सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

साहित्य की आँख से इतिहास को देखती पुस्तक '' पाटलि पुत्र की साम्रागी ''





भारत में इतिहास एक अलग विषय के रूप में कभी नहीं रहा . भारतीय धार्मिक पुस्तकों  में विज्ञान , इतिहास और दर्शन सभी कुछ एक साथ है . शोध कर्ताओं का कर्तव्य है कि वे अनुसन्धान कर इनके रूपों को अलग -अलग स्थापित करें . हमारें इतिहास के वारे में अंग्रेजों ने सिखा दिया कि भारत का कोई इतिहास नहीं है और हमारे अग्रेज इतिहासकारो ने मान लिया कि अंग्रेज सच कह रहे हैं परन्तु यह सच नहीं है .यह विवाद पुराना है . इंदौर के डॉ शरद पगारे इतिहास के माने हुए लेखक और प्रोफेसर हैं . पिछले दिनों  उनकी पुस्तक ''पाटलि पुत्र की साम्रागी प़र चर्चा आयोजित की गयी . यह आयोजन पाठाक मंच इंदौर ने आयोजित किया था .इस अवसर प़र पुस्तक के लेखक डॉ शरद पगारे स्वं उपस्थित थे . चर्चा में भाग लेने आये विद्वानों के प्रश्नों के उत्तर लेखक ने दिए . पुस्तक पर  युवा कवि प्रदीप मिश्र ने पर्चा पढ़ा . चर्चा में डॉ जवार चौधरी , डॉ रामकिसन सोमानी , डॉ रवीन्द्र नारायण पहलवान , ललित भाटी, डॉ शशि निगम , रंजना फ्तेपुरकर , प्रदीप नवीन  ,श्याम दांगी , अजय दांगी ,वंदना जोशी  ,नेहा जोशी , रजनी रमण शर्मा , अजय शुक्ला [कानपूर ] शुभाष चन्द्र निगम नें भाग लिया , विद्वान लेखकों ने यह माना के इतिहास प़र निरंतर चर्चा होनी चाहिए . चर्चाये और बहसें कभी अंतिम नहीं होती परन्तु इन से कोई रास्ता निकलता है  जो हमें किसी निष्कर्ष तक पहुंचाता है . जो समाज चर्चाओं और बहसों से दूर भागता है उसके विकास के रास्ते बंद हो जाते हैं , डॉ शरद पगारे की पुस्तक में जहां एक ओर इतिहास की पुख्ता जान कारी देती है वहीं दूसरी ओर विमर्श के लिए भाव भूमि पैदा करती है . लेखक की यह सबसे बड़ी सफलता है .  जिन स्थानों प़र इतिहास मौन है उन्हें लेखक नें कल्पना के सहारे भरा है . ऐतिहासिक लेखन बिना इतिहास के गेप भरे पूरा नहीं हो सकता यही काम इस पुस्तक के माध्यम से लेखक ने किया है .


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