शनिवार, 17 अप्रैल 2010

हिंदी और महात्मागांधी

भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में गांधीजी का पदार्पण 1915 में हुआ। इससे पूर्व राष्ट् गुलामी की जंजीरों को तोड़ने के प्रयास कर चुका था। सन् 1857 की महान क्रांति के असफल हो जाने के बाद स्वतंत्रता संघर्ष अन्तर्मुखी हो चुका था। जनता अंग्रेजी राज्य से छुटकारा चाहती थी। जनता की भावनाओं की छाया साहित्य में प्रतिध्वनित हो रही थी। भारतीय समाज अनेक तरह के अनुभवों और संत्रसों से गुजर रहा था। सामाज का आन्तरिक संघर्ष और अधिक संगठित और पैना हो रहा था। इस संघर्ष को व्यक्त करने के लिए हिन्दी भी नए स्वरूप में ढल रही थी। सन् 1918 तक हिन्दी साहित्य में भारतेन्दु बाबू हरिशचन्द का युग समाप्त हो चुका था और आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी सरस्वती पत्रिका के द्वारा हिन्दी भाषा के नवनिर्माण में पूरी तरह लगे हुए थे। मध्य भारत में हिन्दी के व्यापक प्रचार को पूरा करने के लिए होलकर नरेश के मार्गदर्शन में सर सेठ हुकुमचन्द जैसे धनवान महापुरूषों ने इन्दौर में श्री मध्यभारत हिन्दी साहित्य समिति का संचालन शुरू कर दिया था। सन् 1918 में इसी समिति के तत्वावधान में साहित्य सम्मेलन प्रयाग का 8 वां अखिल भारतीय अधिवेशन आयोजित हुआ। अधिवेशन की अध्यक्षता करने के लिए पहली बार इन्दौर आए। इन्दौर रेल्वे स्टेशन पर उनके स्वागत के लिए सर सेठ हुकुमचन्द सरजूप्रसाद तिवारी जैसे महानुभाव उपस्थित हुए। इन्दौर रेल्वे स्टेशन पर आज भी वह स्थान सुरक्षित है जहाओं रेलगाड़ी गांधी से उतरकर खडे़ हुए थे। इन्दौर में सभा की अध्यक्षता करते हुए उन्होंने कहा- भाषा का मूल करोड़ों मनुष्य रूपी हिमालय से मिलेगा और उसमें ही रहेगा। हिमालय से निकलती हुई गंगाजी अनन्तकाल तक बहती रहेंगी ऐसे ही हिन्दी का गौरव रहेगा। गाॅंधी का मनतव्य था कि राष्ट्र संचालन के लिए वही भाषा श्रेष्ठ है जो आम जनता की भाषा हो और यह शक्ति हिन्दी में है। सन् 1918 में गाॅंधीजी का भाषा चिन्तन उस स्तर पर पहुॅंच चुका था कि भारतवासियों के लिए हिन्दी और उनकी प्रान्तीय भाषाएं बहुत जरूरी हंै। भाषा और स्वराज्य गाॅंधीजी के लिए दो अलग-अलग बातें नहीं थीं। इन्दौर की इसी सभा में उन्होंने कहा- ’’ मेरा नम्र लेकिन दृढ़ अभिप्राय है कि जब तक हम भाषा को राष्ट्रीय और अपनी अपनी प्रान्तीय भाषाओं में उनका योग्य स्थान नहीं देंगे, तब तक स्वराज्य की सब बातें निर्थक हैं।’’ यह बात गाॅंधीजी ने सन् 1918 में कही थी यानी आज से 90 वर्ष पूर्व लेकिन भाषा से जुड़ा यह प्रश्न आज भी पूरे उत्तर की मांग कर रहा है। आज भी हिन्दी समेत प्रान्तीय भाषाएं अपना स्थान मांग रही हैं। गाॅंधाजी जानते थे कि केवल अंग्रेजी से राष्ट्र के आमजन को वाणी मिल सकेगी इसी सभा में उन्होंने कहा- अंग्रेजी का ज्ञान कितने भारतवासियों के लिए आवश्यक है। लेकिन इस भाषा को उसका उचित स्थान देना एक बात है, उसकी जड़ पूजा करना दूसरी बात।1918 में भाषाई परिदृष्य में गाॅंधीजी को अंगे्रजी के प्रति लोगों का समर्पण उसकी जड़ पूजा मालूम पड़ती थी। इसीलिए वे देश की आजादी को भाषाई आजादी के साथ जोड़कर देखते थे।जी हिन्दी के लिए अपने स्तर पर तो लड़ ही रहे थे साथ साथ वे देश के उन महान लोगों के साथ पत्र व्यवहार भी कर रहे थे कि हिन्दी को राष्ट्रीय आंदोलन के साथ जोड़कर उसे और अधिक व्यापक बनाकर राष्ट् भाषा के रूप में मान्यता दी जाए सन् 1918 में ही उन्होंने ठाकुर रवीन्द्र नाथ टैगोर को पत्र लिखा जिसमें उन्होंने हिन्दी को राष्ट्र भाषा के रूप में स्थापित करने के लिए प्रयासों का उल्लेख किया जिसका उत्तर देते हुए ठाकुर रवीन्द्र नाथ टैगोर ने लिखा -निःसंदेह अंतप्र्रांतीय व्यवहार केे लिए हिन्दी ही एक मात्र राष्ट्र भाषा हो सकती है सन् 1918 से लेकर 1935 के बीच के कालखण्ड में आजादी के आन्दोलन में अनेक उतार-चढ़ाव आए। इस दौर में देश के उद्योगपति भी भाषा के व्यापक प्रचार-प्रसार में लगे हुए थे। गाॅधीजी आन्दोलन का केन्द्र बने हुए थे। राष्ट्रीय आन्दोलन को चलाते हुए उन्होंने हिन्दी के महत्व को हमेशा ध्यान में रखा। सन् 1935 में हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग को 24 वां अखिल भारतीय अधिवेशन इन्दौर में आयोजित हुआ। इन्दौर के हिन्दी के पक्षधरों ने एक बार फिर से गाॅंधीजी को सम्मेलन की अध्यक्षता के लिए बुलाया। राष्ट्रीय आन्दोलन का संचालन करते हुए गाॅंधीजी हिन्दी के महत्व को पूरी तरह जान चुके थे। अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में उन्होंने कहा ’’हिन्दी भाषा को बहुत आदमी बोलते हैं और यह भाषा सीखने और पढ़ने में सरल है, इसलिए यह राष्ट्रभाषा होने का अधिकार रखती है।’’ कदाचित यह पहला मौका था जब हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने की मांग गाॅॅंधीजी ने रखी। हिन्दी राष्ट्रीय एकता का सूत्र बन रही थी। ध्यान देने बात यह थी कि 1935 में राष्ट्र को आजाद होने में अभी 12 वर्ष का समय शेष था लेकिन गाॅंधीजी आजाद राष्ट्र के लिए राष्ट्रभाषा का चयन कर चुके थे। यह उनकी दूर दृष्टि का परिणाम था तथा हिन्दी की शक्ति का परिचायक भी। हिन्दी उनके लिए राष्ट्रीय सम्मान और आत्म गौरव का विषय थी उन्होंने कहा-’’किसी के सामने झुकने की जरूरत नहीं है। वायसराय से बात करना हो, तब भी अपनी भाषा का व्यवहार करो। लोग कहते हैं वायसराय आदि अंग्रेजी के अतिरिक्त और कुछ नहीं समझते। इसलिए उसी का उपयोग करना आवश्यक हैं पर मैं कहता हूॅं कि यदि मैं बोलना जानता हूॅं और मेंरे बोलने में कोई ऐसी बात रहेगी जिससे वायसराय लाभ उठा सकें तो अवश्य ही वे मेरी बातें हिन्दी में बोलने पर भी सुन लेंगे। उन्हें आवश्यकता होगी तो उनका अनुवाद करा लेंगे।’’ (गाॅंधी, आम्बेडकर, लोहिया और भारतीय इतिहास की समस्याएं पृष्ठ-41इसी अध्यक्षीय भाषाण में उन्होंने एक और महत्वपूर्ण सुझाव दिया कि सभी भारतीय भाषाओं की एक समान लिपि हो। लिपि की समरूपता भाषाओं को एक-दूसरे के समीप लाऐगी। जिससे राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी को प्रचारित करने में सहायता मिलेगी। गाॅंधीजी ने सुझाव दिया- ’’ अपने प्रान्त में वह भाषा तो चले किन्तु हिन्दी का प्रचार विशेष हो, जिससे यह राष्ट्रभाषा बन सके। यू ंतो बंगला का

साहित्य भी बहुत है। परन्तु वह राष्ट्रभाषा नहीं बन सकती। राष्ट्रभाषा तो केवल हिन्दी ही बन सकती है।’’ गाॅंधीजी के द्वारा लिपि के संबंध में व्यक्त किए गए विचारों को बाद में आचार्य विनोबा भावे ने आगे बढ़ाने की पुरजोर वकालत की। इसी अधिवेशन में उन्होंने काका कालेलकर की अध्यक्षता में लिपि परिषद् गठित की गयी लिपि की सम रूपता की ओर संकेत करते हुए कहा- ’’ हिन्दी प्रचार के लिए लिपि का एक होना भी आवश्यक है, हिन्दी भाषा संस्कृत से पैदा हुई है, आसामी और बंगला भी इसी से बहुत संबंधित है। दक्षिण भारत की भाषा द्राविडी मापी जाती है। में तो यह मानता हूॅं कि वह संस्कृत से पैदा हुई है। तमील, तेलगु, कनाडी आदि भाषाएं संस्कृत से भरी हुई हैं। बंगला भी संस्कृत से परिपूर्ण है। जब उनको अपनी भाषा में कोई शब्द नहीं मिलता तो वे इससे शब्द लेती है और उनका क्रप्रयोग करती हैं। अतः सब भाषाओं के लिए समान लिपि का होना आवश्यक है। (सन् 1935 में इन्दौर में दिए गए भाषण सेसभाओं, आन्दोलनों, बैठक की कार्रवाईयों और समाचार पत्रों के आलेखों तथा संपादकियों और साक्षात्कारों एवं वार्तालापों के द्वारा गाॅंधीजी निरंतर हिन्दी की स्थापना की लड़ाई लड़ रहे थे। उन्होंने कहा- अंग्रेजी में व्याख्यान देने की आदत ने हिन्दुस्तान के राजनीतिज्ञों के मन मैं जो घर कर लिया है, उसे मैं अपने देश और मनुष्यत्व के प्रति अपराध मानता हूॅ, क्योंकि हम लोग अपने ही देश की उन्नति में रोड़ा अटकाने वाले बन गए हैं।’’(29/312 गांधी वांड़मय) गांधीजी यह बात भली भांती समझ गये थे कि राष्ट्रीय अस्मिता का बोध अपनी जातीय भाषाओं के द्वारा ही सम्भव है। उन्होंने आगे कहा-’’जिस राष्ट्र ने अपनी भाषा का अनादर किया उस राष्ट्र के लोग अपनी राष्ट्रीयता खो बैठते है। हममें से अधिकांश लोगों की यही हालत हो गयी हो गयी है। पृथ्वी पर हिन्दुस्तान ही एक ऐसा देश है जहाॅं माॅं, बाप अपने बच्चों को अपनी मातृभाषा के बदले अंग्रेजी सिखाना पसन्द करेंगे (गांधी वांड़मय पृष्ठ क्रमांक 15/गांधीजी हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने की बात कह रहे थे उस समय तक हिन्दी एक साहित्यिक भाषा के रूप में ही विकसित हुई थी। विज्ञान, तकनीक, पत्रकारिता और ऐसे ही अनेक रूपों में इसका ढलना अभिशेष था। गांधीजी यह बात भलीभांति जानते थे कि जब तक हिन्दी जीवन के सभी आयामों को लेकर ना चलेगी तब तक इसे राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठिापित करने में सफलता मिल सकेंगी इसीलिए उन्होंने कहाॅं- ’’केवल साहित्य की वृद्वि करे तो यह भाषा राष्ट्रभाषा कैसे बन सकती है? साहित्य की वृद्वि करना हमारा परम कर्तव्य है, किन्तु साहित्य की वृद्वि से यह भाषा राष्ट्रभाषा नहीं बन सकती। (सन् 1935 में इन्दौर में दिए गए भाषण सेगांधीजी हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाये जाने का प्रयास कर रहे थे और साथ ही हिन्दी के विद्ववानों को आगाह भी कर रहे थे कि एक भाषा को राष्ट्रभाषा के रूप में विकसित करने के लिए और क्या किया जाना चाहिए। आज आजादी के 60 वर्षो के बाद हिन्दी ज्ञान-विज्ञान की सभी विधाओं के संवाहन में सक्षम है। आवश्कता केवल इतनी है कि हम अंग्रेजी की जकडन से अपने को मुक्त करें और हिन्दी की शक्ति को पहचाने। साथ ही उस षड़यत्र को भी पहचानने की भी जरूरत है जिसके तहत अंग्रेजी का प्रभाव बढाने के कुचक्र रचे जा रहे हंै। गांधीजी का हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का सपना अभी शेष है। इसे पूरा करना हम सब की राष्ट्रीय जिम्मेदारी है। आज जब सब टूट रहा ऐसे में भाषा की चिंता किसे है । पर भाषा के बिना भारतीया

पहचान की रक्षा नहीं की जा सकती ।







1 टिप्पणी:

सुशीला पुरी ने कहा…

कब पूरा होगा गांधी का वह सपना ?