रविवार, 11 जुलाई 2010

मंदिर के निर्माता

सभी लोग चाहते थे कि गाँव में एक मंदिर बने . मंदिर बनाने कि कला केवल राधे ही जानता  था . राधे यह भी जानता  था कि मंदिर बनाने के बाद गाँव वालों का व्यवहार  उसके साथ  बदलेगा . राधे का भाई पत्थर  तराश कर मूर्ति  बनाने कि कला  जनता था . गाँव वालों के कहने पर राधे ने बनाया मंदिर और उसके भाई ने तराशी भगवान कि मूर्ति . शुभ महूर्त में मूर्ति में प्राण स्थापना की  गयी  . प्राण स्थापना के समय दोनों भाइओ को मंदिर में नहीं आने दिया गया .बेचारे  दूर खड़े -खड़े सब देखते रहे . आज  भी जब मंदिर के गुम्बद पर चढ़ना  होता है तो चढ़ता  बेचारा  राधे ही है . लेकिन  आम समय में उसे मंदिर में जाने  की मनाही है . यह  प्रश्न उन दोनों भाइयों ने  आखिर पंडित जी से पूछ ही लिया कि यदि हम इतने अछूत ही हैं तो हमारे बनाए मंदिर   में आप  क्यों  करते हो पूजा ? और हमारे दुआरा गढी गयी मूर्ति   में कैसे विराजते हैं आप के भगवान ? पंडित जी के पास इन सीधे  प्रश्नों का कोई उत्तर नही था .