पिछले दिनों ख्यात आलोचक डॉ विजय बहादुर सिंह इंदौर आये थे . प्रसंग था बाबा नागर्जुन के अवदान को याद करना . शहर के रचनाकारों के लिए उनका आना कई अर्थों में विशेष था . बात चीत के अनेक प्रसंगों में हमारे समय के सवालों प़र चर्चा हुई , हिन्दी आलोचना आज अराजकता के मुहाने प़र खडी दिखाई पडती है . एक पूरी पीढी जिसे परम्परा से काटा गया गया था . आज अपने को प्रवंचित सी पा रही है . जो सवाल डॉ रामविलास शर्मा ने अपनी पुस्तक ''मार्क्सवाद और प्रगतिशील साहित्य'' में सन १९८४ में उठाए थे और कहा था कि प्रगतिशीलता के मायने यह नहीं कि पूरी भारतीय परम्परा की अनदेखी की जाए .डॉ शर्मा लिखते हैं ' अनेक लेखक ऐसे हैं कि वे इकदम नये सिरे से एक नये साहित्य को जन्म देने जा रहे हैं . इसलिए वे पिछले साहित्य की तरफ अव्ज्या , उदासीनता और agyyan का रवैया अपनाते हैं . वे हिन्दी साहित्य की जातीय विशेषताओं को नहीं पहचान पाए और इसी लिए उन्हें विकसित नहीं कर पाए ''[ मार्क्स और प्रगतिशील साहित्य , ६३] जो अवसाद जमा है उसे तोड़ा जाए और एक समता मूलक समाज की रचना की जाए . साहित्य में जो धारा वाल्मीक, व्यास , कालिदास , तुलसीदास , निराला से होती हुई हमारे पास तक आई है . वह अप्रासंगिक कैसे हो सकती है ? उस समय प्रगतिशील आन्दोलन के अगुआकारों ने इन स्थापनाओं को खारिज कर दिया था .आज वे ही लोग उन्हीं चीजों का समर्थन करते घूम रहे हैं . जैसे कभी अगेय को कवि न मानने वाले आलोचक आज कल अगेय की कविता का गुड गान करते हुए नहीं थकते . डॉ विजय बहादुर सिंह ने ऐसे ही अनेक ज्वलंत सबालों पर चिंतन प्रस्तुत कर विमर्श के लिए भाव भूमि तैयार की , कुछ लोगों का यह भी कहना था कि स्वयम डॉ विजय बहादुर भी मार्क्स वाद से जुड़े रहे हैं फिर आज किस आधार प़र ये प्रश्न उठा रहे है . विकास की अपनी एक यात्रा है एक विचारक शुरूआत में जिन आस्थाओं से अपनी यात्रा शुरू करता है, कुछ समय बाद उनके विरुद्ध हो जाता है , यह उसकी विकास यात्रा के प्रमाण हैं , मूल सबाल यह है कि हम जड़ वस्तुओं की भाँती चिपके न रहें . मानव जीवन परिवर्तन का ही एक नाम है . कोई भी विचार धारा हर युग में प्रासंगिक बनी नहीं रह सकती और किसी भी विचार का कभी भी अंत नहीं होता .
डॉ विजय बाहादुर सिंह ने अनेक सुलगते सवालों पर प्रकाश डाला . उन्होंने अपने एक धन्टे और तीस मिनट के अत्यंत प्रभावी भाषन में कवि नागार्जुन के साहितिय्क अवदान प़र अविस्मरनीय जानकारियाँ दीँ, चीन के हमले के समय जब सभी बाम पंथी लेखक चुप थे . तब केवल बाबा नागर्जुन ही जिन्होंने अपनी रचनाओं में चीन का विरोध किया था . पंडित नेहरू के साथ बाबा नागार्जुन के वैचारिक विरोध को रेखांकित करते हुए उन्होंने ये पंक्तियाँ पढ़ी ' जो तुम रह जाते दस साल और , झुकती स्वराज की डाल और'' बाबा नागार्जुन की ये पक्तियायाँ सुन कर डॉ रामविलास शर्मा की पुस्तक '' गांधी ,आम्बेडकर , लोहिया और भारतीय इतिहास की समस्याएं ' का स्मरण हो आया .
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,डॉ विजय बहादुर सिंह के साथ डॉ रवीन्द्र पहलवान |
डॉ विजय बाहादुर सिंह ने अनेक सुलगते सवालों पर प्रकाश डाला . उन्होंने अपने एक धन्टे और तीस मिनट के अत्यंत प्रभावी भाषन में कवि नागार्जुन के साहितिय्क अवदान प़र अविस्मरनीय जानकारियाँ दीँ, चीन के हमले के समय जब सभी बाम पंथी लेखक चुप थे . तब केवल बाबा नागर्जुन ही जिन्होंने अपनी रचनाओं में चीन का विरोध किया था . पंडित नेहरू के साथ बाबा नागार्जुन के वैचारिक विरोध को रेखांकित करते हुए उन्होंने ये पंक्तियाँ पढ़ी ' जो तुम रह जाते दस साल और , झुकती स्वराज की डाल और'' बाबा नागार्जुन की ये पक्तियायाँ सुन कर डॉ रामविलास शर्मा की पुस्तक '' गांधी ,आम्बेडकर , लोहिया और भारतीय इतिहास की समस्याएं ' का स्मरण हो आया .
इंदौर प्रवास के दौरान शहर के अनेक रचना कार डॉ विजय बहादुर सिंह से मिलने होटल सुन्दर में आते रहे इनमे प्रमुख रूप से दादा क्रष्ण कान्त निलोसे , व्यंगकार डॉ जवाहर चौधरी , वरिष्ट कवि श्री चन्द्रसेन विराट , श्री हरेराम बाजपेयी ,आशु कवि प्रदीप नवीन , दोहाकार प्रभु त्रिवेदी ,ऐतिहासिक उपन्यास लेखक डॉ शरद पगारे , कवि डॉ रवीन्द्र नारायण पहलवान , आदि शामिल हैं 



1 टिप्पणी:
श्री विजय बहादुर सिंह ही ऐसे विद्वान हैं जो कवि नागार्जंन पर बहुत अच्छा बोल सकते हैं । उन्हें सुनना सचमुच अद्भुत अनुभव दे गया ।
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