शनिवार, 22 अप्रैल 2023

कोरोना समय और समस्याएँ

 कोरोना समय और समस्याएँ

कोरोना ने गाँव की याद दिला दी। हर एक को हरि नाम की तरह। गाँव की याद ही नहीं दिलाई बल्कि गाँव वापसी भी करवाई। केवल दूर ही वापस गये वापस वे भी जाना चाहते थे जो समर्थ है, धनवान है और जो दशकों पहले गाँव से बिछड़ गये थे। ऐसा नहीं है कि गाँव सभी समस्याओं का हल है। अगर ऐसा ही होता तो लोग अपने पुरखों का गाँव छोड़कर शहर आते ही क्यों ? आजादी के बाद हमारी सत्ताओं ने गांधी के ‘ग्राम स्वराज’ की अनदेखी की है। इसी पाप का यह भयानक परिणाम है कि अधिकांश जन ना तो गाँव के रहे, ना शहर के हो पाये। शहर में रहते हुए भी इनकी रगो में गाँव, रक्त बनकर दौड़ता रहा। गाँव और शहर के बीच का द्वन्द्व ने गाँव उजाड़ दिये और शहर कुरुप और बोझिल बनते गये। शायद कोरोना महामारी से शिक्षा लेकर अब हमारी सत्ताएँ ग्राम स्वराज की अवधारणा पर ध्यान देगी। यह उम्मीद की जा सकती है। गाँव की आत्मनिर्भरता से ही राष्ट्र की वास्तविक और टिकाऊ उन्नति का मार्ग प्रशस्त होगा। केवल स्मार्टसिटी बनाने की रटन्त छोड़िए, स्मार्टगाँव का मंच भी जपिए। इसी से बेरोजगारी मिटेगी और पलायन रुकेगा। कुटीर उद्योगों से गाँव का स्वरुप निखरेगा और प्रगति की नई इबारत लिखी जा सकेगी और इसे आप भारतीय संस्कृति कहते है उसकी आत्मा का क्षरण भी रोका जा सकेगा। ग्रामीण से नागरिक बनने का रास्ता सरल भले ही मालूम पड़े मगर इसका भविष्य वर्तमान में बहुत धंुधला और कुरुप है। इसकी बहुत बड़ी कीमत हमारा राष्ट्र चुका रहा है। आज आवश्यकता है कि तत्काल प्रभाव से ऐसे प्रबंध किये जाये कि यह संघर्ष हमेशा के लिए बदल जाये। 
कोरोना ने विज्ञान के अहंकार को भी चुनौती दी है। जो देश यह कल्पना कर रहे थे कि वे विज्ञान के सहारे आदमी को अजर-अमर बना देंगे। वास्तविकता यह है कि वे अदृश्य विषाणु (वायरस) से हार गये। जीवन सुरक्षा के लिए उठी उनकी चित्कार पूरा विश्व सुन रहा है। लगता है कि विज्ञान को अभी प्रकृति के तमाम रहस्य समझने में बहुत समय लगेगा और यदि अंततः वह ना समझ पाये तो आश्चर्य नहीं होगा। आचार्य रजनीश से किसी ने पूछा था- ‘‘क्या विज्ञान आध्यात्म को समझ सकता है’’ ? उनका उत्तर था-‘‘कभी नहीं, जहाँ विज्ञान की सीमा समाप्त होती है वहाँ से आध्यात्म की सीमा शुरु होती है।’’ यह सच है कि विज्ञान ने मनुष्य के जीवन को सरल, सुगम बनाया है और वह अनंतकाल तक अपने कार्य में यूँ ही लगा रहेगा। सवाल यह है कि क्या सरलता, सुगमता जीवन का अंतिम उद्देश्य है ? 
कोरोना काल में अनेक चिकित्सक भी बेमौत मारे गये। ये लोग असाधारण लोग थे, जो बीमारी के संक्रमण की बारीकियों से परिचित थे। इन्हें एक अदद वैक्सीन की दरकार थी। आवश्यकता ही अब तक अनुसंधान करवाती आ रही है और भविष्य में भी करवाती रहेगी। मगर भविष्य में भी ये चुनौतियाँ कम नहीं होगी। विज्ञान और प्रकृति के संघर्ष की कथा अनंतकाल तक इसी तरह चलने वाली है। वैज्ञानिक युग के आदमी ने पहली बार मौत का तांडव देखा है। महामारियों का इतिहास बताता है कि किस तरह लोग महामारियों के शिकार होते रहे है, मगर तब तकनीक ने दुनिया को इतना छोटा नहीं बनाया था। आदमी प्रकृति की गोद में स्वाभाविक जीवन जी रहा था। सूचनाओं और दवाओं का तंत्र नहीं था। 
कोरोना ने कुछ अनसुलझे सवालों के जवाब भी हमें दिये है। कोरोना से पहले पर्यावरण संतुलन के लिए दुनिया चिंतित थी। इधर मृत्यु से भयभीत मनुष्य ने लाॅकडाउन किया। बदहवास दौड़ती जिंदगी अचानक थम गई या मौत के भय से सहम गई। जीवन का कोलाहल निस्तब्धता में बदल गया। अचानक मनुष्य को लगा कि वह कहाँ जा रहा था। उसने यह भी समझा कि जीवन के लिए बहुत अधिक वस्तुओं के संग्रहित की आवश्यकता नहीं है। आवश्यकताएँ कम की जाये और प्रकृति की शरण में जीवन जिया जाये। इधर प्रकृति भी अपने मौलिक कलेवर में चली गयी। परिणाम यह हुआ कि हमने आकाश की पहली नीलिमा के दर्शन किये। पहाड़ों की संुंदरता और नयनाभिराम हरियाली भी देखी, पक्षियांें का कलरव शहर में भी सुनाई दिया, नदियाँ निर्मल हुई। ये वे नदियाँ है जिन्हें निर्मल बनाने के लिए हमने तरह-तरह की कोशिशें भी की थी, मगर परिणाम शून्य ही रहा। कारण स्पष्ट है कि सबके मूल में हमारा दुराचरण ही था। आज शहरों में वायु सांस लेने योग्य हुई और ध्वनि प्रदूषण अपने न्यून स्थिति में आ गया। मगर ये सारी स्थितियाँ एक स्वप्न की तरह है, कुछ समय के लिए है। घरों में बंद जनसंख्या जैसे ही मुक्त होगी, ईंधन से चलने वाले यंत्र फिर आग उगलना शुरु करेंगे और फिर मनुष्य का उसी नरक में जीने को विवश होगी। इस कोरोना काल में हमसे कहा है कि अगर आप प्रकृति को विनाश से बताना चाहते हो तो बचा सकते हो। दुनिया के सभी देश हर वर्ष एक सुनिश्चित अवधि के लिए लाॅकडाउन में जाना तय करें, ताकि प्रकृति रुपी सुंदरी अपने सौंदर्य को अक्षुण्य बनाये रखने का प्रयत्न कर सके। 
लाॅकडाउन में संवाद की नई शैली भी विकसित की है। तकनीक ने हमारी कल्पना को नया आकाश दिया है। साहित्य जैसे मार्मिक विषय को सोशल मीडिया के माध्यम से लोगों तक पहुँचाया है। प्रकाशकों, संस्थाओं ने आॅनलाईन व्याख्यान प्रारंभ किये। ये संकेत हमें नये युग में जाने का विश्वास दिला रहे है। अब एक सवाल यह है कि क्या कोरोना के बाद हम लोग पुराने ढ़ंग का जीवन जी पायेंगें ? शायद नहीं। इस अवधि के अनुभवों, आदतों से उभर पाना शायद संभव न होगा, अब भविष्य तकनीक के सहारे तय होगा। 
जो लोग इस अवधि में दिवंगत हुए उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित करना हम सबका कर्तव्य है। विचारक कहते थे कि जीवन क्षणभंगुर है, मगर इस कटु सत्य को इस महामारी ने हमारे समक्ष रखा। मृत्यु को प्राप्त लोगों ने और ना ही शेष समाज ने यह कल्पना की थी कि अंतिम यात्रा पर निकले इन लोगों को रक्तसंबंधियों का कांधा भी नसीब नहीं होगा। कोरोना से मृत्यु को प्राप्त लोगों को श्रद्धासुमन भी अर्पित न हो सके। एक दृश्य यह भी सामने आया कि अनेक रक्तसंबंधियों ने मृत देह को लेने से ही मना कर दिया। जीवन के इस नितांत सत्य से कम से कम भारत का जनमानस पूर्व से ही परिचित था कि यह जीवन यात्रा अकेले ही आता है परन्तु हमारे मन से यह विचार, आकांक्षा बहती ही रही है कि उनकी मृत देह को उनका रक्तसंबंधी भी अग्नि स्नान करायेगा, मगर महामारी ने निश्चय ही एक अलग परिदृश्य रचा है। नियति के गर्भ में क्या छुपा है, हमारी आँखे और हमारा मन अभी तक नहीं जान सका है। हमारी जिजीविषा शक्ति ही जीवन की नग्नता, कुरुपता को ढंककर अग्रसर होने के लिए प्रेरित करती आ रही है। इसी के बल पर मनुष्यता ने अब तक की यात्रा की है और भविष्य में भी यह यात्रा जारी रहेगी। ऐसे ही महामारियों के दौर से गुजरते हुए पुरखों ने प्रार्थना की थी ‘‘सर्वे सन्तु निरामया’’ आइये इसी प्रार्थना को हम लोग भी दोहराते है। 

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