खामोशी में झरता है वियोग'' वरिष्ठ कवि क्रष्णकान्त निलोसे का अभी हाल में प्रकाशित कविता संग्रह है आज कल लिखी जारही कविताओं में बिलकुल भिन्न तरह की भाव भूमि पर रची गयी इन कविताओं में कवि ने सात्विक प्रेम की भिन्न-- भिन्न द्रष्ट कोणो से व्याख्या की है . वियोग शब्द योग का विलोम है जिसका अर्थ है अलग - अलग . गणित शाश्त्र के नियम के अनुसार दो सामान संख्याओं में योग होता है. असमान स्थितियों में योग नहीं होताहै. जीव और परमात्मा में अंश औरअंशी का सम्बन्ध माना गया है. इस लिए इन के मिलन को योग औरविछोह को वियोग की संज्ञा दी गयी है. इसी आधार पर भारतीय मनीषा में अद्वत जैसा अनूठा शब्द जन्मा है इन कविताओंमें यही अद्वत अनेक रूपों में पाठक के सामने आता है. प्रेम की सत्ता को कवि निरंतर स्वीकारते रहे हैं . वही स्वीकारोक्ति इन कविताओं में भिन्न व्यंजनाओं में मिलती है कवि प्रेम को परिपक्व अवस्था का भाव मानता है जिसमे मांसल हरियाली, इन्द्रीय सुख के लिए कोई जगह नहींहै. ऊपर से बहुत सहज देखाई पड़ने वाले इस विषय पर कविता लिखना सरल काम नहीं .प्रेम किये बिना , प्रेम के सरोवर में उतरे बिना इनका अर्थ नहीं समझा जा सकता . भक्ति को परिभाषित करते हुए महाकवि तुलसी नेलिखा था ' जिन यही वारी ना मानस धोये '' अर्थात जिन्होंने इससरोवर से दो अंजलि जल नहीं पिया वे खुछ न समझ पायेंगे , ठीक वैसी हीस्थिती इन कविताओं कीहै. प्रेम की डगर पर चले तो बहुतेरे हैं पर इस डगर के अनुभव विरले ही करपाए हैं. इन कविताओं की भाव भूमि ऐसी मालूम पड़ती है जैसे गम्भीर बारिश के बाद झाड़ियों से टपकता पानी वातावरण की नीरवता को भंग करता हैऔर भीगा हुआ वातावरण एक नई श्रष्टि का श्रजन करता है. ऐसी सर्जनात्मक सम्भावनाओं से भरी पूरी हैं इस संकलन की कविताएँ कवि लिखता है '' प्रेम / गर होता/ समुद्र सुखका/ तो लहरों की शिराओं में/ समाया हुआ दुःख / क्यों पटकता रहता अपना सर/ बार - बार.'' एक उदाहरण और देखए ---- क्योंकि अपनी वाणी से परे / शब्दातीत / महसूस किया है उसे / प्रज्ञा में स्थित / भाव की गति शीलता में/ '' कवि निलोसेअपने आध्यात्मिक मिलन की ओर इशारा करते हुए लिखते हैं----' देह हो कर / हम तुम / मिले ही कब / औरकब देह हो हुए अलग.'' ये पंक्तियाँ ऋषि मार्कंडेय की याद दिलाती हैं दुर्गा सप्तसती में वेलिखते हैं कि हे आदि शक्ति माँ तुम परमानंद विग्रह हो . अर्थातसंसार रचने के लिए विधाता ने स्त्री और पुरुष के रूप में अपना विभाजन किया . कवि निलोसे का प्रेम उसी शास्वत सत्य की ओर इशारा कटा है. गंभीर और चितन प्रवण इन कविताओं से गुजर कर पाठक अपने आप को एक अतीन्द्रीय लोक में पाता है. आज जब कविता में कविता के शिवा सब कुछ लिखा जा रहा है ऐसे में कवि निलोसे की कविताएँ भरोशा दिलाती हैं कि संभावनाएं अभी शेष हैं . कवि क्रष्णकान्त निलोशे को इन सार्थक कविताओं के लिए बधाई .
शनिवार, 13 अगस्त 2011
खामोशी में झरता है वियोग
रविवार, 7 अगस्त 2011
उपन्यास पर चर्चा आयोजित
पाठक मंच इंदौर ने लिखिका डॉ मीनाक्षी स्वामी की पुस्तक भूभल पर चर्चा आयोजित की . यह उपन्यास नारी की सामाजिक स्थिति पर केन्द्रित है लेखिका ने बड़े साहस के साथ इन विषयों को उठाया है . इस पुस्तक गोष्ठी में डॉ पुरुषोतम दुवे , डॉ जबाहर चौधरी , डॉ ॐ ठाकुर , डॉ कला जोशी, डॉ छाया गोयल डॉ हेमलता दिखित , श्री मोहन रावल , नियति सप्रे ,किसलय पंचोली डॉ मीनाक्षी स्वामी , ब्रजेश क़ानून गो , नन्द किशोर सोनी , चन्द्र भान भार्दुआज , गोपाल माहेश्वरी , प्रताप सिंह सोढी, देवेश त्यागी श्याम यादव , बसंत जौहारी, कु. लवीना निनामा , रंजना फतेपुरकर , नंदनी जोशी और राकेश शर्मा ने भाग लिया . चर्चा का निष्कर्ष यह निकला की क़ानून बना लेने , शिक्षा का प्रचार कर लेने अथवा नारी के समर्थन में नारे लगा लेने से कोइ परिवर्तन होने वाला नहीं है . पूरा पुरुष समाज नारी के साथ अन्याई नहीं है औरअत्याचारी भी नहीं है . लेकिन नारी की देह और उसकी अस्मिता पर हो रहे निरंतर अन्यायों के विरुद्ध आवाज उठाने की जरूरत है . इसे जन जागरण के दुआरा ही दूर किया जा सकता है . उपन्यास अनेक विमर्शों को जन्म देता है . पठाक को सोचने के लिए मजबूर करता है .
![]() |
चर्चा में भाग लेते लेखक |
मंगलवार, 24 मई 2011
भारत भूषण के गीत
भारत भूषण हिन्दी गीत के शीर्षस्थ कवि है. उन्होंने हिन्दी गीतमंच का लंबा और सार्थक युग जिया है. भारत भूषण से मैंने उनकी काव्य यात्रा के बारें में बात की. इस बातचीत के पहले भाग को आप यहाँ सुन सकते है.
सोमवार, 25 अप्रैल 2011
विमर्श के नये क्षितिज तलाशती पुस्तक '' नागार्जुन संवाद ''

आलोचक विजय बहादुर सिंह अनेक सवाल नागार्जुन से करते हैं जिनके बहुत महत्वपूर्ण
उत्तर इस पुस्तक में उपलब्ध हैं ,
पुस्तक ----- नागार्जुन संवाद
संपादक ----- डॉ विजय बहादुर सिंह
मूल्य ------- रु -- 150
प्रकाशक ---- बाक्स korogetrs एंड प्रिंटर्स
गोविन्द पुरा भोपाल , [ मध्य - प्रदेश ]
सोमवार, 18 अप्रैल 2011
नई उदभावनाओं का बे जोड़ कवि , श्री गिरेन्द्र सिंह भदौरिया
कविता का उद्देश्य न तो केवल मनोरंजन करना है और न केवल विचार या विचार धारा का प्रचार करना भर है .जब -जब कविता से यह गुलामी करवाने का निंदनीय प्रयास किया गया है , तब - तब वह समाज की मुख्य धारा से कट गयी है . इसका एक बड़ा उदाहरण मुक्ति बोध और अज्ञेय जैसे कवियों से लिया जासकता है . ये बड़े कवि हैं परन्तु अकेडमिक रूप से मूल्यांकित हैं , जनता में उस तरह से स्वीकृत और मूल्यांकित नहीं है जैसे तुलसीदास , निराला , कबीरदास हैं . गिरेन्द्र सिंह की कविता पर बात करते हुए मेरा कोई उद्देश्य इनकी तुलना उक्त कवियों से करने की नहीं है . आज की कविता विचारों से लदी फंदी और ऊबड़ खाबड़ है की मानो पाठक और श्रोता को कोई रस ही नहीं दे पाती ,ऐसे समय में कविता के सरस रूप की जरूरत है , एक तो आज का आदमी अपने जीवन के बोझ से दबा हुआ है ऊपर से असंस्कारित कविताई उसे और नीरसता में डुबोती है इस कारण साहित्य से उसकी दूरियां और बढती जारही हैं .
गिरेन्द्र सिंह भदौरिया की कविता में इन बातों के विपरीत प्रक्रति का सानिध्य है , कल्पना की सुकोमलता है और जीवन के साथ इनका तादात्म . कविता जब तक पाठक का मन रंजित करते हुए उसे जीवन के धरा तल से ऊपर ना उठए तब तक वह किसी काम की नहीं होती . गिरेन्द्र सिंह की कविताओं में यह ताकत है देखें -----'' पंथी का गंतव्य , गत्य तक नहीं / गत्य से आगे भी है . ...... जीवन का उद्देश्य , म्रत्यु तक नहीं , म्रत्यु से आगे भी है ' कोई कठिनाई पैदा किये बिना कवि अपनी बात पाठाक तक भेज देता है . समाज की जिम्मेदारी जिन पर थी वे सब अपना उत्तर दायित्व भूलकर अपने पेट की आग बुझाने में लगे हुए हैं कवि ने लिखा '' खेतों को बागड निगलती जा रही है '' सब तरफ भ्रष्टाचार फैला है और सब परेशान लेकिन मौन हैं ,ऐसे समय में कवि लिखता है --- '' धारा मुख्य बना सन्नाटा , मौन प्रमुख प्रहरी हैं''' और भी --''अब तो बलिदानी भावों को , पागल पन कहते हैं .'' एक कवि ही तो है जो हर युग में स्वम तो जागता ही है समाज को भी जगाता रहता है ----'' अनाचार की जिस आंधी में / दानवता मुहं खोल रही है ..... सुधी जानो के मध्य रक्त से सनी लेखनी बोल रही है ''
गिरेन्द्र सिंह की कविता में प्रयुक्त कुछ उपमाएं देखें , यह उपमा चांदनी के लिए की गई है '' धूप हिम से निकल जर्द पीतल हुई , अग्नि गर्भा सुता सर्द शीतल हुई .'' ऐसी उपमा अन्यत्र न मिलेगी जहां चांदनी को धूप से निकला हुआ कहा गया हो . एक उपमा और देखिये ---''या के केशर मिलाया हुआ दूधिया / दिव्य आलोक इस लोक ने पी लिया .'' अब आप कल्पना कीजिए और तुलना भी करें की चांदनी का रंग और केशर मिले दूध में कैसी बेजोड़ समानता है .इसी क्रम में एक और उपमा देखिये ---'' मानो उबटन लगाए हुए बिजलियाँ / बिछ गईभूमि पर छोड़ कर बदलियाँ .'' बिजली जब बादलों में कौन्धिती तब वह सफेद होती है परन्तु चांदनी पीला पन लिए होती है .इसी लिए कवि ने बिजली को उबटन लगा कर पीला किया है और उसे चांदनी के रूप में प्रतुत किया है . यथार्थवादी इसे नही मानेगे परन्तु इस सबसे कविता का मूल्य कम नहीं हो जाता . ''बादल को धन्य बाद '' कविता में ऐसी ही अनेक उपमाएं पाठाक का मन मोहती हैं .
केवल आलोचक की प्रशंसा पा कर कोई बड़ा कवि नहीं बन सकता , जब तक की कवि को जनता का , पाठाक का पूरा आशीर्वाद न मिले . हमारे समय के कवि श्री गिरेन्द्र सिंह भदौरिया के पास श्रोता भी हैं और पाठक भी . उम्मीद है क़ि उनसे भविष्य में बहुत मर्म स्पर्शी कविताएँ हिन्दी के पाठकों को मिलेंगी .....
शनिवार, 16 अप्रैल 2011
गोआ में तुम
सुप्रसिद्ध कहानीकार श्री बलराम का कहानी संग्रह ' गोआ में तुम ' अभी हाल में ही प्रकाशित हुआ है . इस संग्रह में 15 कहानियां हैं . हमारे समय की विसंगतियों पर लिखी गई इन कहानियों में पाठक अनेक तरह के प्रश्नों से रूबरू होता है . लेखन कर्म की यह सबसे बड़ी चुनौती होती है की वह अपने पाठक के सामने प्रश्न खड़े करे . समाधान खोजना रचना का काम नहीं होता है . और न ही अपने पाठकों को उपदेश देना लेखक का काम है.नारी की स्वतंत्रता पर बड़ी चर्चा की जा रही है और झांसे में फंसी वह भी अपने को आजाद मानने लगी है पर हालात कुछ और ही हैं लेखक ने इसे लिखा है '' बचपन से ही सुनती आई हूँ की जीवित बचे रहने के लिए लडकी को कदम - कदम पर
समझौते करने पड़ते हैं . '' [ प्रष्ठ 15 ] लेखक के पास बड़ी पैनी निगाह है जो पूरे पाखंड को समझ कर बात को पूरी साफ़ गोई के साथ सामने रखता है . ये कहानियाँ मानवीय सरोकारों , और बदलते मनोविज्ञान पर अलग तरह से प्रकाश डालती हैं . दार्शिनिक भाव पर कई कहानियां है . बहुत महीन ताने बाने की बुनावट वाली इन काहानिओं में एक रवानगी है जो पाठक को गहरे तक बांधती है . यह लेखकीय कौशल बड़े अनुभव और धीरज से ही पैदा होता है जो लेखक की अपनी कमाई होती है . इन कहानिओं को पढ़ते हुए लिखक श्री बलराम के एक कहानीकार का सबल और सफल रूप सामने आता है .
पुस्तक --- गोआ में तुम लिखक --- श्री बलराम
प्रकाशक भावना प्रकाशन , 109 ,
पटपड गंज , दिल्ली 91
मूल्य --- र - 150
मंगलवार, 12 अप्रैल 2011
आगामी दस वर्ष
भविष्य का आकलन करना निःसंदेह सबसे कठिन कार्य है। लेकिन आज के विश्व को देखते हुए आगामी दस वर्षों के स्वरूप के बारे में अनुमान लगाया जा सकता है। दस वर्ष बाद समूचे विश्व का परिदृष्य बहुत बदल चुका होगा। जैसा कि पिछले 10 वर्षों में बदला है। आज से 10 वर्ष पहले मानवीय सम्बन्धों जो गरमाहट, समर्पण और अहलाद का भाव होता था, वैसा 10 वर्ष बाद दिखाई नहीं पड़ेगा। इसके लिए जहां समय अवधि जिम्मेदार होगी वहीं हमारी शिक्षा तथा मौजूदा नेताओं का चरित्र जिम्मेदार होगा। जिन राष्ट्रीय मूल्यों और उद्देष्यों को लेकर स्वतंत्रता आंदोलन लड़े गये , वे मूल्य धारासा यी होते हुए दिखाई पड़ेंगे। इसके लिए एक उदाहरण भाषाओं के संबंध में लेना पर्याप्त होगा। गांधीजी स्वराज्य में अपनी भाषओं को बढ़ता हुआ देखना चाहते थे, क्योंकि उनके लिए आजादी और भाषाई स्वतंत्रता दोनों का एक ही मायने था। इसलिए वे कहते थे -’’ मेरा नम्र लेकिन दृढ़ अभिप्राय है कि जब तक हम भाषा को राष्ट्रीय और अपनी प्रांतीय भाषओं में उनका योग्य स्थान नहीं देंगे, तब तक स्वराज्य की सब बातें निरर्थक है।’’ (सन् 1918 में इन्दौर में दिए गए भाषण से)। गांधीजी की दृष्टि में प्रांतीय और राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी को उचित स्थान न देने का मतलब गुलाम बने रहना जैसा ही था। आजादी के इन 60 वर्षों में भारत की अशक्षित जनता को न्याय अभी भी उनकी भाषओं में नहीं मिल रहा हैं। आगामी 10 वर्षों में संसार का भाषाई परिदृष्य कैसा होगा, इस पर यूनेस्को ने एक विस्तृत अध्ययन करवाया है इस अध्ययन में विश्व की सभी भाषाओं के बारे में है ,भविष्य का आकलन किया गया है। भारत की भाषाओं के लिए खतरे की घण्टी बजते हुए सुनाई पड़ रही है। इस रिपोर्ट में यह खुलासा किया गया है कि आगामी दशकों में भारत के प्रांतों की भाषाएं समाप्त हो जायेगी। और वे सिमटकर स्थानीय बोलियों के रूप में बचेगी। ऐसा होना निःसंदेह दुःखद होगा, लेकिन ऐसा होना इसलिए तय है क्योंकि आजादी के बाद भारतीय भाषाओं के संरक्षण के उपाय नहीं किये गये। उन्हें रोजगारोन्मुखी नहीं बनाया गया। केवल ऊपरी तौर पर प्रदर्शन कर भाषाओं के संरक्षण का ढोल पीटा गया है। विश्व भाषा के रूप में हिन्दी आगामी १० वर्षों में स्थापित होते हुए दिखाई पड़ने लगेगी। अंग्रेजी भाषा का साम्राज्य कम होगा। इस सम्बन्ध में डॉ रामविलास शर्मा की मान्यता भी विल्कुल ऐसी ही है . वर्तमान में बाजार की भाषा के रूप में हिन्दी निरंतर ब़ढ़ रही है। भाषा का विकास व्यापार भी तय करता है। केवल साहित्य के सहारे भाषा का विकास नहीं होता। आज बाजारू हिन्दी को देखकर जो जन सोचते हैं कि भाषा के स्वरूप को बिगाड़ा जा रहा है ,वे देखेंगे कि आगामी 10 वर्षों में हिन्दी को विश्व भाषा के रूप में स्थापित करने में वे ही बाजार और बाजारू हिन्दी सहायक बनेगी। हिन्दी मीडिया, अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग में और आगे बढ़ेगी। और अंग्रेजी के शब्द हिन्दी व्याकरण के साथ आकर उसी तरह हिन्दी भाषा का हिस्सा बन जायेंगे, जैसे अरबी, फारसी, पश्तो, फ्रेंच, इटेली और अंग्रेजी के शब्द पहले से घुले-मिले हैं .
भारतीय समाज में तेजी से परिवर्तन आयेगा। सदियों से व्याप्त जातीय भेद-भाव और कुरीतियों से समाज मुक्त होगा। समाज में वैज्ञानिक सोच विस्तार पायेगा , महिलाओं की स्थिति पहले से बदलेगी। महिला सशक्तिकरण का कार्य सकारात्मक परिणाम दिखाएगा। शिक्षा का प्रचार-प्रसार बढ़ेगा, लेकिन समाज के सभी वर्गों तक शिक्षा नहीं पहुँच पायेगी, जिसके कारण एक बहुत बड़ा वर्ग अविकसित अवस्था में जिएगा। यह अशिक्षित वर्ग और दयनीय स्थिति में जाएगा। आर्थिक विकास की यह अंधी दौड़ मनुष्य को स्वार्थी बनाएगी। वह अपने तईं और अपने परिवार तक सीमित बनेगा। सामाजिक चिंताओं और वैश्विक सरोकारों से दूर अधिकांश जनसंख्या केवल अपने लिए जिएगी। शिक्षा का उददेष्य मनुष्य को मनुष्यता सिखाने की बजाय केवल नोट कमाने का साधन बनाना भर बचेगा। एक ओर जातीय व्यवस्था कमजोर होगी तो दूसरी ओर धन के आधार पर वर्ग भेद पनपेगा, जो समाज में नये जातीय समीकरणों को पैदा करेगा।आगामी 10 वर्षों में एक वैश्विक संस्कृति आकार लेने लगेगी। ग्लोबल बिलिज में अपनी-अपनी पहचान बनाए रखने के लिए भाषाएं और संस्कृतियां संघर्ष करते हुए दिखेगी। ऐसे समय में भारतीय संस्कृति अपने वैज्ञानिक तथ्यों पर खरी उतरकर नये स्वरूप में ढलकर विश्व संस्कृति का रूप ग्रहण करने लगेगी। ऐसा इस आधार पर कहा जा सकता है कि विश्व की जो अति-प्राचीन संस्कृतियां हैं, उनमें केवल भारतीय संस्कृति अपने मूल के साथ अनेक आक्रमणों को झेलकर जीवित बची है। इसी आधार पर गांधीजी ने हिन्द स्वराज्य में लिखा था-’’मेरी मान्यता है कि भारत नें जो सभ्यता विकसित की है, वहां दुनिया में कोई नहीं पहुंच सकता, जो बीज हमारे पुरखों ने बोए है, उनकी बराबरी कर सकने योग्य कहीं कुछ देखने में नहीं आया। रोम मिट्टी में मिल गया, ग्रीस का नाम भर बचा, मिस्त्र का साम्राज्य चला गया, जापान पश्चिम के षिकंजे में आ गया और चीन का कुछ कहा नहीं जा सकता। किन्तु इन भग्वावस्था में भी भारत की बुनियाद अभी शेष है।"" यही शेष बुनियाद विश्व संस्कृति का आधार बनेगी। भारत की योग और आत्याध्मिक खोजें आगामी 10 वर्षों में विश्व मानव के लिए सहारा बनने लगेगी। भारतीय समाज पंडो, पुरोहितों, मौलवियों जैसे पाखंडियो से मुक्ति पाते हुए प्रतीत होगा, जो सामाजिक समरसता और सामाजिक क्रांति के लिए एक महान कार्य होगा। आज की तुलना में मानव जीवन की गरिमा अधिक सुरक्षित होगी। भारत की वर्तमान पीढ़ी तथा आगामी 10 वर्षों में आने वाली पीढ़ी तकनीकी और प्रबंधन के क्षेत्रों में अपनी दक्षता का लोहा विश्व में मनवाएगी। विश्व के लगभग सभी देशों में दक्ष भारतीयों की उपस्थिति भारतीय संस्कृति को स्थापित करने में मदद करेंगी। भारत के नये और पुराने ज्ञान-विज्ञान मिलकर एक नये संसार के निर्माण में सहायक होंगे। वर्तमान परिदृष्य से जिन्हें यह भय है कि कहीं भारत अपनी मूल पहचान न खो दे, वे 10 वर्ष बाद देखेंगे कि भारत अपनी अस्मिता के साथ समझौता किये बिना विश्व को डिक्टेट करेगा, वह दिन हमारे उस ऋषि की परिकल्पना को पूरा करेगा, जिसमें उसने वसुधैव कुटुम्बकम् का स्वप्न देखा था।
शनिवार, 9 अप्रैल 2011
गांधी को खारिज करने वाले लोगों के लिए
![]() |
अन्ना हजारे के आन्दोलन में शरीक हुए अभिनेता |
![]() |
अन्ना और अग्निवेश |
कई वर्षों से यह मुहीम चलाई जा रही थी की गांधी जी इस २१वी शदी में प्रासंगिक नहीं बचे . लेकिन भ्रष्टाचार के विरुद्ध अन्ना हजारे के आन्दोलन ने यह प्रमाडित कर दिया की २१वी सदी में अगर किसी कोई विचार सबसे अधिक प्रासंगीक है तो वे गांधी जी के विचार हैं . अन्ना हजारे का पूरा आन्दोलन शान्ति पूर्वक सम्पन्न हुआ . अपने उद्देश्य में सफल रहा . इस आन्दोलन ने कई सबालों के जबाब दिए और कई नये सबाल हमारे सामने खड़े भी किये.राष्ट्र की चिंता में नई पीढी सामने आई .जिसके बारे में यह मान लिया गया है की इस पीढी के सरोकार राष्ट्र और समाज से कट गए हैं . इस बात में संदेह नहीं है की यह पीढी सब तरह से अलग है पर ऊपर से बहुत अलग थलग दीखते हुए भी इसकी अपनी समझ है ,अपनी प्रतिभा है . जहां - जहां पथ भ्रष्ट है वहां -वहां इसका नहीं ,हमारा दोष है , शिक्षा का दोष है , केवल नई पीढी को दोषी नही ठहराया जा सकता . अन्ना के आन्दोलन में नव युवक ,नव युवतियां जुडीं . इस बात को स्वम अन्ना ने भी स्वीकार किया . सबाल ये है की ये लोग अन्ना हजारे को नया गाधी कह रहे थे . इस पीढी ने गांघी को नहीं देखा फिर भी इसके मन में कहीं न कहीं गांधी की एक ऐसी छवि है जो भरोसा दिलाती है की बिना रक्तपात किये हुए भी परिवर्तन सम्भव है . और रक्तपात करके भी क्रान्ति सम्भव नहीं हो पाती . दोनॉ ही बातें हमारे सामने हैं .नक्सली आन्दोलन के चलते कितना खून बह चुका है पर नातो सरकार झुकी और न ही आन्दोलन आपनी किसी शक्ल में बदलता दिखाई पड रहा है . परिस्थितियाँ अलग हो सकती है. पर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता की जो अहिंसक मार्ग गांधी ने हमें दिखाया है , सब तरह से वही ठीक है . जितनी विसंगतियां हमारे सामने हैं .उन्हें मिटाने के लिए अगर गोली का सहारा लिया जाए तो ,यह तो नहीं कहा जा सकता कि वे विसंगति समाप्त होगी पर इतना तो कहा जा सकता है की अनेक विसंगतियाँ और जन्म ले लेंगी . असल में गांघी का रास्ता आदमी का आतंरिक परिवर्तन कर बदलाव पैदा करता है . क्रान्ति का जो रास्ता मार्क्स ने हमें दिखाया वह समय के प्रवाह में पूरी तरह अनउपयुक्त सिद्ध हो चुका है . किसी प्रजातांत्रिक व्यावस्था में खून खराबे की लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए . जहां -जहां सत्ता हिंसा के रास्ते से प्राप्त हुई है वहाँ -वहां उसे बनाए रखने के लिए और अधिक खून बहाने जरूरत हुई है . हिंसा की अंतिम तस्वीर केवल हिंसा में ही बदली है . आज समय की जरूरत है की छोटे -छोटे जन आंदोलनों से हम अपने समय की समस्याओं को हल कर सकते हैं . यह अवश्य ध्यान रखना होगा की कोई गांधी आकर हमारे समय को संबोधित करेगा , यह होने वाला नहीं है . अना हजारे का यह आन्दोलन अनेक तरह की आशाओं को जन्म दे गया , सूनी आँखों में सपने दिखने का अवसर दिए , अँधेरे समय को प्रकाश की एक किरण , और पूरे समाज को एक आलम्बन . भ्रंश से ही उम्मीद के अवसर पैदा होते हैं . यह पुस्तकों में तो था इसे 9 अप्रैल 2011 को जंतर -मंतर नई दिल्ली में सामने घटते हुए भी देखा है .
![]() |
लोग जो परिवर्तन के पक्ष में हें |
बुधवार, 6 अप्रैल 2011
खुले तीसरी आँख

इस समय में परिवर्तन होना चाहिए यह उदेदश्य है कवि विराट का . वे मानते हैं कि असम्भव कुछ भी नहीं किवल इच्छा शक्ति चाहिए . यह पुस्तक पाठक को विचार यात्रा पर ले जाने में पूरी तरह शक्षम है .
पुस्तक --- खुले तीसरी आँख
कवि ------ चन्द्रसेन विराट
मूल्य -----रु 250
प्रकाशन -- समान्तर पुब्लिकेशन
तराना , उज्जैन , मध्य प्रदेश
मंगलवार, 5 अप्रैल 2011
समय से सम्वाद करती कविताएँ
![]() |
तुम कितनी अच्छी हो |
![]() |
गोष्टी का चित्र |
नारायण डॉ रवीन्द्रण पहलवान का नया कविता संग्रह 'तुम कितनी अच्छी हो ' अभी हाल ही में प्रकाशित हुआ है . इस संग्रह पर चर्चा गोष्टी आयोजित हुई . चर्चाकार थे श्री हरे राम वाजपेई, श्री राजेन्द्र वामन काटदरे और राकेश शर्मा . डॉ पहलवान की कविताएँ आकार में बहुत्त छोटी हैं , किन्तु उनका अर्थ गम्भीर है . ये कविताएँ हमारे समय के साथ सम्वाद करती है . किसी रचना के मूल्याकन के समय यह तथ्य भी महत्व पूर्ण होता की उस रचनाकार ने अपने समय के साथ न्याय किया या नहीं .डॉ पहलवान की यह कविता पढ़ें ----चिड़िया /तुम कभी मंदिर /पर बैठती हो/कभी मस्जिद पर / कभी गरजे पर / तुमने किसी / आराधना स्थल में / भेद नहीं किया / हमें अभी भी / ठीक से बैठना / सीखना बाकी है ,'' सामाजिक विसंगतियों पर अनेक कविताएँ इस संग्रह में हैं ,हिन्दी के सुधी पाठकों को यह पुस्तक पढ़नी चाहिए . पुस्तक -- तुम कितनी अच्छी हो , कवि डॉ रवीन्द्र नारायण पहलवान , मूल्य --रु 145 , प्रकाशक ---- रोटरी क्लब अपटाउन , इंदौर .
![]() |
डॉ पहलवान व अन्य |
बुधवार, 9 मार्च 2011
शनिवार, 5 मार्च 2011
भारतीय समाज के निर्माण में साहित्य की भूमिका ---------
![]() |
विचार रखते हुए आलोचक डॉ क्रष्णदत्त पालीवाल |
भारतीय समाज के निर्माण में साहित्य की सबसे बड़ी भूमिका है , हमारा समाज आज साहित्य से दूर भागता हुआ भले ही दिखाई पड़े परन्तु वह साहित्य के बिना अपना काम नहीं चला सकता . आज भी उसके सभी संस्कार साहित्य से ही पूरे होते हैं .स्वतंत्रता आन्दोलन के समय राष्ट्रीय भावना जागृत करने में साहित्य की सबसे बड़ा योगदान है . साहित्य केवल भाषा और शब्दों का खेल नहीं है . साहित्य की परिध में किसी भी राष्ट्र के पेड़ , पहाड , नदियाँ , जंगल ,पशु , चिड़िया , जड़ जंगम , चेतन वनस्पतियाँ , खान पान , वेश भूषा आदि सभी आते हैं . इन सबसे मिलकर जो चीज बनती है वह साहित्य की नजर में वह सब राष्ट्रीय धरोहर है . एक युग चेतना सम्पन्न लेखक ,कवि , आलोचक . मानवीय समाज के साथ साथ इन सबकी चिंता भी करता है . हिंदी साहित्य में राष्ट्रीय स्वर विषय पर डॉ क्रष्णदत्त पालीवाल ने इंदौर में एक अविस्मरनीय भाषण दिया वे धर्मपाल शोध पीठ भोपाल दुआरा आयोजित एक प्रसंग पर इंदौर आये थे . हरिश चन्द्र और उनके बाद के सभी युगों में हिन्दी के अनेक रचना कारों ने राष्ट्रीय चेतना को पुष्पित और पल्लवित करने वाला साहित्य रचा है . आज के साहित्यकार का यह कर्तव्य है की वह एस परम्परा का निर्वाह करता रहे . साहित्य के सामाजिक सरोंकारों पर डॉ पालीवाल ने अनेक प्रसंग श्रोताओं के सामने रखे .
बुधवार, 2 मार्च 2011
साहित्य वही है जो अपने समय से झूझता है
श्री सुखदेव सिंह कश्यप की पुस्तकों के विमोचन अवसर का द्रश्य |
साहित्य की सत्ता अपनी जगह स्वतंत्र है .साहित्य का सच राजसत्ता के सच से हमेशा अलग रहता है . समाज के सच के बहुत पास तक जाता साहित्य का सच, परन्तु वह समाज के सच के साथ हमेशा हाँ में हाँ मिलाये यह जरूरी नहीं . धर्म का सच साहित्य की द्रष्टि में खंडित सच है इस लिए साहित्यकार धार्मिक होते हुए अपनी तरह विद्रोही भी होता है . जब कोई साहित्यकार धर्म के पास जाता है तो केवल साहित्यिक कारणों से ही जाता है न क़ि अंध विश्वासी होकर और न ही धर्म के सच को प्रचारित और प्रसारित करने के उदेश्य के साथ . मूल अर्थों में वह आध्यात्मिक अधिक होता है , धार्मिक कम . धर्म , समाज और राज सत्ता के त्रिकोण के बीच साहित्य अपने सच के साथ उपस्थित रहता है . जनता का सच सुनकर भगवान राम जो सत्तासीन हैं . अपनी पत्नी सीता का परित्याग किया .इस घटना पर धर्म अपनी तरह रियक्ट होता है लेकिन एक साहित्यकार जो वाल्मीक के रूप में मौजूद है . वह जनता , राज सत्ता और धर्म के सच की परवाह किए बिना सीता के साथ हुए अन्याय के विरुद्ध खड़ा होता है . और जो पुस्तक रचता है वह रामायण बन जाती है . लगभग यही बात महाभारत में भी घटित होती है , वेद व्यास अपने समय के सारे सच को संजय की आँखों से देखते हैं और अंधी राज सत्ता को पूरा सच दिखाते हैं .जो न केवल महाभारतबल्कि हर युग के आदमी के लिए गीता के रूप में प्रेरणा दाई बन जाता है साहित्य मूल रूप से सत्ता के विरुद्ध ही खड़ा होता है . इस लिए साहित्य के नाम पर जितने भी वाद चलाए गए बे सब इस लिए विफल हुए क्योंक़ि उनकी आधार शिला साहित्य की जमीन और जमीर पर आधारित नहीं थी ये आन्दोलन राजनीत से प्रेरित थे बल्कि कह सकते हैं के राजनीत की जलवायु वाले पौधे को साहित्य की जमीन पर रोप कर फल प्राप्त करने की कोशिश की जा रही थी इसलिए इनका यही परिणाम होना था . साहित्य और एक साहित्य कार को हमेशा अपने निज धर्म की तलाश में रहना चाहिए जिसकी चाह मुक्तिबोध के शब्दों में इस तरह है
रचनाकार वही ठीक है जो समाज में व्याप्त विद्रूपताओं के विरुद्ध लिखता है और अपने आचरण से समाज को प्रभावित भी करता है . [कल १ मार्च २०११ को इंदौर के वरिष्ट रचनाकार श्री सुखदेव सिंह कश्यप की दो पुस्तकों 'चर्चा आज की ' और प्रजातंत्र के आईने में कविता ' का विमोचन हुआ , श्री सुख देव सिंह कश्यप निरंतर लेखन करने वाले लिखकों में हैं . सरल और समयानुकूल लेखन उनकी विशेषता है . इन पुस्तकों में हमारा समय बोलता है विमोचन अवसर पर मैंने जो जो विचार व्यक्त किये हैं उन्हीं के कुछ कुछ अंश ऊपर दिए गये हैं ]इस अवसर पर श्री सत्य नारायण सत्तन ,चन्द्र सेन विराट,सूर्य कान्त नागर,जस्टिस वीरेन्द्र दत्त ज्ञानी,सुरेश सेठ ,हरेराम बाजपेई उपस्थित थे .
सोमवार, 21 फ़रवरी 2011
खग मृग बसत अरोग बन
५ जनवरी का दिन . तापमान ६ डिग्री के आस पास .सडक के किनारे बने झोपड़े .इन में रहने वाले गरीबों के परिवार . गरीबी भी ऐसी जिसे देख किसी संवेदन शील का मन रो पड़े . सडक जो लखनऊ और इलाहाबाद को जोडती है . इस पर तेज गति से गुजरती कारें . कारों में लगे ऐ . सी. उस पर भी ठण्ड से जान बचाते लोग . इन गरीबों के छोटे - छोटे बच्चे .नंगे बदन रहने को मजबूर . लेकिन फिर भी खुश . दीनता का कोई भाव नहीं , लगता है गरीबी या अमीरी इक अहसास भी है जो सिर पर चढ़ कर बोलता है . अभाव का यदि बोध न हो तब वह लगता ही नहीं . गरीबों के इन बच्चों को देख अमीरों औरतें सोचती कि भगवान इन पर कितना दयालु है कि इतनी सर्दी में भी देखो बच्चे आराम से खेल कूद रहें है और हमारे बच्चे सारे प्रवंध के बाद भी बीमार ही बने रहते . मैं विचार में पड गया कि भगवान् इन पर दयालु होता तो विचारे अभावों में क्यों जीते ? मुझे रहीम दास का दोहा याद आया '' खग मृग बसत अरोग वन / हरी अनाथ के नाथ ''. ये लोग खग मृग तो अवस्य ही नहीं हैं पर अनाथ जरूर हैं .पर प्रजातंत्र में ये प्रश्न चिन्ह हैं कि जहां प्रगति का ग्राफ रोज -रोज ऊपर उठत़ा हुआ दिखया जाता हो क्या ये वास्तविकता मुह चिढाते हुयी दिखाई नहीं पडती .अगर यह हमारा समाज है तो इनकी इस दशा में हमारी भी भूमिका है .
रविवार, 20 फ़रवरी 2011
हिंदी साहित्य में इन दिनों
हिन्दी साहित्य में इन दिनों
सक्रीय है चार जन
पहले हैं फतवाचंद
दुसरे हैं संपूर्णानंद नन्द
तीसरे हैं आसी राम
चौथे हैं घासी राम
ये चारो महाजन
पांचवें आम जन को जगाते हैं
उसे गरियाते; रिरयाते
अपनी वेदना सुनाते हैं
पांचवां जन ; इन से पीछा छुड़ा
वह स्वंम में लीन है
उसके लिए साहित्य सब
भैंस के आगे वाली बीन है
इक छटा जन और है
जो आलोचक कलाता है
इन चारो की हल चल पर
वह जोर से गुर्राता है
डपटता और ललकारता है
अनुसाशन बनाए रखने के नाम पर
अपना लंगोट इन पर घुमाता है
इस पूरे प्रहसन में सातवां एक और है
जो चारो महाजनों का बाप है
इनके परिश्रम की मलाई
ठाठ से खाता है
पक्का घंधेवाज
यह सातवाँ प्रकाशक कहलाता है
सक्रीय है चार जन
पहले हैं फतवाचंद
दुसरे हैं संपूर्णानंद नन्द
तीसरे हैं आसी राम
चौथे हैं घासी राम
ये चारो महाजन
पांचवें आम जन को जगाते हैं
उसे गरियाते; रिरयाते
अपनी वेदना सुनाते हैं
पांचवां जन ; इन से पीछा छुड़ा
वह स्वंम में लीन है
उसके लिए साहित्य सब
भैंस के आगे वाली बीन है
इक छटा जन और है
जो आलोचक कलाता है
इन चारो की हल चल पर
वह जोर से गुर्राता है
डपटता और ललकारता है
अनुसाशन बनाए रखने के नाम पर
अपना लंगोट इन पर घुमाता है
इस पूरे प्रहसन में सातवां एक और है
जो चारो महाजनों का बाप है
इनके परिश्रम की मलाई
ठाठ से खाता है
पक्का घंधेवाज
यह सातवाँ प्रकाशक कहलाता है
शनिवार, 19 फ़रवरी 2011
भारतीय मनीषा के अमर गायक कवि श्री नरेश मेहता
१५ फरवरी , सन १९२२ को श्री नरेश मेहता का जन्म मध्य प्रदेश के शाजापुर [मालवा ] में हुआ था . श्री नरेश मेहता की शिक्षा बनारस में हुई . लेखन की शुरूआत एक कवि के रूप में हुई . बाद में लेखन की दूसरी विधाओं में आपका मत्वपूर्ण लेखन हुआ था . वे हिन्दी के पांचवें रचनाकार है जिन्हें ज्ञान पीठ पुरस्कार मिला था . नरेश जी का गद्य दार्शनिक प्रयोगों का सबसे बड़ा उदाहरण है . उनकी दार्शनिकता का आधार भारतीय ऋषियों जैसा है . नरेश मेहता ने भाषा के स्तर पर अनेक प्रयोग किये थे . उनकी भाषा का स्तर छायावादी कवियों से भिन्न है . उनकी कविता की के स्तर पर कोई दूसरा कवि खडा नहीं होता है . नरेश मेहता को समझने में जितनी सहायता उनकी रचनाएं करती उससे अधिक साहयता महमा मेहता दुवारा लिखित पुस्तक ' उत्सव पुरुष नरेश मेहता ' और नरेश मेहता की जीवनी ' हम अनिकेतन ' करती हैं . उनके व्यक्तित्व और क्रातिव को समझने के लिए ये पुस्तकें जरूर पढ़ी जानी चाहिए .नरेश मेहता ने हिन्दी की सेवा के लिए पहले सेना की नौकरी छोडी बाद में आकाशवाणी में प्रोग्राम अधिकारी का पद छोड़ा . [ यह विवरण उनकी पुस्तक चैत्या के प्रष्ट पर है जो भारतीय ज्ञान पीठ ने प्रकाशित की है ] अनुमान लगाया जासकता है साहित्य के लिए उनका समर्पण किस स्तरका था .श्री नरेश मेहता को याद करने के लिए प्रेम चंद श्रजन पीठ उज्जैन के निदेशक डॉ जगदीश तोमर ने एक आयोजन किया था . इस अवसर पर कवि नरेश जी के लेखन पर विद्वानों ने प्रकाश डाला .
रविवार, 13 फ़रवरी 2011
कामायनी के भाषीय औदात्य को समझाती पुस्तक
डॉ सुरुचि मिश्रा की पुस्तक '' कामायनी का भाषायी औदात्य '' प़र चर्चा गोष्ठी आयोजित हुई . राकेश शर्मा ने पुस्तक की भूमिका पढ़ कर चर्चा के लिए प्रष्ठ भूमि तैयार की .डॉ पुरुषोत्तम दुबे नें पुस्तक प़र विचार प्रकट करते हुए कहा की लेखिका नें कामायनी में प्रयुक्त शब्दावली की गहरी मीमांशा की है . यह पुस्तक कामायनी के अर्थ समझने में पाठक की बहुत मदद करती है . श्री जय शंकर प्रसाद ने पूरे भारतीय चिंतन कामायनी में प्रस्तुत किया है . यह चिंतन वैदिक शब्दावली भी साथ लेकर चला है .वैदिक शब्दावली आज के पाठक की समझ दूर होती जा रही है . ऐसी स्थिति में यह पुस्तक प्रयोजनीय मालूम पडती है . लेखिका नें बहुत श्रम पूर्वकं इसे लिखा है . डॉ ओम ठाकुर नें कहा की कामायनी आधुनिक समय का सबसे आधिक महत्व पूर्ण महाकाव्य है .ऐसे महाकाव्य को समझानें की दिशा में यह पुस्तक एक उचित प्रयास है . डॉ जवाहर चौधरी नें कहा नें इस पुस्तक मूल्य एक आम पाठक की बजाय एक एकेडमिक और शोधार्थी के लिए ज्यादा है . वरिष्ठ कवि श्री क्रष्ण कान्त निलोसे ने कहा कि कविता करते समय कवी को विराट में प्रवेश करना होता है . यह एक समाधि की अवस्था होती है . उस अवस्था में शब्द स्वं ही कवी तक पहुंच जाते हैं . यही सब प्रसाद के साथ हुआ है . जिसका परीक्षण इस पुस्तक में लेखिका नें किया है . ख्यात गजलकार श्री चन्द्र भान भारदुआज ने कहा कि रचना प्रकिया से गुजरते समय कवि की जो चेतना है वही उसका आध्यात्म होता है . श्री गोपाल माहेश्वरी ने कहा एक रचनाकार का चिंतन जिस स्तर का होगा उसके शब्दों का चयन भी वैसा ही होगा . इनके अलावा पुस्तक चर्चा में श्री रविश त्यागी , श्री मती रंजना फ्तेपुरकर ने भी भाग लिया . आभार आशु कवि प्रदीप नवीन नें माना . 

शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2011
बुधवार, 9 फ़रवरी 2011
बुनियादी सवालों से झूझता एक आलोचक
पिछले दिनों ख्यात आलोचक डॉ विजय बहादुर सिंह इंदौर आये थे . प्रसंग था बाबा नागर्जुन के अवदान को याद करना . शहर के रचनाकारों के लिए उनका आना कई अर्थों में विशेष था . बात चीत के अनेक प्रसंगों में हमारे समय के सवालों प़र चर्चा हुई , हिन्दी आलोचना आज अराजकता के मुहाने प़र खडी दिखाई पडती है . एक पूरी पीढी जिसे परम्परा से काटा गया गया था . आज अपने को प्रवंचित सी पा रही है . जो सवाल डॉ रामविलास शर्मा ने अपनी पुस्तक ''मार्क्सवाद और प्रगतिशील साहित्य'' में सन १९८४ में उठाए थे और कहा था कि प्रगतिशीलता के मायने यह नहीं कि पूरी भारतीय परम्परा की अनदेखी की जाए .डॉ शर्मा लिखते हैं ' अनेक लेखक ऐसे हैं कि वे इकदम नये सिरे से एक नये साहित्य को जन्म देने जा रहे हैं . इसलिए वे पिछले साहित्य की तरफ अव्ज्या , उदासीनता और agyyan का रवैया अपनाते हैं . वे हिन्दी साहित्य की जातीय विशेषताओं को नहीं पहचान पाए और इसी लिए उन्हें विकसित नहीं कर पाए ''[ मार्क्स और प्रगतिशील साहित्य , ६३] जो अवसाद जमा है उसे तोड़ा जाए और एक समता मूलक समाज की रचना की जाए . साहित्य में जो धारा वाल्मीक, व्यास , कालिदास , तुलसीदास , निराला से होती हुई हमारे पास तक आई है . वह अप्रासंगिक कैसे हो सकती है ? उस समय प्रगतिशील आन्दोलन के अगुआकारों ने इन स्थापनाओं को खारिज कर दिया था .आज वे ही लोग उन्हीं चीजों का समर्थन करते घूम रहे हैं . जैसे कभी अगेय को कवि न मानने वाले आलोचक आज कल अगेय की कविता का गुड गान करते हुए नहीं थकते . डॉ विजय बहादुर सिंह ने ऐसे ही अनेक ज्वलंत सबालों पर चिंतन प्रस्तुत कर विमर्श के लिए भाव भूमि तैयार की , कुछ लोगों का यह भी कहना था कि स्वयम डॉ विजय बहादुर भी मार्क्स वाद से जुड़े रहे हैं फिर आज किस आधार प़र ये प्रश्न उठा रहे है . विकास की अपनी एक यात्रा है एक विचारक शुरूआत में जिन आस्थाओं से अपनी यात्रा शुरू करता है, कुछ समय बाद उनके विरुद्ध हो जाता है , यह उसकी विकास यात्रा के प्रमाण हैं , मूल सबाल यह है कि हम जड़ वस्तुओं की भाँती चिपके न रहें . मानव जीवन परिवर्तन का ही एक नाम है . कोई भी विचार धारा हर युग में प्रासंगिक बनी नहीं रह सकती और किसी भी विचार का कभी भी अंत नहीं होता .
डॉ विजय बाहादुर सिंह ने अनेक सुलगते सवालों पर प्रकाश डाला . उन्होंने अपने एक धन्टे और तीस मिनट के अत्यंत प्रभावी भाषन में कवि नागार्जुन के साहितिय्क अवदान प़र अविस्मरनीय जानकारियाँ दीँ, चीन के हमले के समय जब सभी बाम पंथी लेखक चुप थे . तब केवल बाबा नागर्जुन ही जिन्होंने अपनी रचनाओं में चीन का विरोध किया था . पंडित नेहरू के साथ बाबा नागार्जुन के वैचारिक विरोध को रेखांकित करते हुए उन्होंने ये पंक्तियाँ पढ़ी ' जो तुम रह जाते दस साल और , झुकती स्वराज की डाल और'' बाबा नागार्जुन की ये पक्तियायाँ सुन कर डॉ रामविलास शर्मा की पुस्तक '' गांधी ,आम्बेडकर , लोहिया और भारतीय इतिहास की समस्याएं ' का स्मरण हो आया .
![]() |
,डॉ विजय बहादुर सिंह के साथ डॉ रवीन्द्र पहलवान |
डॉ विजय बाहादुर सिंह ने अनेक सुलगते सवालों पर प्रकाश डाला . उन्होंने अपने एक धन्टे और तीस मिनट के अत्यंत प्रभावी भाषन में कवि नागार्जुन के साहितिय्क अवदान प़र अविस्मरनीय जानकारियाँ दीँ, चीन के हमले के समय जब सभी बाम पंथी लेखक चुप थे . तब केवल बाबा नागर्जुन ही जिन्होंने अपनी रचनाओं में चीन का विरोध किया था . पंडित नेहरू के साथ बाबा नागार्जुन के वैचारिक विरोध को रेखांकित करते हुए उन्होंने ये पंक्तियाँ पढ़ी ' जो तुम रह जाते दस साल और , झुकती स्वराज की डाल और'' बाबा नागार्जुन की ये पक्तियायाँ सुन कर डॉ रामविलास शर्मा की पुस्तक '' गांधी ,आम्बेडकर , लोहिया और भारतीय इतिहास की समस्याएं ' का स्मरण हो आया .
इंदौर प्रवास के दौरान शहर के अनेक रचना कार डॉ विजय बहादुर सिंह से मिलने होटल सुन्दर में आते रहे इनमे प्रमुख रूप से दादा क्रष्ण कान्त निलोसे , व्यंगकार डॉ जवाहर चौधरी , वरिष्ट कवि श्री चन्द्रसेन विराट , श्री हरेराम बाजपेयी ,आशु कवि प्रदीप नवीन , दोहाकार प्रभु त्रिवेदी ,ऐतिहासिक उपन्यास लेखक डॉ शरद पगारे , कवि डॉ रवीन्द्र नारायण पहलवान , आदि शामिल हैं 



सोमवार, 7 फ़रवरी 2011
साहित्य की आँख से इतिहास को देखती पुस्तक '' पाटलि पुत्र की साम्रागी ''
भारत में इतिहास एक अलग विषय के रूप में कभी नहीं रहा . भारतीय धार्मिक पुस्तकों में विज्ञान , इतिहास और दर्शन सभी कुछ एक साथ है . शोध कर्ताओं का कर्तव्य है कि वे अनुसन्धान कर इनके रूपों को अलग -अलग स्थापित करें . हमारें इतिहास के वारे में अंग्रेजों ने सिखा दिया कि भारत का कोई इतिहास नहीं है और हमारे अग्रेज इतिहासकारो ने मान लिया कि अंग्रेज सच कह रहे हैं परन्तु यह सच नहीं है .यह विवाद पुराना है . इंदौर के डॉ शरद पगारे इतिहास के माने हुए लेखक और प्रोफेसर हैं . पिछले दिनों उनकी पुस्तक ''पाटलि पुत्र की साम्रागी प़र चर्चा आयोजित की गयी . यह आयोजन पाठाक मंच इंदौर ने आयोजित किया था .इस अवसर प़र पुस्तक के लेखक डॉ शरद पगारे स्वं उपस्थित थे . चर्चा में भाग लेने आये विद्वानों के प्रश्नों के उत्तर लेखक ने दिए . पुस्तक पर युवा कवि प्रदीप मिश्र ने पर्चा पढ़ा . चर्चा में डॉ जवार चौधरी , डॉ रामकिसन सोमानी , डॉ रवीन्द्र नारायण पहलवान , ललित भाटी, डॉ शशि निगम , रंजना फ्तेपुरकर , प्रदीप नवीन ,श्याम दांगी , अजय दांगी ,वंदना जोशी ,नेहा जोशी , रजनी रमण शर्मा , अजय शुक्ला [कानपूर ] शुभाष चन्द्र निगम नें भाग लिया , विद्वान लेखकों ने यह माना के इतिहास प़र निरंतर चर्चा होनी चाहिए . चर्चाये और बहसें कभी अंतिम नहीं होती परन्तु इन से कोई रास्ता निकलता है जो हमें किसी निष्कर्ष तक पहुंचाता है . जो समाज चर्चाओं और बहसों से दूर भागता है उसके विकास के रास्ते बंद हो जाते हैं , डॉ शरद पगारे की पुस्तक में जहां एक ओर इतिहास की पुख्ता जान कारी देती है वहीं दूसरी ओर विमर्श के लिए भाव भूमि पैदा करती है . लेखक की यह सबसे बड़ी सफलता है . जिन स्थानों प़र इतिहास मौन है उन्हें लेखक नें कल्पना के सहारे भरा है . ऐतिहासिक लेखन बिना इतिहास के गेप भरे पूरा नहीं हो सकता यही काम इस पुस्तक के माध्यम से लेखक ने किया है .
रविवार, 6 फ़रवरी 2011
निराला की चिंताओं को समझे बिना , सब अधूरा है
बसंत पंचमी को महाकवि निराला का जन्म दिन मनाया जाता है . यहबात सही कि उनका जन्म बसंत पंचमी को नहीं हुआ था . वे जिस दिन जन्में थे उस दिन बसंत पंचमी नहीं थी . बसंत पंचमी मा सरस्वती का जन्म दिन माना जाता है . निराला अपने को सरस्वती का पुत्र मानते थे .वे थे भी . . वे कहते हैं कि ''मैं हूँ बसंत का अग्र दूत / ब्राम्ह्ड समाज में जियों अछूत''. हिन्दी साहित्य और भषा में एक साथ इतने प्रयोग करने वाले वे अकेले रचना कार हैं. हिन्दी का विकास उनकी पहली चिंता थी . सन १९३५ में सुधा पत्रिका की संपादकी में निराला लिखते हैं ---'' हिन्दी साहित्यकारों ने हिन्दी के पीछे तो अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया है ,प़र हिन्दी भाषियों ने उनकी तरफ वैसा ध्यान नहीं दिया -- सतांश भी नहीं . वे सहितियिक इस समय जिस कठिनता का सामना कर रहे हैं , उसे देख कर किसी भी सहिरदय की आँखों में आंसू आ जाएँ . चुपचाप वे आर्थिक कष्ट को सहन करते हुए साहित्य का निर्माद करते जा रहे हैं बदले में उन्हें अनाधिकारी साहित्यको से लांछन और असंस्कृत जनता से अनादर प्राप्त हो रहा है . [ सुधा जून ३५ संपादित टिप्पड़ी २ ]
निराला की चिताएं आज के रचना कारों के सामने भी मौजूद हैं . हिन्दी में एक समय आया जब रचनाकारों को प्रगतिवाद , जनवाद , कलावाद के नाम प़र बाँट कर देखा गया . परिणाम यह हुआ कि हिन्दी प्रदेश की जनता
में यह सन्देश गया कि साहित्य अब केवल राजनीत का विषय है ,समाज से उसका कोई सरोकार नहीं है .
डॉ रामविलास शर्मा ने इस पूरे परिद्रश्य प़र प्रकाश डालते हुए लिखा ;; सन १८५७ के स्वाधीनता - संग्राम के बाद अंग्रेजों ने हर संभव उपाय हिन्दी भाषी प्रदेश की सामाजिक - सांस्कृतिक प्रगति में बाधा डाली . औधोगिक विकास में पीछे , निरक्षरता में आगे , छोटे बड़े प्रान्तों में विभाजित , तालुकेदारों , जमीदारों का गढ़ , भाषा का अकेला भाषा क्षेत्र जिसकी बोल चाल की भाषा एक लेकिन साहित्य भषाएँ दो , भारत अकेला भाषा क्षेत्र जिसमें इक मुस्लिम विस्वविध्यालय , एक हिन्दू विश्वविध्यालय , भारत का वह भाषाखेत्र जिसमें सबसे ज्यादा बोलियाँ हैं , जिसमें जात्तीय चेतना का सबसे अभाव है , जिसपर अंग्रेजों का प्रभुत्व सबसे ज्यादा है ऐसा है हमारा हिन्दी भाषी क्षेत्र . अंग्रेजों के जाने के बाद उसकी इस स्थिति में मौलिक परिवर्तन नहींहुआ.
हिन्दी प्रदेश की भाषाई हालत समझे बिना देश में भषा का आन्दोलन खडा नहीं किया जा सकता . आज सबसे बड़ी जरूरत हिन्दी को बचाने और उसे प्रसारित करनी की है . महाकवि निराला के जन्म दिन प़र हमें हिदी के विकास विकास का संकल्प लेना चाहिए . यही उनके प्रति सच्ची श्रधान्जली होगी केवल भाषण दे कर बात समाप्त करने वालों का अनुकरण बेकार है .
निराला की चिताएं आज के रचना कारों के सामने भी मौजूद हैं . हिन्दी में एक समय आया जब रचनाकारों को प्रगतिवाद , जनवाद , कलावाद के नाम प़र बाँट कर देखा गया . परिणाम यह हुआ कि हिन्दी प्रदेश की जनता
में यह सन्देश गया कि साहित्य अब केवल राजनीत का विषय है ,समाज से उसका कोई सरोकार नहीं है .
डॉ रामविलास शर्मा ने इस पूरे परिद्रश्य प़र प्रकाश डालते हुए लिखा ;; सन १८५७ के स्वाधीनता - संग्राम के बाद अंग्रेजों ने हर संभव उपाय हिन्दी भाषी प्रदेश की सामाजिक - सांस्कृतिक प्रगति में बाधा डाली . औधोगिक विकास में पीछे , निरक्षरता में आगे , छोटे बड़े प्रान्तों में विभाजित , तालुकेदारों , जमीदारों का गढ़ , भाषा का अकेला भाषा क्षेत्र जिसकी बोल चाल की भाषा एक लेकिन साहित्य भषाएँ दो , भारत अकेला भाषा क्षेत्र जिसमें इक मुस्लिम विस्वविध्यालय , एक हिन्दू विश्वविध्यालय , भारत का वह भाषाखेत्र जिसमें सबसे ज्यादा बोलियाँ हैं , जिसमें जात्तीय चेतना का सबसे अभाव है , जिसपर अंग्रेजों का प्रभुत्व सबसे ज्यादा है ऐसा है हमारा हिन्दी भाषी क्षेत्र . अंग्रेजों के जाने के बाद उसकी इस स्थिति में मौलिक परिवर्तन नहींहुआ.
हिन्दी प्रदेश की भाषाई हालत समझे बिना देश में भषा का आन्दोलन खडा नहीं किया जा सकता . आज सबसे बड़ी जरूरत हिन्दी को बचाने और उसे प्रसारित करनी की है . महाकवि निराला के जन्म दिन प़र हमें हिदी के विकास विकास का संकल्प लेना चाहिए . यही उनके प्रति सच्ची श्रधान्जली होगी केवल भाषण दे कर बात समाप्त करने वालों का अनुकरण बेकार है .
शनिवार, 5 फ़रवरी 2011
अवसाद के सरोवर में फेका गया पत्थर होती है कविता
![]() |
कार्यक्रम में उपस्थित लोग |
कविता जीवन द्रष्टि देती है . पाठक का आत्म विस्तार करती है . उसे निज हटा कर पर से जोडती है .आज का खाता पीता समाज यदि आत्महत्त्यों के आकडे बढ़ा रहा है तो यह सोचना जरूरी हो गया है कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है . एक अभाव ग्रसित आदमी यदि आत्म हत्या जैसा पाप करे तो कोई कारण समझ में आता है लेकिन अच्छे शहर में निवास करने वाली महिला जो एक डॉ भी हो यदि आत्म ह्त्या करे तो विचार करना होगा . पिछले दिनों इंदौर में एक महिला डॉ ने जहर खा कर आत्म हत्या की अपने साथ ही उसने अपने चौदह वर्षीय पुत्र को भी जहर खिलाया . कारण केवल यह हो कि बेटे के नंबर कम आये थे , क्या यह भी कोई कारण हो सकता है , आत्म ह्त्या का ? मेरे विचार से विल्कुल नहीं . असल में जैसे .. जैसे यह समाज पुस्तकों के पाठन - पाठन से दूर होता जाएगा वैसे ही वैसे यह आत्म केन्द्रित होगा . आत्म केन्द्रित आदमी में जीवन के झंझावत झेलने की ताकत नहीं बचती . अध्ययन आदमी के मानस का विस्तार करता है . अध्ययन एक आदमी को सभी जड़ और चेतन वस्तुओं के साथ बात करने की द्रष्टि पैदा करता है . आखिर कविता की उत्पत्ति एक पक्षी की पुकार से ही तो हुई है . इसका यह साफ़ मतलब है की केवल आदमी ही नही यह संसार उन सभी प्रादियों के लिए भी है ,जिहें भगवान ने रचा है . कितना अच्छा हो कि हम अपने समाज को वापस किताबों की ओर ले कर चल पायें . हमारे विकास के माप दंड किताबों की संख्या पर केन्द्रित हो कि इस वर्ष कितनी किताबें पढ़ी गयी . आदमी के विकास का पैमाना अर्थ कैसे हो सकता है ? अर्थ यदि आदमी के विकास का पैमाना होता तो भगवान् महावीर , और बुद्ध को घर छोड़ने की जारूत न होती . आदमी के विकास का रास्ता उसके ही अंदर से पैदा होता है इस रास्ते को पैदा करने में साहित्य की भूमिका बहुत बड़ी है ,आज के आदमी को ज्ञान की ज़रूरत है केवल सूचनाओं की नहीं . हमारा पूरा जोर सूचना देने पर है ज्ञान के विकास पर नहीं . इसके परिणाम हमारे सामने आने शुरू हो गए हैं ,अभी भी वक्त है विचाए लें . हिन्दी में विपुल साहित्य रचा जा रहा परन्तु आम आदमी का ध्यान उस पर नहीं है . समाज का पेट खाली है एक भूखा समाज साहित्य नहीं पढ़ता , साहित्य की भूख मानसिक है , उदर की नहीं . जब भारत के समाज का पेट भरा हुआ था तब वेद जैसी पुस्तकें हमने रचीं और उनका इस समाज ने अनुशीलन भी किया. पेट की भूख का कोई अंत नहीं है , इसके लिए जीवन में संतोष पैदा करने की जरूरत होती है . [इस अवसर प़र डॉ रवीन्द्र नारायण पहलवान , , कवित्री रश्मी रमानी , अनिल भोसले , संदीप रसिनकर, श्रीति रासिनकर और श्री मती निशा पहलवान , चन्द्र शेखर राव , महेंद्र जेन , डॉ मन्मथ पाटनी ,शरद तिवारी उपस्थित थे .] [ यह एक भाषण का अंश है जो कल दि. ४ .२ २०११ को श्री जवाहर लाल गर्ग की पुस्तक 'सरोवर के कमल ' के विमोचन अवसर पर दिया गया था . आयोजन रोटरी क्लब इंदौर , अप टाउन ने किया था ].
![]() |
संवोधित करते हुए राकेश शर्मा |

रविवार, 30 जनवरी 2011
लघु कथा संग्रह ''अँधेरे के खिलाफ'' का विमोचन

![]() |
बाई ओर से श्री चन्द्र भान भारद्वाज , चन्द्र सेन विराट , अंसारी जी एवं प्रताप सिंह सोढ़ी |
प्रकाशक ;;;;;;पड़ाव प्रकाशन , h थ्री ,
उद्व मेहता परिसर
नेहरु नगर भोपाल ४६२००८
मूल्य ;;;;;;;; rs १५०
सदस्यता लें
संदेश (Atom)