्ता उसकी ही जेब में होगी।निश्चय ही बहुराष्ट्रीय निगमों की एक लम्बी कतार भारत में खड़ी हो गयी है और उनकी जेबें लम्बी हैं। उनमें सारे मीडिया की कटी हुई जबानें भरी पड़ी हैं। इसलिए, वे बोल नहीं रहे हैं, बस लगातार गुनगुना रहे हैं- ‘भूमण्डलीकरण भक्तिगीत‘।
-प्रभु जोशी
4, सम्वाद नगर,
नवलखा, इन्दौर
आवास: 0731-2400429
मोबाइल: 94253-46356

शुक्रवार, 14 मई 2010

क्यों कविता से दूर भाग रहा है समाज ?

जब से कविता प्रोफेसरीय और आलोचकीय आतंक से त्रस्त हुई है । तब से उसमें बौद्धिकता आयी है और उसकी सहजता , सम्प्रेश्नीयता बाधित हुई है । आप संत कवियों देखें आज भी उनकी कवितायें याद रहती हैं । छायावादी कवियों को देखें , निराला , महादेवी वर्मा , जयशंकर प्रसाद और सुमित्रानंदन पन्त इन सब की कविताएँ जीवन के उतार चढ़ावों में याद आती हैं । ये सब जीवन के कवि हैं । आप सहमत हों या न हों जब से कविता बौद्धिकता और विचार के बोझ से लादी गयी , वह आम आदमी के काम की नहीं बची । यही कारण है की कविता में ही अपने सभी संस्कारों के साथ जीने मरने वाला समाज ,आज कविता और कवि से बच कर निकलना चाहता है । चर्चा में अक्सर यह सुनाने को मिलेगा की फलाना कवि जमीन से जुडाहै पर सही बात यह है की जमीन की गंध से अब अक्सर हिन्दी कविओं का वास्ता नहीं रहा । जमीन से जुड़े कवि के पास एक अलग किस्म की द्रष्टि चाहिए ।
कवि शिशिर उपाध्याय का एक गीत देखें । इस गीत में सहजता भी है और आप को बचपन में वापस ले जाने की क्षमता भी । पाठक के मन में यदि कुछ वेचैनी पैदा न कर सके , कुछ हल चल न मचा सके ऐसी रचाना समय और कागज़ की बरबादी के अलावा और कुछ नहीं । श्री उपाध्याय के इस गीत का आस्वाद लीजिये ----
''माँकी याद''

बचपन के बीते लम्हों का कतरा -कतरा याद आता है

जब भी अच्छा काम करूं मैं माँका चहरा याद आता है

छुटपन में बहना संग खेला

जुटता है यादों का मेला

सावन में हाथों में बंधता सूत सुनहरा याद आत्ता है

जिसने हर पल मुझे सम्भाला

सीधासादा भोला भाला

फटी कमीज के घाव छुपाता भाई मेरा याद आता है

ज्वर में जब-जब हम तपते थे

रात -रात भर वो जागते थे
खटिया पर बैठ बाबुल संग हुआ सवेरा याद आता है

काँधे चढ़ कर रोज सवारी

करता था शिशिर वनवारी

थक कर चूर हुए दादा का , श्वास वो गहरा याद आता है

अनुशासन में जिसके घर था

नियम कायदा उसका स्वर था

हुंकारे देता दादी का हर दम पहरा याद आता है

बाल सखा संग एक ही धंधा

कंचे , भौरी , गुल्ली डंडा

कटी पतंग के लिए दौड़ता गोगी -शेरा याद आता है

माँ का आंचल मेरा घर था

छुप कर उसमें किसका था

सौ -सौ बार बलैयां लेतामुझे दसहरा याद आता है

जब भी अच्छा काम करूं मैं - माँ का चेहरा याद आता है ।

[ कविता संग्रह - ''वो घर नहीं रहा '' से साभार ]

गुरुवार, 13 मई 2010

बाल कविताओं का ऐतिहासिक संग्रह

आज हिन्दी में लगभग सभी बड़े कवी बाल कवितायेँ नहीं लिख रहे हैं । असल में बाल कविता लिखना सरल काम नहीं है । जब तक मन बच्चों की तरह पवित्र न होगा तब तक बाल कविता नहीं लिखी जा सकती है । एक समय था जब हिन्दी के सभी बड़े कवि बच्चों के लए कविता लिखते थे । आज के एस कठिन समय में सबसे अधिक नुक्सान बच्चों का ही हो रहा है । उनसे बचपन के कोमल स्पंदन छीन लिए गए हैं और उन्हें बलात युवक होने के लिए मजबूर किया जा रहा है । कारण अनेक हैं उन पर चर्चा बाद में होगी । इस वक्त तो कवि श्री ''कृष्ण शलभ '' दुआरा संपादित पुस्तक '' बचपन एक समंदर '' की बात हो रही है । इस संग्रह में हिन्दी के 666kaviyon की कवियों को रखा गया है । हिन्दी में बाल कविताओं का उद्भव कब हुआ इस पर एक टिप्पड़ी देखिये --''कौन है हिन्दी बाल कविता का प्रथम स्रष्टा , यह विचार , चिंतन निरंतर होता रहा है । इसके सहारे कुछ जगनिक [११००---१२००]के आल्ह खंड से , कुछ अमीर खुसरो [१२८३--१३२८] और कुछ महाकवि सूरदास [१४७८--१५८३] के क्रष्ण लीला पदों व तुलसीदास कृत काव्य [१५३२--१६२३]से भी इसके प्रादुर्भाव के सूत्र जोड़ते हैं '' । बहरहाल पुस्तक को देखकर आश्चर्य होता है की कैसे एक मुस्किल काम को पूरा किया गया । पुराने से लेकर नये सभी कवि अपनी बाल कवितों के साथ यहाँ उपस्थित हैं । हिन्दी में यह पहला बाल संग्रह है जो हमारे सामने पूरी तस्वीर उपस्थित करता है । इतना ही नहीं सभी कवियों के आवासीय पते भी उपलब्ध कराये गए हैं । ७३० प्रष्टों के इस संग्रह के कवर पर पर श्री प्रकाश मनु की टिप्पड़ी देखें ''ये ऐसी बाल कविताएँ हैं , जिन्हें विश्व की किसी भी अच्छी से अच्छी बाल कविता के सामने रखा जा सकता है । '' यह पुस्तक हिन्दी साहित्य की बहुमूल्य धरोहर है । पुस्तक '' बचपन एक समंदर '' सम्पादक '' श्री क्रष्ण शलभ '', मूल्य रु ७५० , प्रकाशक --''नीरजा स्मरति बाल साहित्य न्यास , २४५ , नया आवास विकास , सहारनपुर ,[उ प ]-२४७००१ -- प्रस्तुती राकेश शर्मा ।

मंगलवार, 11 मई 2010

हजार वर्ष की हिन्दी कविता


हिन्दी कविता के उद्भव और विकास पर कुमुदनी खेतान की पुस्तक '' स्वान्ता सुखाय ''एक महत्वपूर्ण रचना है । साहित्य के क्रमिक विकास समझने में पुस्तक बहुत मददगार है । हजार वर्ष की हिन्दी कविता यात्रा को सुरुचि पूर्ण ढंग से रखा गया है । यह पुस्तक हिन्दी कविता की ''गोल्डन ट्रेजरी'' होने का सही अधिकार रखती है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिंदी कविता को उसकी प्रव्रत्तियों के अनुसार काल खण्डों में विभाजित किया है उसी मानक पर इस पुस्तक की संपादिका ने कवियों और उनकी रचनाओं को हमारे सामने रखा है । हिन्दी साहित्य और हिन्दी भाषा का इतिहास जानने के लिए यह एक आधारभूत ग्रन्थ जैसी है । संपादिका ने हिदी के पहले कवि स्वयंभू , पुष्पदन्त ,कदहापा ,सरहपा से लेकर अभी तक के एक सौ कवियों को पुस्तक में स्थान दिया है । कविताओं के साथ -साथ कवियों का संक्षिप्त परिचय देकर तथ्यों को संग्रहनीय बनाया गया है .इतने तथ्यों को संग्रहीत करना ,उन्हें क्रम से रखना बहुत कौशल की मांग करता है । ऐतिहासिक महात्व की इस पुस्तक का अध्ययन हिन्दी साहित्य को समझने की इक्क्षा रखने वाले , शोधार्थी और जिग्याशों को अवश्य करना चाहिए । ---पुस्तक ''स्वान्ता सुखाय '', संपादिका -कुमुदनी खेतान , मूल्य रु -तीन सौ , प्रकाशक , नेशनल पब्लिशिंग , हॉउस तेईस , दरियागंज , नई दिल्ली । प्रस्तुती -- राकेश शर्मा

गुरुवार, 6 मई 2010

समय के रहस्यों से रू -ब रू कराती पुस्तक


लेखकों , चिंतकों ,युगप्रवर्तकों ,सामाजिक कार्यकर्ताओं और राजनेताओं के वारे में अनेक तरह यह किस्से एवं गलत फहमियां प्रसारित की जातीहैं । इसके अनेक कारण हैं । अक्सर लोग इन्हें ही सुनते सुनाते रहते हैं ।, मसलन भारत विभाजन के लिए गाँधी को जिम्मेदार तहराया गया । परन्तु डॉ राम मनोहर लोहिया की पुस्तक '' भारत विभाजन के गुनहगार '' को पढ़ कर बात दूसरी और इशारा करती है । इतिहास मैं मंडल कमीशन के विषय और ऐसे ही अनेक मुद्दों पर पूर्व प्रधानमंत्री विश्वानाथ प्रताप सिंह की अनेक छवियाँ बानाई गईं हैं । इन छवियों के उस पार के सच को लेखक श्री अशोक कुमार सिन्हा ने अपनी पुस्तक '' वी पी सिंह सफ़र और संघर्ष '' में उजागर किया है । बहुत श्रम और श्रधा से लिखी गयी इस पुस्तक में उस समय के अनेक अनछुए ,अप्राचारित प्रसंग पढ़ कर प्राप्त किये जा सकते हैं । उस काल खंड की नब्ज जानने के लिए यह पुस्तक हमारी मद्दद करती है । पुस्तक की भूमिका में ही लेखक नें लिखा है ---''किसी व्यक्ति की पहचान के लिए जरूरी है की उसके जीवन व्रत की पहले यात्रा की जाये । फिर भी इससे व्यक्ति का सही परिचय नहीं किया जा सकता । उसका सही परिचय होता है समय की शिला पर उसके दुआरा रचा गया वह चित्र उकेरा जायेआगत पीदियाँ स्त्रष्ण , ग्रहणीय नजरों से आदर पूर्वक ग्रहण कर सकें । पुस्तक में अनेक ऐसे स्थल हैं जहां पहुच कर सूचनाओं का भंडार मिलता है । लेखक ने इन तथ्यों को प्रस्तुत करने मेंबहुत श्रम किया है । इतिहास की द्रष्टि से पुस्तक मूल्यवान है। वी पी सिंह के कवी मन , चित्रकार , राजनेता और एक संवेदन शील मनुष्या की अनेक छवियाँ इसमें दर्ज हैं । पुस्तक -- '' वी पी सिंह सफ़र और संघर्ष '' लेखक -- ''अशोक कुमार , मूल्य रु ५५० प्रकाशक विशाल पुब्लीकेशन , कैलाश मार्केट , दरियापुर , पटना - ८००००४। प्रस्तुती --- राकेश शर्मा ।