विगत दिनों डॉ सूर्य प्रसाद दीक्षित के प्रवास पर थे । साहित्य परिषद् के तत्वाधान में दिनक २० अप्रैल २०१० को उनका एक व्याख्यान हुआ था .इसके कुछ अंश यहाँ दिए जा रहे हैं । पाटकों को श्री सूर्य प्रसाद जी का परिचय देना में जरूरी समझ रहा हूँ ----- श्री दीक्षित के अब तक १०० से अधिक ग्रथ प्रकाशित हैं । १०० से अधिक छात्रों ने उन पर पी एच ड़ी कीउपाधी अर्जित की है । देश विदेश में अब तक उनके ३०००से अधिक विख्यान आयोजित हुए हैं । प्रयोजन मूलक हिंदी को विश्व विद्यालाओं में लागू करवाने के लिए उन्होंने सबसे पह्के प्रयास किये हैं। इसी का यह परिणाम हुआ की आज दश के ७० से ८० विश्व विद्यालयों में प्रयोजन मूलक हिंदी पढाईजा रही है । इंदौर के व्याख्यान में श्री दीक्षित ने हिंदी और इसके साहित्य के मौजूदा स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए कहा । आज पूरी दुनिया के लोगों का अंतर्मन बदला है । इसका सबसे बड़ा कारन अर्थ का बड़ता प्रभाव है आदमी से आदमी की दूरी निरंतर बड़ रही । जीवन से प्रेम और करुना के भाव निरंतर कम हो रहे हैं । आदमी की जीवन प्रवृतियों कीछाया साहित्य पर आती है । निरंतर बदलते परिद्रश्य ने भाषओंऔर सहित्य के सामने अनेक संकट खड़े किये हैं । मनुष्य की विलासी आदतों ने न केवल मानवीय संबंधों को खत्रू में डाला है बलिक प्रकृति का असितित्व भी संकट में है । ग्लोव्लिजेशन के चलते सबसे बड़ी चुनौती हमारी जातीय पहचान के लिए पैदा हो रही है । चिंताएं की जा रहीं की वैश्विक ग्राम में हमारी भाषाएँ और साहित्य बचे गे भी या नहीं । खतरा तो है पर इसके लिए जरूरी चिंतन की आवश्यकता है चिंता की नहीं । हमें अपने जीवन मूल्यों पर विश्वास करना चाहिए । भारत्या जीवन मूल्य कविता में सबसे अधिक संरक्षत हुए हैं । गीता , रामायण आदि सभी ग्रन्थ अपने दार्शनिक भाव और छंद की लयता के कारण ही आम जनता को आज तक याद हैं । सोचना होगा की आज कविओं की संख्या तो बड़ी हुई है लेकेन जनता इनका नोटिस नहीं ले रही है । आज के नीरस हो रहे आदमी के जीवन में सरसता लानें के लिए कविता को चंद में लिखनें की बहुत जरूरत इसका मतलब यह नहीं है की वर्तमान समय की वास्तविकताओं की अनदेखी की जाए । यूँ तो पूरी दुनिया का आदमी साहित्य के सरोंकारों से दूर हुआ है । पर भारत एस दौड़ में सबसे आगे है । यह चिंता का सबसे बड़ा कारन है । आजादी मिलती ही देश में धन वान बनाने की भूख जाग उठी जो गुलामी के समय में दबी हुई थी । पहले चरण में यह दौड़ एक जरूरत थी पर अब यह एक हबस बन चुकी है । धन वान बनाने की इच्छा रखना कोई बुरी बात नहीं है । लेकेन धन के लिए अपना सबकुछ दांव पर लगा देने का अंधापन बुरा है। साहित्यकार की भूमिका यहीं से शुरू होती है वह इनका विरूद्ध करे । एस विरोध में उसे सत्ता से लड़ना भी होगा । आज का सच यह भी है की पुरुस्कारों की भूख के कारन लोग सच का सामना करनें से डरते हैं इसका परिणाम यह होता की जमानें का सच लेखे जाने से बच जाता है । आम आदमी की पक्ष धरता , गरीबों , मजदूरों महिलाओं के अधिकारों पर कविताई करने का दम्भ भरने वाले लोग आज जनता के सामने निरर्थक शिध्ध हुए हैं । आम जन की बात करने वाले लेखक बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का विरोध करने से बचते फिर रहे हैं । यह उचित समय है जब साहित्य को मूल धरा में लाने के लिए कोशिशें की जानी चाहिए । अभी सब कुछ समाप्त नहीं हो गया । हमें मंगल आशा नहीं छोडनी चाहिए ।और भारतीय मूल्यों पैर आस्था रखनी चाहिए । विश्वास रखिये की विश्व गाँव में भी आप की पहचान शेष रहने वाली है । एस अवसर पर श्री क्रष्ण कुमार आस्थाना , डॉ जवाहर चौधरी , चन्द्र सेन विराट वकास दावे गोपाल महेश्वरी टी ल शर्मा आदि उपस्थित थे । रिपोर्ट ------ राकेश शर्मा
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1 टिप्पणी:
दीक्षित जी के उस व्याख्यान में मैं भी उपस्थित था ।
उन्होंने भाषण की दृष्टि से तो बहुत अच्छी बातें कहीं हैं किन्तु
हमारी दिक्कत यह है कि परिवार में संस्कार देते समय हम हिन्दी और हिन्दी साहित्य दोनों को बिसरा देते हैं । आज हिन्दी का जितना नुकसान तथाकथित ‘हिन्दी वालों’ ने किया है उतना दूसरों ने नहीं । हमारा चरित्र ऐसा है कि हम टब स्नान करते हुए दूसरों को पानी बचाने का उपदेश देते हैं ।
अंग्रेजी से डरे ये हिन्दी वाले समाज को ज्यादा दिनों तक भ्रम में नहीं रख सकेंगे ।
प्रबुद्धजन आज हिन्दी को अधिक हानि पहुंचा रहे हैं । वे ऐसे समाज की रचना की इच्छा रखते हैं जिसमें हिन्दीभाषी प्रजा रहे और वे अंग्रेजी भाषी हो कर राजा बन जां !! लेकिन लोग समझ रहे हैं इसीलिये हिन्दी बचाओ का शोर प्रायः अंग्रेजी समर्थक किया करते हैं ।
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