[अभी गोवा से लौटा हूँ ,आप जानते हैं की गोवा सुंदर जगह है वहां एक समुद्र है जिसके तट गोवा को छूते हैं ,एक और समुद्र है मदिरा ,का जिसमें गोवा डूबा रहता है. खैर , आप को जब समय मिले वहां घूमने जरूर जाएँ . गोवा के सुन्दर बाघा बीच पर समुद्र को देख कर कविता के जो विचार आये उन्हें यहाँ दे रहा हूँ ]
हे समुद्र
तुम्हें इस तरह इठलाता देख
सोचता हूँ
हर शोषक इठलाता है तुम्हारी तरह .
नदी के अस्तित्व का शोषण कर
तुम करते हो गर्जना
तुमसे मिलने वाली हर नदी
स्त्रीयत्व की विकलता से प्रेरित हो
आती है तुम्हारे आगोश में
अपना सर्वश्व अर्पित कर तुम्हें
फिर नहीं लौटी है दुबारा
जैसे पुरुष के भुजपाश में आबद्ध स्त्री
नहीं लौट पाती दुवारा नदी की भांति
निर्भ्रान्त और कल -कल करते हुए
शायद इसीलिए तुम कहलाते हो नदीपति
और पुरुष , पति परमेश्वर
माना तुम्हीं देते हो नदी को जल कण
उसकी सुंदर देह और मोहक रूप को
न जाने कहाँ छिपा लेते हो तुम
तुम्हारी ये उल्ल्हाश तरंगें
आगोश में समाई नदियों की
असफल और अनवरत छ्टपटाहटें हैं
तुम्हारी भीषण गर्जना के पीछे छिपा है
नदी का आर्तनाद और चीत्कार
ठीक उसी तरह जैसे
सती होने के लिए मजबूर की गयी
स्त्री की दाहक पीड़ा को छिपाने के लिए
किया जाता था भीषण शंखनाद और
घंटा -घड़ियालों का शोर
मत भूलो तुम्हारे अस्तित्व की रक्षा करती है नदी
और पुरुष का जीवन श्रोत होती है स्त्री
--------- राकेश शर्मा
रविवार, 27 जून 2010
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5 टिप्पणियां:
सती होने के लिए मजबूर की गयी
स्त्री की दाहक पीड़ा को छिपाने के लिए
किया जाता था भीषण शंखनाद और
घंटा -घड़ियालों का शोर
मत भूलो तुम्हारे अस्तित्व की रक्षा करती है नदी
और पुरुष का जीवन श्रोत होती है स्त्री
वाह बहुत सुन्दर लिखा है। बधाई।
गज़ब गज़ब गज़ब की सोच है…………………।बेहद सुन्दर भाव ……………कल के चर्चा मंच पर आपकी पोस्ट होगी।
nice
समुद्र को अलग ढंग से देख़ती है कविता
प्रकृति संग आज के मानस की तुलना! अतुलनीय अति सुन्दर मर्मस्पर्शी। ………आभार!
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