गाँधी जी हिन्दी को राष्ट्रीय भाष बनाना चाहते थे । यह बात और है की बाद में वे हिन्दुस्तानी के पक्ष में बात करने लगे थे । हिन्दुस्तानी का पक्ष उन्होंने इस लए लिया था कियोंकि वे नहीं चाहते थे की भाषा के कारन हिंदू और मुसलमानों के बीच झगडा न हो । सन १९१८ में साहित्य सम्मेलन प्रयाग के८वेन अधिवेशन को संवोधित करते हुए उन्होंने इंदौर में कहा था '' आज हिन्दी से स्पर्धा करने वाली कोई भाषा नहीं है । हिन्दी -उर्दू का झगडा छोड़ने से रास्ट्रीय भाषा का सबाल सरल हो जाता है । हिन्दुओं को फारसी शब्द थोड़ा बहुत जानना पड़ेगा इस्लामी भाइयों को संस्कृत शब्द का ज्ञान संपादन करना पड़ेगा । इसे लें देन से हिन्दी भाषा का बल बडेगा और हिंदू मुसलमानों में इकता का इक बड़ा साधन हमारे हाथों में आ जाएगा । अंग्रेजी भाषा का मोह दूर करने के लिए इतना अधिक श्रम करना पड़ेगा की हमें लाजिम है की हम हिन्दी -उर्दू का झगडा न उठाएं । लिपि की तकरार भी हमें न उतानी चाहिए । '' ( अनुभूति के स्वर प्रष्ट ८व ९ ) गाँधी जी हिन्दी के विकास के लिए उर्दू और हिन्दी की विभाजक रेखा मिटाना चाहते थे । उनकी यह व्हाहट कोरी कल्पना न थी बल्कि इसके बहुत मजबूत भाषाई आधार थे । हिन्दी के सुविख्यात आलोचक डा .रामविलास शर्मा ने इस विषय पर अपने चिंतन को इन शव्दों में लिखा है '' जब तक दो लिपियों का चलन रहता है,टीबी तक हिन्दी का बाजार विभाजित रहता है संयुक्त बाजार में हिन्दी और उर्दू के बिच होड़ हो , दोनों का साहित्य एक लिपि के मध्यम से आम पातकों तक पहुंचे , तो वे फ़ैसला क्र सकेंगे , कौन सी शैली उन्हें अधिक पसंद आयगी उसी का चलन होगा । पूरे भारत के मानचित्र को देखते हुए ऐसी सामान्य लिपि नागरी ही हो सकती है । फारसी और संस्कृत के शव्दों को तो एक भाषा में तो मिलाया जासकता है परन्तु फारसी और नागरी लिपि को मिलकर एक अजूबा लिपि नहीं बनाई जा सकती । इस लिए इन दो में एक को चुनना होगा ।अनपद किसानो और मजदूरों को शिक्षित करना हो तो उन पर दो लिपियाँ लड़ना उन पर भरी अत्याचार करना होगा । एक लिपि ही सीख लें तो बड़ी बात है । इसलिए जो लोग भी किसानों और मजदूरों के आन्दोलन से दिलचस्पी रखते हैं , उन्हें कम से कम हिन्दी प्रदेश में नागरी लिपि के व्यव्हार और प्रयोग पर जोर देना चाहिए ।'' (गाँधी , आम्बेडकर , लोहिया और भरतीय इतिहास की समस्यां -प्रष्ट ४१९ )
हिन्दी -उर्दू के बीच की बड़ाई गई है । इसा करने वालो न के निजी किंतु संकीर्ण स्वार्थ हैं विश्व में यही दो भाषायं है जिनके क्र्यापद सामान हैं केवल लिपि बदल देने से उसे एक अलग भाषा बनने की बात समझ में नहीं आती । अगर उर्दू को नागरी में लिखा गया होता तो इसके साहित्य के पातकों की संख्या आज भुत होती । गाँधी जी इसी लिए सामान लिपि की बात कर रहे थे । उनको इसी द्रष्टिकोण को श्री विनोवा भावे ने आगे बढाया था । इतना ही नहीं उन्होंने सभी भारतीय भाषाओँ के लिए सामान लिपि की वकालत की थी । ऐसा करने से भारतीय भाषाओँ के समक्ष आज मौजूद चुनौती का सामना सरलता सा किया जा सकता था । समांन लिपि होने से भाषाओ की पहचान को भी कोई खतरा नहीं होता । यौरोपे की सभी भाषाओँ की लिपि रोमन है फिर भी उनकी पहचान अलग अलग है इसी तरह भारत की भाषाओँ की लिपि देव नगरी हो सकती है । आज जब यह शोध सामने आगया है की सन २०४० तक हिन्दी के अलावा भारत की अन्य भाषाएँ समाप्त हो जाएँगी । ऐसे कठिन समय में भाषाओं को बचाने के लिए सामान लिपि वाला फार्मूला राम बाण है । गाँधी जी इतिहास के वारे में मौलिक दंग से सोचते थे । उनके लिए इतिहास उर्जा प्राप्त करने का साधन है । उन्होंने लिखा '' इतिहास देश पर गर्व करना सिखाने का साधन है । मुझे इतोहस सिखाने की उपने स्कूल की पद्धति में इस देश के बारे में गर्व अनुभव करने का कोई कारन नहीं मिला । इसके लिए मुझे दूसरी किताबें पदनी पड़ीं । '' (गाँधी वांग्मय १४/३२) यहाँ गांघी जी नें इतिहास के वारे में बहुत बुनयादी सवाल उठाए हैं । इन सवालों के जबाव पंडित सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला ने सुधा पत्रिका की संपादकी में लिखे हैं । निरंतर------
6 टिप्पणियां:
राकेश जी,
एक बहुत ही सार्थक बहस का मुद्दा उठाया है आपने. आज के दौर अमें जहां एक ओर आदमी केवल जाति / धर्म पर ही नही भाषाई आधार पर भी बांटे जा रहे हैं.
मेरे अपने मत में गाँधी जी केवल एक व्यक्तित्व नही बल्कि एक विचारधारा थे. आज का इतिहास हि यह बताता है कि अंहिसा के सिध्दांतों पर चल कर केवल नेल्सन मंडेला ही महान नही बनें बल्कि एक लंबी श्रृखंला है.
गहरे चिंतन विषय के लिये बधाईयाँ.
मुकेश कुमार तिवारी
शर्मा जी आपका कहना नितांत सत्य है कि आज व्यक्ति या तो नेता की या अभिनेता की बात सुनता है /ये दोनों ही भाषा के प्रति चिंतित नहीं है /असल में होता क्या है कि अभिनेता तो वही बोलता है जो उसे डायरेक्टर कहता है या डायलोग लेखक जो लिखता है /डायलोग लेखक यह सोचता है कि लोग ज़्यादा क्या पसंद करेंगे इसलिए भाषा की टांग तोड़ने के प्रयास ने निरंतर रहता है सिनेमा की भाषा ने ऐसे ऐसे डायलोग परोस दिए हैं कि जिनका साहित्य से कुछ लेना देना नहीं है ""अन मिल आखर अरथ न जासू "" कुछ ऐसे शब्द जिनको हम गाली की संज्ञा देते थे आज आम प्रचालन में है /जहाँ तक हिन्दी और उर्दू की बात है दोनों एक दूसरे के बगैर अधूरी है /एक और भाषा संस्कार में आरही है वह है एस एम् एस की भाषा जो रोमन लिपि में लिखी जाती है /आपके ब्लॉग पर उस भाषा में कमेन्ट भी आयेंगे /बिल्कुल शोर्ट कट या कहें शोर्ट हैण्ड /आज कल त्वरित गति का जमाना है डिटेल में न को किसी को पढने की फुरसत है न सुनने की /आपका लेख बहुत ही समयानुकूल है साथ ही शिक्षा प्रद भी /अभी तो ये आर्टीकल अपूर्ण है दूसरा भाग चार पाँच दिन बाद लिखना ताकि सुधी पाठक इस लेख को ध्यान पूर्वक पढ़ सकें
bhasha aur usske itihaas ke prati jb tk aap jaise vivek.sheel log
chintit haiN, tb tk sahitya ke prati anuraag rakhne waaloN ko saahas ke sath
aage barhte rehne meiN koi kathinaaee nhi honi chaahiye...
Aapko naman kehtaa hooN ...!
---MUFLIS---
bahut mehanat se aapane achchha lekh likha padhakar bahut kuch janane ko mila.dhanywaad.
राकेश जी
यह एक बहुत गम्भीर मुद्दा है. और सबसे बडी चिन्ता यह है कि इस पर कोई बात नही हो रही है. यह अच्छी बात है कि आपने यह आलेख लिखा.
-प्रदीप कान्त
Bhai Mukesh ji , I just gone through your poem .cogratulation to writting cnstentetly. I have all so invited views for Hindi.
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