सोमवार, 14 जून 2010

आस्था का दीपक

इधर सूरज डूबने को होता उधर बूढी माँ अपने अँधेरे में डूबे कमरे में उजाला भरने की कोशिश  में लग जाती . दीप ढूढती ,तेल का प्रवंध करती और अपने कांपते हाथो से उसे वालती . दीपक कमरे के एक कोने में रखती और फिर थोड़ी देर आँखें बंद कर अपने अंदर ही कुछ ढूढती . आस्था का यह दीप किस अँधेरे का हरन करता . उस अंधरे का जो कमरे में  फैला  हुआ है या फिर उसका जो जीवन में व्याप्त है . सूरज के प्रखर प्रकाश में भी केवल आस्था का दीप ही है जो अंदर के अँधेरे   से लड़ता है .२१वी सदी का आदमी जो जीता है विजली की चाकाचौंध में परआस्था हजारों बल्वों के जलने से पूरी नहीं होती जो एक मिट्टी का दिया करता है . आज के आदमी की भी यह बेवशी है की उसके जीवन में बाहर खूब उजाला है अंदर घनी अंधरी अमावस रात . यह अंधेरी अमावास कैसे पूनम  में तब्दील हो यही विचारणीय है . काश कोई बूढी माँ हमारे मनो  में बैठे अँधेरे को दूर करने के लिए अपने कांपते हांथो से आस्था का एक  दीप जला कर रख दे . [ यह एक लघु कहानी है ]  राकेश शर्मा

7 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

नमस्ते,

आपका बलोग पढकर अच्चा लगा । आपके चिट्ठों को इंडलि में शामिल करने से अन्य कयी चिट्ठाकारों के सम्पर्क में आने की सम्भावना ज़्यादा हैं । एक बार इंडलि देखने से आपको भी यकीन हो जायेगा ।

दिलीप ने कहा…

jab usi maa ko upekshit karenge to yahi haalaat paida honge....

nilesh mathur ने कहा…

बहुत सुन्दर और संवेदनशील!

Udan Tashtari ने कहा…

प्रभावी रचना!

Jawahar choudhary ने कहा…

बहुत सारवान रचना है ।
बधाई ।
क्रम बनाए रखें ।

Namal ने कहा…

Sir
It is really nice of you to share these interesting and valuable contributions in your blog.Keep writing and enjoy your life.

aarkay ने कहा…

सारगर्भित , सीखने के लिए बहुत कुछ है इस लघु कथा में !