मंगलवार, 3 अगस्त 2010

आदमी का दंभ

द्वेषवश उन्होंने न भेजा निमंत्रण
 अभिमान वश न ही गया मैं
 उत्सव के अवसर पर
 रिश्तों की भीड़ में
 अपने द्वेष की चिता पर
 जलता रहा वह
 और अपने ही अभिमान की लाश पर
 रोता रहा मैं
 न भेज कर आमन्त्रण
 उन्होंने हरपल
 मसूस किया मुझको
 न जाकर भी
 हर पल मौजूद था
 मैं भी वहीं

3 टिप्‍पणियां:

nilesh mathur ने कहा…

बहुत सुन्दर, बेहद प्रभावशाली, बेहतरीन !

मुकेश कुमार तिवारी ने कहा…

राकेश जी,

दंभ और ईर्ष्या के वशीभूत जब ऐसी ही किसी घटना से गुजरते हैं तो एक एक शब्द प्रस्तुत कविता का बिंध जाता है।

बहुत सुन्दर अभिव्यक्ती,

सादर,

मुकेश कुमार तिवारी

aarkay ने कहा…

हमसे आया न गया , तुमसे बुलाया न गया ..........
या फिर

ज़िक्र मेरा मुझ से बेहतर है तेरी महफ़िल में तो है !