देश के संविधान की उद्देशिका में लिखा गया। हम भारत के लोग भारत को (सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न समाजवादी, पंथ निरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य) बनाने के लिए तथा इसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक, न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा उन सब मैं व्यक्तित्व की गरिमा और 2 (राष्ट्र की एकता और अखंडता) सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान स्भा में आज तारीख 26 नवम्बर 1949 ई. (मिति, मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी संवत दो हजार छह विक्रमी) को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्म अर्पित करते हैं।
प्राचीन और गौरवशाली राष्ट्र के लिए इससे बेहतर सपना भला और क्या हो सकता है। कुछ मदों पर हम साकार सपने को आगे के लिए बढ़े भी मगर कुछ मदों पर फिस्सडी सिद्ध हुए। जैसे ‘‘उन सब में अभिव्यक्ति की गरिमा’’ और ‘राष्ट्र की एकता और अखण्डता’ के सन्दर्भों में हिन्दी समेत भारतीय भाषाओं की भूमिका को रेखांकित नहीं किया गया। राष्ट्रीय अखण्डता को अक्षुण्य बनाने में भाषा की सबसे बड़ी भूमिका है। स्वातंत्र संग्राम ने सिद्ध कर दिया था कि राष्ट्रीय अखण्डता के लिए हिन्दी आवश्यक होगी। इसी का परिणाम हुआ कि हिन्दी को राजभाषा बनाया गया मगर स्थिति ‘‘नौ दिन चले अढाई कोश’’ वाली ही सिद्ध हुई। न्याय आज भी, न्याय की याचना हमारों पुरखों ने अपने महान कार्यों को ध्यान में रखकर इसे भारत कहा था। मतलब भा (प्रकाश, ज्ञान) रत (लगा हुआ) अर्थात वह देश जो निरंतर ज्ञान की खोज में लगा हो, करने वाले नागरिक को आज भी उसकी भाषा में न्याय नहीं दिया जाता है। इस सन्दर्भ में हमें संविधान की इस पंक्ति को भी याद करना चाहिए - श्प्दकपं जींज पे ठींतजश् यह केवल एक वाक्यभर ही नहीं बल्कि हमारी असावधानी और पश्चिम परस्त सोच का भी प्रतीक है। इसे लिखा जाना चाहिए था - श्ठींतज जींज पे प्दकपंश् भारत पहले है। इसका प्दकपं नाम बाद का है। भारत मतलब यहाँ के आमजन सहित को सब ध्वनित करने वाला देश।
बाद के चिन्तकों ने कहना शुरू किया भारत शब्द से भारतीय जनमानस का परिचय मिलता है जब कि इण्डिया से इलीठ कला स का बोध होता है। हालांकि यह विभाजन वैज्ञानिक नहीं है मगर अर्थ को विस्तार तो देता है। ‘हम भारत के लोग’ में सब आते हैं। मगर प्दकपं में बहुत हद तक अंग्रेजी समर्थक और अपने को अधिक साक्षर मानने वाले नगरीय सभ्यता से ओतप्रोत लोग। शेष जन भारत के निवासी मानें जाए जो मडगाँव, जंमतो और दूरस्थ स्थानों पर निवास करते है। वे अपनी सांस्कृतिक विरासत पर गौरव करते अपने पुरखों के पढाएं पाठ पर जीवन जीते हैं।
‘इण्डिया दैड इज भारत’ में अंग्रेजी, अंग्रेज मानसिकता को प्राथमिकता दी जा रही है। और यह मात्र अब बहुत संघर्ष मय हो गयी है। अंग्रेजी और भारतीय भाषाओं की प्रतिबद्धता आजादी पूर्व उतनी घनी नहीं थी जितनी आज हो गयी है। सत्तर साल का समय बीत गया। हम अपने भारत के लोगों को ये न समझा सके और न ही नीतियाँ बना सके कि देश की एकता व अखण्डता के सन्दर्भों में हिन्दी की भूमिका क्या है और भारतीयता के संरक्षण में हमारी तमाम भारतीय भाषाओं को खोकर हम पुरखों के द्वारा अपनायी गयी वैज्ञानिक जीवन शैल्ी, औषधीय ज्ञज्ञन को सुरक्षित रख सकेंगे। अंग्रेज परस्त इतिहासकारों ने यह भ्रम फैलाया कि भाषा केवल सम्प्रेषण का माध्यम भर है। यह काम किसी भी भाषा से लिया जा सकता है मगर ऐसा है नहीं। तथ्य ये है कि भाषा को मारकर हम संस्कृति की रक्षा नहीं कर सकते। इसका एक संकेत संविधान के अनुच्छेद 343 में मिलता है।