आदमी, जब आदिम अवस्था में था। तब इतनी हत्याएं और आत्म लेकिन इक्कीसवीं सदी के इस कथाकथित सभ्य समाज में हत्याओं और आत्महत्याओं के बढ़ते ग्राफ पर लिखते हुए बहुत पीड़ा होती है। साहित्यकारों का जीवन अभिशप्त होता है जो वह पर पीड़ाओं के साथ गुजरता है। महर्षि वाल्मीकि से लेकर आज तक सृजन कर्म में लगे लोग हत्याओं का विरोध ही करते आ रहे है और भविष्य में भी करेंगे। क्रौंच पक्षी के वध पर पहली कविता जन्मी थी। इस तरह अभी हाल ही में एक गर्भवती हथिनी के मुंह में बारुद डालकर मार डाला गया। इस घटना पर वाल्मीकि के वंशजों को रोना आया ही होगा। करुणापूरित मन भला क्यों दयाद्रवित न हुआ/होगा। अगर ऐसा न हुआ हो तो अपने अंतस में झांकें कि क्या हम वास्तव में संवेदनशील मनुष्य है ?
साहित्य जन्मा ही है हिंसा के विरोध में अतः उसके डीएनए में करुणा है। वह हिंसा, आतंक और रक्त क्रान्ति का पक्षधर नहीं है। हाँ, वह क्रान्ति करता है। इधर तथाकथित साहित्यकार उसके स्वभाव के विपरीत रक्त क्रान्ति का काम उससे लेना चाहते है। जो उसने न तो कभी किया है और न कभी करेगा। रचनाकर्म और करुणा की सात्विकता पर कवि नागार्जुन ने कहा- ‘‘कालिदास सच सच बतलाना इंदुमति के अज विलाप में अज रोए या तुम रोए थे।’’ सच यही है कि कारुणिक घटना घटे कही भी रोता केवल सर्जक का मन है।
पशु, पक्षियों, वृ़़क्षों और प्रकृति के अन्य उपादानों के बिना मानव सभ्यता का इतिहास अधूरा है। यह केवल भारत के संदर्भ में नहीं बल्कि लगभग सभी संस्कृतियों मंे, प्रकृति के साथ आत्मीय संबंध दर्शाये गये है। भारत जैसे कृषि आधारित समाज में पशुओं के साथ हथिनी के साथ की गयी हिंसा समझ से परे है।
यहाँ पशुओं को देवता के साथ पूजा जाता है। हाथी तो श्रीगणेश जी का स्वरूप ही माना गया। इनका एक अर्थ यह भी है कि जीवन की यात्रा अकेले की नहीं बल्कि सामूहिक है।
पशु, पक्षियों के प्रति मनुष्य की क्रूरता की चिंता अपनी जगह है। यहाँ तो अब आदमी आत्महत्याओं पर उतरा है। आत्महत्याओं का आंकड़ा दिन-प्रतिदिन बढ़ रहा है। ऐसे में हमें यह सोचना चाहिए कि आखिर, हम किस तरह के मानवीय समाज की रचना कर रहे है ? हमने क्लर्क, अफसर, वैज्ञानिक, डाॅक्टर, अध्यापक, प्रोफेसर, नेता और तरह-तरह की अनेक श्रेणियाँ तो तैयार कर ली, मगर एक संवेदनशील मनुष्य बनाने में चूक गये। असल में इस दुनिया को करुणापूरित मन वाले कुछ मनुष्यांे की जरुरत है, जिनके सानिध्य में मानवीय समाज करुणा का भाव जगा सके। वैसे तो हर कालखंड में महापुरूष अवतरित होते रहते है जिन्होंने मनुष्य के अभ्यंतर को बदलकर उसे बेहतर से और बेहतर मनुष्य बनाने की कोशिश की है और रचनाकारों ने इन महापुरूषों के चरित्र को अनेक कोणों से गाया है, ताकि आने वाली पीढ़ियाँ इनसे प्रेरणा लेती रहे।
कहने के लिए हमारी शिक्षा प्रणाली आधुनिक आवश्यकताओं के अनुसार ढाल दी गई है। हम यह भूल गये है कि इस शिक्षा व्यवस्था में आदमी को संवेदनशील आदमी बनाने के टूल्स नहीं हैं। आखिर शिक्षा के साहित्य की जगह इतनी कम क्यों है ? नैतिक शिक्षा पाठ्यक्रम से बाहर क्यों की गयी ? केवल रोटी की जुगाड़ करने वाली शिक्षा मनुष्य का निर्माण नहीं करती। रोटी खाने की तहजीब भी तो सिखायी जानी चाहिए। स्वयं के अतिरिक्त कायनात के प्रति चिंतन का भाव जगाने वाली शिक्षा चाहिये। रोटी का प्रबंधन जरुरी है, मगर अनियंत्रित भूख पैदा न हो, ऐसा भी कुछ प्रबंध हो। अतृप्त, वासना न तो स्वयं का कल्याण करती है और न ही समष्टिका। इधर कुछ अप्रत्याशित खबरें है कि ऐसे लोग जिनके पास रोटियाँ है, सुखद निवास है, सामाजिक प्रतिष्ठा है, यश है, इन सबके होने के बाद भी वे अंदर से खाली हैं और इतने खाली है कि आत्महत्या जैसा जघन्य कृत्य कर रहे हैं। अब नीति निर्धारकों को कौन समझाये कि मानव जीवन में आने वाले उतार-चढ़ावों को सहन करने की शक्ति देने वाली शिक्षा क्यों नहीं दी गई ? आंकड़े बताते है कि अधिकांश आत्महत्याएँ निजी कारणों से की गई है। कृषकों की आत्महत्याओं के लिए वे दोषी नहीं है व्यवस्थाएँ दोषी हैं। असल में ऊपर-ऊपर से चमकदार दिखने वाले ये छलिया, अभिनेता टाइप के लोग हमारी नई पीढ़ी के प्रेरणास्रोत है। ये भीतर से बहुत बैचेन और बेचारे निकाले।
साहित्य आदमी को भीतर से मजबूत बनाता है बाहरी दुनिया को बदलने में साहित्य की कोई रूचि नहीं। गुरु की महिमा के संदर्भ में कबीर ने कहा था - ‘‘अंतर हाथ सहाय दे/बाहर बाहे चोट’’ जीवन में साहित्य की भी यही भूमिका है। देर जरुर हुई है मगर बहुत देर नहीं। अभी भी समय है कि हम अपनी पीढ़ियों की ऐसे परवरिश करें कि वे केल साक्षर ही न बने बल्कि शिक्षित भी होें।