शनिवार, 5 फ़रवरी 2011

अवसाद के सरोवर में फेका गया पत्थर होती है कविता


कार्यक्रम में उपस्थित लोग


संवोधित करते हुए  राकेश शर्मा
 कविता जीवन द्रष्टि देती है . पाठक का आत्म विस्तार करती है . उसे निज हटा कर पर से जोडती है .आज का खाता पीता समाज यदि आत्महत्त्यों के आकडे बढ़ा रहा है तो यह सोचना जरूरी हो गया है कि आखिर  ऐसा  क्यों हो रहा है . एक अभाव ग्रसित आदमी यदि आत्म हत्या जैसा पाप करे तो कोई कारण समझ में आता है लेकिन अच्छे  शहर  में निवास करने वाली    महिला जो एक डॉ  भी हो यदि आत्म ह्त्या करे तो विचार करना होगा . पिछले दिनों इंदौर में एक महिला डॉ ने जहर खा कर आत्म हत्या की अपने साथ ही उसने अपने चौदह वर्षीय पुत्र को भी जहर खिलाया . कारण केवल यह हो कि बेटे के नंबर कम आये थे , क्या यह भी कोई कारण हो सकता है ,  आत्म ह्त्या का ? मेरे विचार से विल्कुल नहीं . असल में जैसे .. जैसे यह समाज पुस्तकों के पाठन -  पाठन  से दूर होता जाएगा वैसे ही वैसे यह आत्म केन्द्रित होगा . आत्म केन्द्रित आदमी में जीवन के झंझावत झेलने की ताकत नहीं बचती . अध्ययन आदमी के मानस  का विस्तार करता है . अध्ययन एक आदमी को सभी जड़ और चेतन वस्तुओं के साथ बात करने की द्रष्टि पैदा करता है . आखिर कविता की उत्पत्ति एक पक्षी की पुकार से ही तो हुई है . इसका यह साफ़ मतलब है की केवल आदमी ही नही यह संसार  उन सभी प्रादियों के लिए  भी है ,जिहें भगवान ने रचा है . कितना अच्छा हो कि हम अपने समाज को वापस किताबों की ओर ले कर चल पायें . हमारे विकास के माप दंड किताबों की संख्या पर केन्द्रित हो कि इस वर्ष कितनी किताबें पढ़ी  गयी . आदमी के विकास का पैमाना अर्थ कैसे हो सकता है ? अर्थ यदि आदमी के विकास का  पैमाना होता तो भगवान् महावीर , और बुद्ध को घर छोड़ने की जारूत न होती . आदमी के विकास का रास्ता उसके ही अंदर से पैदा होता है इस रास्ते  को पैदा करने  में साहित्य की भूमिका  बहुत बड़ी है ,आज के आदमी को ज्ञान की ज़रूरत है केवल सूचनाओं की नहीं  . हमारा पूरा जोर सूचना देने पर है ज्ञान के विकास पर नहीं . इसके परिणाम हमारे सामने आने शुरू हो गए हैं ,अभी भी वक्त है विचाए लें . हिन्दी में विपुल साहित्य रचा जा रहा परन्तु आम आदमी का ध्यान उस पर नहीं है . समाज का पेट खाली है एक भूखा समाज साहित्य नहीं पढ़ता  , साहित्य की भूख मानसिक है , उदर की नहीं  . जब भारत के समाज का पेट भरा हुआ था तब वेद जैसी पुस्तकें हमने रचीं और उनका इस समाज ने  अनुशीलन भी किया.  पेट की भूख का कोई अंत नहीं है , इसके लिए जीवन में संतोष पैदा करने की जरूरत होती है . [इस अवसर प़र डॉ रवीन्द्र नारायण पहलवान , , कवित्री रश्मी रमानी , अनिल भोसले , संदीप रसिनकर, श्रीति  रासिनकर और श्री मती निशा पहलवान , चन्द्र शेखर राव ,  महेंद्र जेन , डॉ  मन्मथ  पाटनी ,शरद तिवारी उपस्थित थे .]  [ यह एक भाषण का अंश है जो कल दि. ४ .२ २०११ को श्री जवाहर लाल गर्ग की पुस्तक 'सरोवर के कमल ' के विमोचन अवसर पर दिया गया था . आयोजन रोटरी क्लब इंदौर , अप टाउन ने किया था  ].

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