अभिमान वश न ही गया मैं
उत्सव के अवसर पर
रिश्तों की भीड़ में
अपने द्वेष की चिता पर
जलता रहा वह
और अपने ही अभिमान की लाश पर
रोता रहा मैं
न भेज कर आमन्त्रण
उन्होंने हरपल
मसूस किया मुझको
न जाकर भी
हर पल मौजूद था
मैं भी वहीं
मेरी किताबे -एक परिचय
3 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर, बेहद प्रभावशाली, बेहतरीन !
राकेश जी,
दंभ और ईर्ष्या के वशीभूत जब ऐसी ही किसी घटना से गुजरते हैं तो एक एक शब्द प्रस्तुत कविता का बिंध जाता है।
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ती,
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
हमसे आया न गया , तुमसे बुलाया न गया ..........
या फिर
ज़िक्र मेरा मुझ से बेहतर है तेरी महफ़िल में तो है !
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