सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

खग मृग बसत अरोग बन

५ जनवरी का दिन . तापमान ६ डिग्री के आस पास .सडक के किनारे बने झोपड़े .इन में रहने वाले गरीबों के परिवार .  गरीबी भी ऐसी जिसे देख किसी संवेदन शील का मन रो पड़े . सडक जो लखनऊ और इलाहाबाद को जोडती है . इस पर तेज गति से गुजरती कारें . कारों  में लगे ऐ . सी. उस पर भी ठण्ड से  जान बचाते लोग . इन गरीबों के छोटे - छोटे बच्चे .नंगे बदन रहने को मजबूर . लेकिन फिर  भी खुश . दीनता का कोई भाव नहीं , लगता है गरीबी या अमीरी इक अहसास भी है जो सिर पर चढ़ कर बोलता है . अभाव का यदि बोध न हो तब वह लगता ही नहीं . गरीबों के इन बच्चों को देख अमीरों औरतें सोचती कि भगवान इन पर कितना दयालु है कि इतनी सर्दी में भी देखो बच्चे आराम से खेल कूद रहें है और हमारे बच्चे सारे प्रवंध  के बाद भी बीमार ही बने रहते . मैं विचार में  पड गया कि भगवान् इन पर दयालु होता तो विचारे अभावों में क्यों  जीते ? मुझे रहीम दास का दोहा याद आया '' खग मृग बसत अरोग वन / हरी अनाथ के नाथ ''. ये लोग खग मृग तो अवस्य ही नहीं हैं पर अनाथ जरूर हैं .पर प्रजातंत्र में ये प्रश्न चिन्ह हैं कि जहां प्रगति का ग्राफ रोज  -रोज ऊपर उठत़ा हुआ दिखया जाता हो क्या ये वास्तविकता मुह चिढाते हुयी दिखाई नहीं पडती  .अगर यह हमारा समाज है तो इनकी इस दशा में हमारी भी भूमिका है .

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