मंगलवार, 12 अप्रैल 2011

आगामी दस वर्ष


भविष्य का आकलन करना निःसंदेह सबसे कठिन कार्य है। लेकिन आज के विश्व  को देखते हुए आगामी दस वर्षों के स्वरूप के बारे में अनुमान लगाया जा सकता है।  दस वर्ष बाद समूचे विश्व   का परिदृष्य बहुत बदल चुका होगा। जैसा कि पिछले 10 वर्षों में बदला है। आज से 10 वर्ष पहले मानवीय सम्बन्धों जो गरमाहट, समर्पण और अहलाद का भाव होता था, वैसा 10 वर्ष बाद दिखाई नहीं पड़ेगा। इसके लिए जहां समय अवधि जिम्मेदार होगी वहीं हमारी शिक्षा तथा मौजूदा नेताओं का चरित्र जिम्मेदार होगा। जिन राष्ट्रीय मूल्यों और उद्देष्यों को लेकर स्वतंत्रता आंदोलन लड़े गये , वे मूल्य धारासा यी होते हुए दिखाई पड़ेंगे। इसके लिए एक उदाहरण भाषाओं के संबंध में लेना पर्याप्त होगा। गांधीजी स्वराज्य में  अपनी भाषओं को बढ़ता हुआ देखना चाहते थे, क्योंकि उनके लिए आजादी और भाषाई स्वतंत्रता दोनों का एक ही मायने था। इसलिए वे कहते थे -’’ मेरा नम्र लेकिन दृढ़ अभिप्राय है कि जब तक हम भाषा को राष्ट्रीय और अपनी प्रांतीय भाषओं में उनका योग्य स्थान नहीं देंगे, तब तक स्वराज्य की सब बातें निरर्थक है।’’ (सन् 1918 में इन्दौर में दिए गए भाषण से)। गांधीजी की दृष्टि में प्रांतीय और राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी को उचित स्थान न देने का मतलब गुलाम बने रहना जैसा ही था। आजादी के इन 60 वर्षों में भारत की अशक्षित जनता को न्याय अभी भी उनकी भाषओं में नहीं मिल रहा हैं। आगामी 10 वर्षों में संसार का भाषाई परिदृष्य कैसा होगा, इस पर यूनेस्को ने एक विस्तृत अध्ययन करवाया है इस अध्ययन में विश्व  की सभी भाषाओं के बारे में है ,भविष्य का आकलन किया गया है। भारत की भाषाओं के लिए खतरे की घण्टी बजते हुए सुनाई पड़ रही है। इस रिपोर्ट  में यह खुलासा किया गया है कि आगामी दशकों  में भारत के प्रांतों की भाषाएं समाप्त हो जायेगी। और वे सिमटकर स्थानीय बोलियों के रूप में बचेगी। ऐसा होना निःसंदेह दुःखद होगा, लेकिन ऐसा होना इसलिए तय है क्योंकि आजादी के बाद भारतीय भाषाओं के संरक्षण के उपाय नहीं किये गये। उन्हें रोजगारोन्मुखी नहीं बनाया गया। केवल ऊपरी तौर पर प्रदर्शन कर भाषाओं के संरक्षण का ढोल पीटा गया है। विश्व भाषा  के रूप में हिन्दी आगामी १० वर्षों  में स्थापित होते हुए दिखाई पड़ने लगेगी। अंग्रेजी भाषा का साम्राज्य कम होगा।  इस सम्बन्ध में डॉ रामविलास शर्मा की मान्यता भी विल्कुल ऐसी  ही है . वर्तमान में बाजार की भाषा के रूप में हिन्दी निरंतर ब़ढ़ रही है। भाषा का विकास व्यापार भी तय करता है। केवल साहित्य के सहारे भाषा का विकास नहीं होता। आज बाजारू हिन्दी को देखकर जो जन सोचते हैं कि भाषा के स्वरूप को बिगाड़ा जा रहा है ,वे देखेंगे कि आगामी 10 वर्षों में हिन्दी को विश्व भाषा के रूप में स्थापित करने में वे ही बाजार और बाजारू हिन्दी सहायक बनेगी। हिन्दी मीडिया, अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग में और आगे बढ़ेगी। और अंग्रेजी के शब्द हिन्दी व्याकरण के साथ आकर उसी तरह हिन्दी भाषा का हिस्सा बन जायेंगे, जैसे अरबी, फारसी, पश्तो, फ्रेंच, इटेली और अंग्रेजी के शब्द पहले से घुले-मिले हैं .  
भारतीय समाज में तेजी से परिवर्तन आयेगा। सदियों से व्याप्त जातीय भेद-भाव और कुरीतियों से समाज मुक्त होगा। समाज में वैज्ञानिक सोच विस्तार पायेगा , महिलाओं की स्थिति पहले से बदलेगी। महिला सशक्तिकरण का कार्य सकारात्मक परिणाम दिखाएगा। शिक्षा का प्रचार-प्रसार बढ़ेगा, लेकिन समाज के सभी वर्गों तक    शिक्षा  नहीं पहुँच पायेगी, जिसके कारण एक बहुत बड़ा वर्ग अविकसित अवस्था में जिएगा। यह अशिक्षित  वर्ग और दयनीय स्थिति में जाएगा। आर्थिक विकास की यह अंधी दौड़ मनुष्य को स्वार्थी बनाएगी। वह अपने तईं और अपने परिवार तक सीमित बनेगा। सामाजिक चिंताओं और वैश्विक  सरोकारों से दूर अधिकांश जनसंख्या केवल अपने लिए जिएगी। शिक्षा  का उददेष्य मनुष्य को मनुष्यता सिखाने की बजाय केवल नोट कमाने का साधन बनाना भर बचेगा। एक ओर जातीय व्यवस्था कमजोर होगी तो दूसरी ओर धन के आधार पर वर्ग भेद पनपेगा, जो समाज में नये जातीय समीकरणों को पैदा करेगा।
आगामी 10 वर्षों में एक वैश्विक संस्कृति आकार लेने लगेगी। ग्लोबल बिलिज में अपनी-अपनी पहचान बनाए रखने के लिए भाषाएं और संस्कृतियां संघर्ष करते हुए दिखेगी। ऐसे समय में भारतीय संस्कृति अपने वैज्ञानिक तथ्यों पर खरी उतरकर नये स्वरूप में ढलकर विश्व संस्कृति का रूप ग्रहण करने लगेगी। ऐसा इस आधार पर कहा जा सकता है कि विश्व  की जो अति-प्राचीन संस्कृतियां हैं, उनमें केवल भारतीय संस्कृति अपने मूल के साथ अनेक आक्रमणों को झेलकर जीवित बची है। इसी आधार पर गांधीजी ने हिन्द स्वराज्य में लिखा था-’’मेरी मान्यता है कि भारत नें जो सभ्यता विकसित की है, वहां दुनिया में कोई नहीं पहुंच सकता, जो बीज हमारे पुरखों ने बोए है, उनकी बराबरी कर सकने योग्य कहीं कुछ देखने में नहीं आया। रोम मिट्टी में मिल गया, ग्रीस का नाम भर बचा, मिस्त्र का साम्राज्य चला गया, जापान पश्चिम  के षिकंजे में आ गया और चीन का कुछ कहा नहीं जा सकता। किन्तु इन भग्वावस्था में भी भारत की बुनियाद अभी शेष है।"" यही शेष बुनियाद विश्व  संस्कृति का आधार बनेगी। भारत की योग और आत्याध्मिक खोजें आगामी 10 वर्षों में विश्व मानव के लिए सहारा बनने लगेगी। भारतीय समाज पंडो, पुरोहितों, मौलवियों जैसे पाखंडियो  से मुक्ति पाते हुए प्रतीत होगा, जो सामाजिक समरसता और सामाजिक क्रांति के लिए एक महान कार्य होगा। आज की तुलना में मानव जीवन की गरिमा अधिक सुरक्षित होगी। भारत की वर्तमान पीढ़ी तथा आगामी 10 वर्षों में आने वाली पीढ़ी तकनीकी और प्रबंधन के क्षेत्रों में अपनी दक्षता का लोहा विश्व  में मनवाएगी। विश्व के लगभग सभी देशों  में दक्ष भारतीयों की उपस्थिति  भारतीय संस्कृति को स्थापित करने में मदद करेंगी। भारत के नये और पुराने ज्ञान-विज्ञान  मिलकर एक नये संसार  के निर्माण में सहायक होंगे। वर्तमान परिदृष्य से जिन्हें यह भय है कि कहीं भारत अपनी मूल पहचान न खो दे, वे 10 वर्ष बाद देखेंगे कि भारत अपनी अस्मिता के साथ समझौता किये बिना विश्व  को डिक्टेट करेगा, वह दिन हमारे उस ऋषि की परिकल्पना को पूरा करेगा, जिसमें उसने वसुधैव कुटुम्बकम् का स्वप्न देखा था।









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