कवि शिशिर उपाध्याय का एक गीत देखें । इस गीत में सहजता भी है और आप को बचपन में वापस ले जाने की क्षमता भी । पाठक के मन में यदि कुछ वेचैनी पैदा न कर सके , कुछ हल चल न मचा सके ऐसी रचाना समय और कागज़ की बरबादी के अलावा और कुछ नहीं । श्री उपाध्याय के इस गीत का आस्वाद लीजिये ----
''माँकी याद''
बचपन के बीते लम्हों का कतरा -कतरा याद आता है
जब भी अच्छा काम करूं मैं माँका चहरा याद आता है
छुटपन में बहना संग खेला
जुटता है यादों का मेला
सावन में हाथों में बंधता सूत सुनहरा याद आत्ता है
जिसने हर पल मुझे सम्भाला
सीधासादा भोला भाला
फटी कमीज के घाव छुपाता भाई मेरा याद आता है
ज्वर में जब-जब हम तपते थे
रात -रात भर वो जागते थे
खटिया पर बैठ बाबुल संग हुआ सवेरा याद आता है
काँधे चढ़ कर रोज सवारी
करता था शिशिर वनवारी
थक कर चूर हुए दादा का , श्वास वो गहरा याद आता है
अनुशासन में जिसके घर था
नियम कायदा उसका स्वर था
हुंकारे देता दादी का हर दम पहरा याद आता है
बाल सखा संग एक ही धंधा
कंचे , भौरी , गुल्ली डंडा
कटी पतंग के लिए दौड़ता गोगी -शेरा याद आता है
माँ का आंचल मेरा घर था
छुप कर उसमें किसका था
सौ -सौ बार बलैयां लेतामुझे दसहरा याद आता है
जब भी अच्छा काम करूं मैं - माँ का चेहरा याद आता है ।
[ कविता संग्रह - ''वो घर नहीं रहा '' से साभार ]
2 टिप्पणियां:
राकेशजी,
कविता को लेकर आपकी चिंता बहुत वाजिब है ।
कोई चीज लोगों की पहुंच में भी हो और श्रेष्ठ भी हो यह
आवश्यक नहीं है । टमाटर और आम में फर्क तो होगा ही ।
यदि कविताएं लोगों को समझ में नहीं आ रहीं हैं
तो विद्वानों का काम है कि उसकी व्याख्या करें ।
जैसा कि इन दिनों आप मुक्तिबोध कर काम कर रहे हैं ।
आपने मुक्तिबोध को क्यों चुना ? क्योंकि
किसी तुक्कड़ में पाने , जानने, खोजने लायक कुछ है ही नहीं ।
कृपया अन्यथा न लें ।
सानंद होंगे ।
आदरणीय चौधरी जी , पहले तो आप को धन्यवाद की आप ने मेरी चिंताओं से अपनी सहमती प्रकट की . हिन्दी के अनेक रचनाकरों भ्रमवश टमाटर की जगह स्वयम को आम समझ बैटहैं लेकिन लोगों ने उन्हें स्वीकार नहीं किया . सौभाग्य से भी लोग आम और टमाटर का सही अंतर करलेते हैं . आलोचक जिन्हें महान घोषित करते रहे उन्हें जनता ने खारिज ही किया है . कविता अपने समय का व्याख्यान है . जो कविता व्याख्या और वक्तव्य के सहारे जीती है वह कमजोर होती है . कविता वही श्रेष्ट है जो स्वयम आपना पूरा अर्थ प्रकट करती हो . आलोचक रचना को समय की तुला पर तौलताभर है . इससे अधिक उसकी और कोई भूमिका नहीं होती. आज भी लोग आप जैसे व्यंग कार को पढ़ते और समझते हैं तो किसके सहारे ,अपने विवेक के सहारे न की सरली करण के सहारे . इसी लिए हमारा मत है की यदि समाज कविता से दूर हुआ है तो इसमें रचनाकार का दोष है ?
एक टिप्पणी भेजें