मंगलवार, 10 अगस्त 2010
कविता हमारे परिपूर्ण क्षणों की वाणी है
आज कल कुछ आलोचक यह कहने लगे हैं कि पंत का साहित्य कूड़ा करकट है। अब इस साहित्य को पढ़ने-पढ़ाने की जरूरत नहीं है। पंत का साहित्य प्रासंगिक नहीं रहा। रचनाकार प्रासंगिक है या नहीं, इसका निष्चय करना आलोचक का काम नहीं है। रचनाकार की प्रासंगकिता तय करने का अधिकार उसके पाठकों को होता है। कोई भी आलोचक चाहे कितना ही बड़ा हो लेकिन वह किसी रचनाकार से बड़ा नहीं हो सकता। बड़ा नहीं हो सकता के मायने तब, जब कि वह किसी रचनाकार की रचना प्रक्रिया पर बात कर रहा हो। आलोचक पर यह बात तब लागू नहीं होती जब वह स्वयं सृजन कर रहा हो और साहित्यिक प्रतिमानों की स्थापना कर रहा हो जैसे आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और डाॅ. रामविलास शर्मा ने किए हैं। जिस समय तुलसीदास ने रामचरित मानस लिखा, तो उस समय यह कहा गया था कि यह पुस्तक प्रासंगिक नहीं और लोगों ने रामचरित मानस की होली जलाई थी। तब से निरंतर आलोचक नुमा तथा कठगुल्ले तरह के असाहित्यिक समझ के लोग निरंतर कहते रहे और अभी भी कहते ही रहते हैं कि तुलसीदास का साहित्य प्रासंगिक नहीं है। वास्तविकता यह कि तुलसीदास किसी आलोचक की कृपा के बिना अपने-अपने प्रिय पाठकों के सहारे आज भी प्रासंगिक हंै और जब तक पाठकों को उनके काव्य में जीवन का अर्थ तथा साहित्यिक मर्म मिलेगा तब तक वे प्रासंगिक बने रहेंगे। कोई भी रचनाकार आलोचकीय कृपा के बिना अपनी रचनाओं की सार्थकता के सहारे अनन्त काल तक प्रासंगिक बना रह सकता है।
पंत ने तुलसीदास के समान कुछ नहीं कहा। पंत ही क्यों कोई कवि न कह सका। हिन्दी में ही नहीं विष्व साहित्य में न कह सका। यह जरूरी भी नहीं कोई किसी महान कवि के समान लिखे ही। किसी महान कवि के समान न लिखने के बावजूद भी अन्य कवि महान हो सकते हैं। पंत अपने काव्य के साथ महान हैं। इस पर संदेह करने की जरूरत नहीं है। पंत की साहित्य यात्रा उपन्यास लेखन से शुरू हुई और बाद में वे कविता में आए। सच यही है कि कविता ही पंत के प्राण थे। कविता के विषय में जितनी मर्मस्पर्षी परिभाषा पंत करते हंै उतनी मार्मिैक परिभाषा अन्यत्र पढ़ने को नहीं मिलती। वे लिखते हंै:-’’ कविता हमारे परिपूर्ण क्षणों की वाणी है। हमारे जीवन का पूर्ण रूप, हमारे अन्तरतम प्रदेष का सूक्ष्माकाष ही संगीतमय है, अपने उत्क्ृष्ट क्षणों में हमारा जीवन छन्दमय ही बहने लगता है, उसमें एक प्रकार की परिपूर्णता, स्वरैक्य तथा संयम आ जाता है। प्रकृति के प्रत्येक, रात्रि-दिवस की आॅख मिचैनी, षणऋतु परिवर्तन, सूर्य-षषि का जागरण शयन, ग्रह-उपग्रहों का अश्रान्त नर्तन-सृजन, स्थिति, संहार, सब एक अनन्त छन्द, एक अखण्ड संगीत ही में होता है।
पंत रचनावली भाग-1 पृष्ठ 163
पंत के लिए कविता प्राणों का संगीत है। कविता की लयात्मकता के प्रति पंत बहुत सचेष्ट हैं। वे लिखते हंै -’’कविता तथा छन्द के बीच बड़ा घनिष्ट सम्बन्ध है, कविता हमारे प्राणों का संगीत है, छन्द हृतकम्पन, कविता का स्वभाव ही छन्द में लयमान होना है। जिस प्रकार नदी के तट अपने बन्धन से धारा की गति को सुरक्षित रखते,- जिनके बिना वह अपनी ही बन्धनहीनता में अपना प्रवाह खो बैठती है, उसी प्रकार छन्द भी अपने नियंत्रण से राग को स्पन्दन, कम्पन तथा वेग प्रदान कर, निर्जीव शब्दों के रोड़ों में एक कोमल, सजल अलख भर, उन्हें सजीव बना देते हैं। वाणी की अनियमित सांसे नियंत्रित हो जातीं, तालयुक्त हो जातीं, उसके स्वर में प्राणायाम, रोओं में स्फूर्ति बंध जाती, उनके परिपूर्णता आ जाती है। छन्द बध्द शब्द, चुम्बक के पाष्र्ववर्ती लोहचूर्ण की तरह अपने चारों ओर एक आकर्षण क्षेत्र (मैग्ने फील्ड) तैयार करक लेते, उनमें एक प्रकार का सामंजस्य, एक रूप, एक विन्यास आ जाता, उनमें राग की विद्युत धारा बनने लगती, उनके स्पर्ष में एक प्रभाव तथा शक्ति पैदा हो जाती है।’’
पंत रचनावली भाग-1 पृष्ठ162-163
पंत की भाषा और व्याकरण प्रयोग के विषय में काफी चर्चा होती है। पंत कविता में सुकुमार कवि के रूप में प्रसिध्द हंै। यह सुकुमारता उन्हें उनके जन्म स्थान कौसानी से प्राप्त हुई है। प्रकृति के सुदर स्वरूप उनके अवचेतन में पड़े हुए हंै, जो समय-समय पर कविता में प्रकट होते हंै।पंत की भाषा पर टिप्पणी करते हुए डाॅ. नगेन्द्र ने लिखा है -’’उनकी भाषा चित्रभाषा है, उनके शब्द भी चित्रमय और सस्वर हंै- देव की तरह उनकी रस-मधुरिमा भीतर न समा सकने के कारण बाहर छलकी पड़ती है। संगीत की दृष्टि से वह लोल लहरों का चंचल कलरव बाल झंकारांे का छेकानुप्रास है। उसके प्रत्येक शब्द का स्वतन्त्र हृतकम्पन, स्वतन्त्र अंग-भंगी, स्वाभाविक सांसे हंै। उसका संगीत स्वरों की रिमझिम में बरसता छनता-छलकता, बुदबुदों में उबलता, छोटे-छोटे उत्सों के कलरव में उछलता-किलकता हुआ बहता है। उसके शब्द एक-दूसरे के गले पड़कर, पगों से पग मिलाकर सेनाकार भी चलते हंै और बच्चों की तरह अपनी ही स्वच्छन्दता में थिरकते-कूदते भी हैं।
सुमित्रानन्दन पन्त पृष्ठ 66
पंत स्वयं भी अपनी कविता और कविता की भाषा के विषय में लिखते हैं -’’कविता के लिए चित्र भाषा की आवष्यकता पड़ती है, उसके शब्द, सस्वर होने चाहिए, जो बोलते हों, सेब की तरह जिनके रस की मधुर लालिमा भीतर न समा सकने के कारण बाहर झलक पड़े, जो अपने भावों को अपनी ही ध्वनि में आॅखों के सामने चित्रित कर सके, जो झंकार में चित्र, चित्र में झनकार हो, जिनका भाव संगीत विद्युत धारा की तरह रोम-रोम में प्रवाहित हो सके, जिनका सौरभ सूंघते ही सांसों द्वारा अन्दर पैठकर हृदयाकाष में समा जाए, जिसका रस मदिरा की फेन राषि की तरह अपने प्याले से बाहर छलक कर उसके चारों और मोतियों की झालर की तरह झूमने लगे, छत्ते में न समाकर मधु की तरह टपकने लगे, अर्धनिषीथ की तरावली की तरह जिनकी दीपावली अपनी मौन जड़ता के अन्धकार को भेद कर अपने ही भावों की ज्योति में दमक उठे, जिसका प्रत्येक चरण प्रियंगु की डाल की तरह अपने ही सौन्दर्य के हृदय से रोमांचित रहे, जापान की द्वीप मालिका की तरह जिनकी छोटी-छोटी पंक्तियां अपने अन्तस्तल में सुलगे ज्वालामुखी को दबा न सकने के कारण अनन्त ष्वासोच्छवास के भूकम्प में कांपती रहे।
पंत रचनावली भाग-1 पृष्ठ160
पंत ने जहां एक ओर कविता की लयात्मकता और छन्दबध्दता का पूरा ध्यान रखा है, वहीं कविता के लिए व्याकरण के नियम षिथिल करने पर जोर भी दिया है। पंत पर लिखित अपनी पुस्तक में डाॅ. नागेन्द्र कहते हंै -’’पन्तजी के शब्द जिस प्रकार एक ओर व्याकरण के कठिन नियमों से बध्द रहते हैं, उसी प्रकार दूसरी ओर राग के आकाष में पक्षियों की तरह स्वतन्त्र भी होते हैं, साथ ही अपने कलापूर्ण स्वभाव-वैषम्य के अनुसार वे स्थान-स्थान पर व्याकरण की कड़ियां तोड़ भी देते हैं। वे कहते हैं कि जो शब्द केवल अकारान्त या इकारान्त के अनुसार पुल्लिंग अथवा स्त्रीलिंग हो गये हैं और जिनमें लिंग का अर्थ के साथ सामंजस्य नहीं मिलता उन शब्दों का ठीक-ठीक चित्र ही आॅखों के सामने नहीं उतरता और कविता मंे उनका प्रयोग करते समय कल्पना कुण्ठित सी हो जाती है। इसीलिए प्रभात तथा उसके अन्य पर्यायों का जहां एक और स्त्रीलिंग में प्रयोग है, वहीं बूंद, कम्पन आदि का परिमाण के अनुकूल उभय लिंगों में। इसी प्रवृत्ति के अनुसार - अर्थात् शब्द और अर्थ में सामंजस्य स्थापित करने के लिए आपने संस्कृत के सन्धि-नियमों का भी उल्लंघन कर दिया है-जैसे ’मरूताकाष’ में। साथ ही अनेक स्थलों पर कर्ता के अनुसार क्रिया का लिंग निष्चय किया है। उदाहरणार्थ ’बालिका मेरी मनोरम मित्र थी।’ इस प्रकार शब्दों में प्रयुक्त कठोर व्यंजनों को विषेषकर ’ण’ कपो भाव के अनुसार सर्वत्र ही कोमल कर दिया है। पन्तजी के इस स्वभाव-वैषम्य पर रूढ़ियों के उपासक कुछ भी कह लें परन्तु उनकी कलात्मक आवष्यकता पर सन्देह करना सरल नहीं।’’
सुमित्रानन्दन पन्त पृष्ठ 69
पंतजी व्याकरण के नियमों के विरूध्द नहीं है, लेकिन कविता की सरसता बनाए रखना उन्हें व्याकरण के नियम तोड़ने के लिए प्रेरित करती है। ऐसा कार्य वही कवि कर सकता है, जो पूर्णरूपेण कविता के संसार में रमा हो और जिसके लिए कविता ही सर्वश्रेष्ठ वस्तु हो। वे लिखते हंै-’’जिस प्रकार शब्द एक ओर व्याकरण के कठिन नियमों से बध्द होते, उसी प्रकार दूसरी ओर राग के आकाष में पक्षियों की तरह स्वतंत्र भी होते हैं। जहां राग की उन्मुक्त स्नेहषीलता तथा व्याकरण की नियमवष्यता में सामंजस्य रहता है, वहां कोमल मां और कठोर पिता के घर में लालित-पालित सन्तान की तरह, शब्दों का भरण-पोषण अंग, विन्यास तथा मनोविकास स्वाभाविक और यथेष्ट रीति से होता है।’’
सुमित्रानन्दन पन्त रचनावली भाग-1 पृष्ठ 159
छायावादी कवियों में प्रसाद, पंत, निराला और महादेवी वर्मा स्तंभ माने जाते हैं। ये चारों अपनी तरह से महान है, यद्यपि रहस्यवाद इन चारो कवियों की विषेषता रही है। लेकिन पंत अपनी काव्य यात्रा में जितने परिवर्तित होते हुए दिखाई पड़ते है, वह अद््भुत ही है। डाॅ. नगेन्द्र लिखते हंै -’’ प्रसाद का क्षेत्र हृदय प्रेम, निराला का दार्षनिक भाव जगत और पंतजी का प्रकृति और मानव का संपर्क तथा कला क्षेत्र का प्रभुत्व हुआ। उन्होंने हिन्दी कविता धारा को एक रूढ़ि से हटाकर एक नवीन दिषा की ओर प्रवाहित किया। उन्होंने ही वास्तविक गीत काव्य की कला का विकास विवर्धन किया है। सुमित्रानन्दन पन्त पृष्ठ 130
अंत में पंतजी प्रकृति के मोहजाल से मुक्त होकर प्रयोगवादी कविता की ओर उन्मुख हुए थे, जो उनकी परिवर्तनषीलता और युग की मांग के अनुरूप सृजनषीलता को स्पष्ट करता है।
पंत का साहित्य पाठक को एक ऐसे लोक में ले जाता है, जहां सुकोमल उपमाओं और भाषा के सुकोमल स्वरूप में वह खो जाता है। यह कहना ठीक नहीं है कि आज के समस्याओं भरे समय में पंत प्रासंगिक नहीं हैं, कोई भी रचनाकार अपने समय की आवष्यकताओं और समस्याओं से प्रभावित होकर रचना करता है। समस्याएं और आवष्यकताएं युग अनुरूप बदलती रहती हैं। यदि इस आधार पर आकलन किया जाये, तो कोई भी रचना बहुत समय तक प्रासंगिक न बचेगी। प्रासंगिकता का अभिप्राय केवल जीवन की जटिलताओं का सामना करने वाली रचना हो यह आवष्यक नहीं । वास्तविकता यह है कि कविता एक औजार नहीं है, बल्कि वह एक माध्यम है जो मनुष्य के अंदर के संसार का परिवर्तन करती है, उसे संस्कारित करती है, उसे संबल देती है तथा एक अच्छे आदमी के निर्माण में सहायता करती है। साहित्य यही काम सदियों से करता रहा है और आगे भी करता रहेगा। कविता में प्रकृति का मानवीकरण मानवीय संवेदनाओं एकाकार करने के उद्देष्य से हुआ है और पंत प्रकृति के कवि हंै। उनके काव्य में प्रकृति विविध रूपों में मौजूद है। प्रकृति परिवर्तनषील होते हुए भी अपरिवर्तनषील है, उसके नियम निष्चित हैं। इन नियमों कोई परिवर्तन उसे मंजूर नहीं। और इस प्रकार वह हर काल के मनुष्य के लिए संदेष भी देती है, दण्ड भी देती है तथा पालन - पोषण भी करती है। प्रकृति के इन्हीं रूपों के साथ पंत की कविता आज भी प्रासंगिक है और भविष्य में भी रहेगी। प्रस्तुति ------
राकेश शर्मा
मानस निलयम
एम-2, वीणानगर,
इन्दौर- 452 010
94253-21223
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1 टिप्पणी:
bahut khoob... acha laga aapke blog par aakar,.
Meri Nayi Kavita par aapke Comments ka intzar rahega.....
A Silent Silence : Naani ki sunaai wo kahani..
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