
तुलसीदास के बाद हिन्दी साहित्य में निराला ही सर्वाधिक सम्मान पाने वाले कवि हैं । जिस तरह फारसी के आतंक से हिन्दी को मुक्त करने का काम तुलसी ने किया था ,उसी तरह अंग्रेजी से हिन्दी को मुक्ति दिलाने के लिए निराला ने संघर्ष किया । उन्होंनें न केवल अपने लेखन से हिन्दी को आगे बढाया किया बल्कि उस समय के नेताओं के साथ भी विमर्श किया । आज हिन्दी के विकास में जो वधाएं हैं उन्हें निराला की तरह सत्ता के सामनें उतने वाले लेखक दिखाईनहीं पढ़ते । डॉ रामविलास शर्मा ने लिखा है की निराला के जीवन का एक मात्र उद्देश हिन्दी का विकास था । इसके लिए वे उस समय के शीर्ष नेताओं के सामने अपना पक्ष रखते थे । इसका एक उदहारण देखए -----''जनता से विदा होने और गाड़ी के चलने पर जब नहरू जी भीतर आकर बैठे तब निराला ने शुरू किया ---आपसे कुछ बातें करने की गरज से आपनी जगह से यहाँ आया हूँ । नहरू ने कुछ न कहा । निराला ने आपना परिचय दिया फ़िर हिदुस्तानी का प्रसंग छेदा , शूक्ष्म भावः प्रकट करने में हिनुस्तानी की अस्मार्थिता जाहिर की फ़िर एक चुनौती दी ; मैं हिन्दी के कुछ वाक्य आप को दूँगा जिनका अनुवाद आप हिन्दुस्तानी जवान में कर देंगे , मैं आप से प्राथर्ना करता हूँ । इस वक्त आप को समय नहीं । अगर इलाहाबाद में आप मुझे आगया करें .तो किसी वक्त मिलकर मैं आप से उन पंक्तियों के अनुवाद के लिए निवेदन करूँ । जवाहर लाल ने चुनौती स्वीकार नहीं की समय देने में असमर्थता प्रकट की । निराला ने दूसरा प्रसंग छेरा .समाज के पेछ्देपन की बात , ज्ञान से सुधर करने का सूत्र पेश किए । हिंदू मुस्लमान समस्या का हल हिन्दी साहित्य में जितना सही पाया जाएगा , राजनीत साहित्य में नहीं --निराला नें आपनें व्यावहारिक वेदांत का गुर समझाया जवाहर लाल नेहरू डिब्बे में आयी बाला को देखते रहे ,उसे टालने की कोई कारगर तर्कीव सामनें न थी । डिब्बे में आर एस पणित भी थे । दोनों में किसी ने भी बहस में पड़ना उचित नहीं समझा । लेकिन निराला सुनने नहीं सुनाने आए थे । बनारस की गोष्टी में जवाहर लाल के भाषण पर वह 'सुधा 'में लिख चुके थे , अब वह व्यिक्ति सामने था जो अपने हिन्दी -साहित्य सम्बन्धी ज्ञान पर लज्जित न था । जो सुयाम अंगरेजी में लिखता था , जो हिन्दी वालों को क्या करना चाहिए ,उपदेश देता था । (इससे पूर्वपंडित नेहरू बनारस एक सम्मलेन में कह आए थे की हिन्दी साहित्य अभी दरवारी परम्परा से नहीं उबरा है । यहीं पर उनहोंने यह भी कहा था की अच्छा होगा की अंग्रेजी साहित्य की कुछ चुन्नी हुए पुस्तकों का हिन्दी में अनुवाद कराया जाए , इस पूरे प्रसंग पर निराला ही निराला ,पंडित जवाहरलाल नहरू से बात कर रहे थे )
निराला ने कहा ; पंडित जी यह मामूली अफ़सोस की बात नहीं है की आप जैसे सुप्रसिद्ध व्यक्ति के इस प्रान्त में होते हुए भी इस प्रान्त की मुख्या भाषा हिन्दी से प्रायः अन्विग्य हैं किसी दूसरे प्रान्त का राजनीतिग्य व्यक्ति एसा नहीं । सन १९३० के लगभग श्री शुभाष बोस ने लाहौर के बीच भाषण करते हुए कहा था की बंगाल के कवि पंजाब के वीरों के गीत गाते हैं । उन्हें अपनी भाषा का ज्ञान और गर्व है । महात्मागांधी के लिए कहा था गुजरती को उनहोंने नया जीवन दिया था । बनारस के जिन साहित्यकारों की मंडली में आपने दरवारी कवियों का उल्लेख किया की ,उनमें से तीन को में जनता होऊं । तीनो अपने- अपने विषय के हिन्दी के प्रवर्तक हैं । प्रसाद जी काव्य और नाटक -साहित्य के , प्रेम्चान्द्रजी कथा-साहित्य के और रामचन्द्रजी शुक्ल आलोचना साहित्यके । आप ही समझिये की इनकेबीच आपका दरवारी कविओं का उल्लेख कितना हास्यास्पद हो सकता है । एक तो हिन्दी के साहित्यिक साधारण श्रेणी के लोग हैं ,दूसरे एक हाँथ से बार झेलते हुए दूसरे से लिखते हुए ,दूसरे आप जैसे बड़े - व्यक्तियों का मैदान में वे मुखालफत करते हुए देखते हैं । हमने जब काम शुरू किया था ,हमारी मखाल्फत हुई थी आज जब हम कुछ प्रतिष्टित हुए ,अपने विरोधिओं से लड़ते हुए , साहित्य की श्रष्टि करते हुए ,तब किन्हीं मायिने में आपको मुखालफत करते हुए देखते हैं .यह कम दुर्भाग्य की बात नहीं है साहित्य और सहितिय्क के लिए .हम वार झेलिते हुए सामने आए ही थे की आपका वार हुआ .हम जानते हैं .हिन्दी लिखने के लिए कलम हाँथ में लेने पर बिना हमारे कहे फैसला हो जाएगा के बड़े से बड़ा प्रसिद्ग राजनीतिक एक जानकर साहित्यिक के मुकावले में कितने पानी में टहरता है । लेकिन यह तो बताये ,जहाँ सुभास बाबू , अगर में भूलता नहीं .अपने सभापति के भाषण में सर्द्चंद्र के निधन का जिक्र करते हैं , वहां क्या वजह है जो आप की जुबान पर प्रासद का नम नहीं आया । में समझता हूँ आप से छोटे नेता सुभास बाबु के जोड़ के शव्दों में कांग्रेश में प्रसाद जी पर शोक -प्रस्ताव पास नहीं करते । क्या आप जानते हैं की हिन्दी के महत्त्व की द्रष्टि से प्रसाद कितने महान हैं ?जवाहरलाल एक तक निराला को देखते रहे ऐसा धराप्रवाह भासन सुननेवाला उनेहं जीवन में पहला विय्क्ति मिला था । अगला स्टेशन अभी आया न था निराला को प्रेम चाँद याद आए प्रेमचंद पर भी वैसा प्रस्ताव पास नही हुआ जैसा शरतचंद्र पर । नहरू ने टोका -नहीं जहाँ तक याद है ,प्रेमचंद्र पर तो एक शोक प्रस्ताव पासकिया गया था
निराला ने अपनी बात स्पष्ट की जी हाँ यह में जनता हूँ ,लेकिन वैसी महत्ता नहीं थी जैसी शरद चंद्र वाले की थी
आख़िर अयोध्या स्टेशन आ गया । निराला ने आखिरी बात कहीअगर मौका मिला तो आपसे मिलकर फ़िर सहितियक प्रश्न निवेदित करूँगा '' । ( निराला की साहित्य साधना भाग 1 प्रष्ट -३२०-३२१) यह विवरण सन १९३५ का है । यहाँ यह प्रश्न जरूरी है की जो लोग आज सत्ता के नजदीक हैं , वे लोग आज के हिन्दी साहित्य ओर हिन्दी भाषा के सामने मौजूद चुनौतिओं का जिक्र नहीं करते । हिन्दी के सामने लिपि की नई समस्या उत्पन्न की गई है । आज की पीढी हिन्दी को रोमन में लिख रही है । सोचिये तो जरा अगर यही हालत रही तो आगामी दिनों में देवनागरी लिपि का क्या होगा । इस पर विचार करने की जरूरत है ।इससे भी अधिक शर्म नाक यह है की इस पर चिंतन करनेवालों को पुरातनपंथी घोषित किया जाता है । इंदौर के श्री प्रभु जोशी ने इस विषय पर सबसे पहले लोगों का ध्यान खींचा उनहोंने न केवल लिखा वल्कि एक राष्ट्रीय बहस भी पैदा की । इस विषय पर गहरे चिंतन की जरूरत है । यह हमारी अस्मिता का प्रशन है ।
निराला ने कहा ; पंडित जी यह मामूली अफ़सोस की बात नहीं है की आप जैसे सुप्रसिद्ध व्यक्ति के इस प्रान्त में होते हुए भी इस प्रान्त की मुख्या भाषा हिन्दी से प्रायः अन्विग्य हैं किसी दूसरे प्रान्त का राजनीतिग्य व्यक्ति एसा नहीं । सन १९३० के लगभग श्री शुभाष बोस ने लाहौर के बीच भाषण करते हुए कहा था की बंगाल के कवि पंजाब के वीरों के गीत गाते हैं । उन्हें अपनी भाषा का ज्ञान और गर्व है । महात्मागांधी के लिए कहा था गुजरती को उनहोंने नया जीवन दिया था । बनारस के जिन साहित्यकारों की मंडली में आपने दरवारी कवियों का उल्लेख किया की ,उनमें से तीन को में जनता होऊं । तीनो अपने- अपने विषय के हिन्दी के प्रवर्तक हैं । प्रसाद जी काव्य और नाटक -साहित्य के , प्रेम्चान्द्रजी कथा-साहित्य के और रामचन्द्रजी शुक्ल आलोचना साहित्यके । आप ही समझिये की इनकेबीच आपका दरवारी कविओं का उल्लेख कितना हास्यास्पद हो सकता है । एक तो हिन्दी के साहित्यिक साधारण श्रेणी के लोग हैं ,दूसरे एक हाँथ से बार झेलते हुए दूसरे से लिखते हुए ,दूसरे आप जैसे बड़े - व्यक्तियों का मैदान में वे मुखालफत करते हुए देखते हैं । हमने जब काम शुरू किया था ,हमारी मखाल्फत हुई थी आज जब हम कुछ प्रतिष्टित हुए ,अपने विरोधिओं से लड़ते हुए , साहित्य की श्रष्टि करते हुए ,तब किन्हीं मायिने में आपको मुखालफत करते हुए देखते हैं .यह कम दुर्भाग्य की बात नहीं है साहित्य और सहितिय्क के लिए .हम वार झेलिते हुए सामने आए ही थे की आपका वार हुआ .हम जानते हैं .हिन्दी लिखने के लिए कलम हाँथ में लेने पर बिना हमारे कहे फैसला हो जाएगा के बड़े से बड़ा प्रसिद्ग राजनीतिक एक जानकर साहित्यिक के मुकावले में कितने पानी में टहरता है । लेकिन यह तो बताये ,जहाँ सुभास बाबू , अगर में भूलता नहीं .अपने सभापति के भाषण में सर्द्चंद्र के निधन का जिक्र करते हैं , वहां क्या वजह है जो आप की जुबान पर प्रासद का नम नहीं आया । में समझता हूँ आप से छोटे नेता सुभास बाबु के जोड़ के शव्दों में कांग्रेश में प्रसाद जी पर शोक -प्रस्ताव पास नहीं करते । क्या आप जानते हैं की हिन्दी के महत्त्व की द्रष्टि से प्रसाद कितने महान हैं ?जवाहरलाल एक तक निराला को देखते रहे ऐसा धराप्रवाह भासन सुननेवाला उनेहं जीवन में पहला विय्क्ति मिला था । अगला स्टेशन अभी आया न था निराला को प्रेम चाँद याद आए प्रेमचंद पर भी वैसा प्रस्ताव पास नही हुआ जैसा शरतचंद्र पर । नहरू ने टोका -नहीं जहाँ तक याद है ,प्रेमचंद्र पर तो एक शोक प्रस्ताव पासकिया गया था
निराला ने अपनी बात स्पष्ट की जी हाँ यह में जनता हूँ ,लेकिन वैसी महत्ता नहीं थी जैसी शरद चंद्र वाले की थी
आख़िर अयोध्या स्टेशन आ गया । निराला ने आखिरी बात कहीअगर मौका मिला तो आपसे मिलकर फ़िर सहितियक प्रश्न निवेदित करूँगा '' । ( निराला की साहित्य साधना भाग 1 प्रष्ट -३२०-३२१) यह विवरण सन १९३५ का है । यहाँ यह प्रश्न जरूरी है की जो लोग आज सत्ता के नजदीक हैं , वे लोग आज के हिन्दी साहित्य ओर हिन्दी भाषा के सामने मौजूद चुनौतिओं का जिक्र नहीं करते । हिन्दी के सामने लिपि की नई समस्या उत्पन्न की गई है । आज की पीढी हिन्दी को रोमन में लिख रही है । सोचिये तो जरा अगर यही हालत रही तो आगामी दिनों में देवनागरी लिपि का क्या होगा । इस पर विचार करने की जरूरत है ।इससे भी अधिक शर्म नाक यह है की इस पर चिंतन करनेवालों को पुरातनपंथी घोषित किया जाता है । इंदौर के श्री प्रभु जोशी ने इस विषय पर सबसे पहले लोगों का ध्यान खींचा उनहोंने न केवल लिखा वल्कि एक राष्ट्रीय बहस भी पैदा की । इस विषय पर गहरे चिंतन की जरूरत है । यह हमारी अस्मिता का प्रशन है ।